12 नवंबर: महामना मदन मोहन मालवीय जी पुण्यतिथि — धर्मनिष्ठ, गौभक्त और काशी हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक

एक युगपुरुष की कहानी: जिसने शिक्षा, धर्म और राष्ट्र को जोड़ा

वाराणसी की पवित्र गलियों में जब सूरज गंगा के शांत जल पर सुनहरी आभा बिखेरता है, तो लगता है जैसे इतिहास फिर जीवित हो गया हो। गंगा की लहरों में एक स्वर गूंजता है — “भारत की आत्मा शिक्षा, धर्म और सेवा में बसती है।” यह आवाज़ किसी सामान्य व्यक्ति की नहीं, बल्कि उस महामानव की थी जिसने अपने जीवन को राष्ट्र के पुनर्जागरण के लिए अर्पित कर दिया। वह थे महामना पंडित मदन मोहन मालवीय जी, एक ऐसे व्यक्ति जिन्होंने धर्म, शिक्षा और राष्ट्रप्रेम — तीनों को एक सूत्र में बाँध दिया।

उन्होंने भारत को केवल एक विश्वविद्यालय नहीं दिया, बल्कि एक विचार दिया — एक ऐसा स्थान जहाँ भक्ति और विज्ञान साथ-साथ पल्लवित हों, जहाँ चरित्र और ज्ञान का संगम हो। वह स्थान था काशी हिंदू विश्वविद्यालय (BHU), जो आज भी उनके आदर्शों का प्रतीक है।

12 नवंबर 1946 को महामना इस संसार से विदा हो गए, लेकिन उनकी आत्मा आज भी काशी की हवाओं में, गंगा के प्रवाह में और BHU के हर विद्यार्थी के हृदय में जीवित है। उनकी कहानी केवल एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि भारत की आत्मा की पुनर्जागरण गाथा है।

प्रारंभिक जीवन: संस्कारों की नींव

पंडित मदन मोहन मालवीय जी का जन्म 25 दिसंबर 1861 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में हुआ। उनके पिता पंडित ब्रजनाथ मालवीय संस्कृत के विद्वान और प्रसिद्ध कथा-वाचक थे, जो ‘भागवत कथा’ और ‘रामायण’ का पाठ कर समाज में धर्म और नैतिकता की भावना जागृत करते थे।

घर का वातावरण धार्मिक और संस्कारित था। बाल्यकाल से ही मदन मोहन पूजा-पाठ और संस्कृत ग्रंथों के अध्ययन में गहरी रुचि रखते थे। उनकी माता मोहन देवी ने उनमें करुणा, सेवा और संयम के संस्कार डाले। वे कहा करती थीं — “बेटा, ज्ञान तभी पूर्ण होता है जब उसमें धर्म और सेवा का दीप जलता है।” यह संस्कार आगे चलकर उनके जीवन का मार्गदर्शन बने।

शिक्षा और राष्ट्र चेतना की शुरुआत

मालवीय जी ने प्रारंभिक शिक्षा हरदुआगंज में प्राप्त की और आगे इलाहाबाद के म्योर सेंट्रल कॉलेज में अध्ययन किया। वे संस्कृत और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में दक्ष थे। 1884 में उन्होंने बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की, पर आर्थिक कारणों से उच्च शिक्षा जारी नहीं रख सके।

इसी समय उन्होंने देखा कि अंग्रेज़ी शिक्षा पद्धति भारतीय संस्कृति को कमजोर कर रही है। उन्होंने अनुभव किया कि भारत को आधुनिक विज्ञान की जानकारी चाहिए, पर वह शिक्षा तभी सार्थक होगी जब उसमें भारतीय आत्मा का प्रकाश होगा। उनके मन में यह विचार गहराई से बैठ गया कि धर्म और शिक्षा का संगम ही भारत को फिर से विश्वगुरु बना सकता है।

राजनीतिक और राष्ट्रीय जीवन की शुरुआत

1886 में मालवीय जी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन में भाग लिया। यहीं से उनके राष्ट्रसेवा के पथ की शुरुआत हुई। अपने पहले भाषण में ही उन्होंने देशभर के नेताओं का ध्यान आकर्षित किया। उनकी वाणी में संयम, श्रद्धा और राष्ट्रभक्ति का गहरा भाव था।

कांग्रेस में रहते हुए उन्होंने सदा धर्मनिष्ठ और नैतिक राजनीति का समर्थन किया। वे कहते थे — “राजनीति धर्म से अलग नहीं हो सकती। धर्मविहीन राजनीति केवल स्वार्थ का साधन बन जाती है।”

वे चार बार कांग्रेस के अध्यक्ष बने — 1909, 1918, 1932 और 1933 में। महात्मा गांधी ने उन्हें ‘महामना’ कहकर संबोधित किया। गांधीजी कहा करते थे — “यदि भारत में कोई व्यक्ति है जो चरित्र, शिक्षा और धर्म का सच्चा संगम है, तो वह मालवीय जी हैं।”

पत्रकारिता — राष्ट्र की आवाज़ का माध्यम

मालवीय जी केवल नेता या शिक्षक नहीं, बल्कि एक सशक्त कलम के योद्धा थे। उन्होंने 1891 में ‘हिन्दुस्तान’, ‘लीडर’ और बाद में ‘इंडियन यूनियन’ जैसे अख़बारों की स्थापना में प्रमुख भूमिका निभाई। उनका विश्वास था कि पत्रकारिता केवल समाचार का साधन नहीं, बल्कि राष्ट्र की आत्मा का दर्पण है।

उन्होंने ब्रिटिश शासन की अन्यायपूर्ण नीतियों की आलोचना की और स्वदेशी व आत्मनिर्भरता का संदेश दिया। उनका यह कथन आज भी प्रेरणा देता है — “स्वतंत्रता की लड़ाई केवल तलवार से नहीं, विचारों से जीती जाती है, और विचारों का सबसे बड़ा शस्त्र है — लेखनी।”

उनके संपादकीय लेखों में स्पष्टता, संयम और राष्ट्रप्रेम झलकता था। उन्होंने पत्रकारिता को राष्ट्र सेवा का माध्यम बनाया, न कि व्यवसाय का।

शिक्षा के क्षेत्र में योगदान — BHU का सपना

मालवीय जी का जीवन मिशन था — एक ऐसा विश्वविद्यालय बनाना जो भारत के सांस्कृतिक पुनर्जागरण का केंद्र बने। उन्होंने 1911 में इस स्वप्न को रूप देना शुरू किया। 1915 में ब्रिटिश संसद ने “BHU Bill” पारित किया और 4 फरवरी 1916 को काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना हुई।

काशी की पवित्र भूमि पर यह विश्वविद्यालय भारतीय परंपरा और आधुनिक विज्ञान का संगम बना। यहाँ संस्कृत, वेद, दर्शन, आयुर्वेद के साथ इंजीनियरिंग, विज्ञान और आधुनिक विषयों की शिक्षा दी जाने लगी।

विश्वविद्यालय की स्थापना के अवसर पर मालवीय जी ने कहा — “यह संस्थान भारत की आत्मा को फिर से जाग्रत करेगा और आने वाली पीढ़ियों को सिखाएगा कि धर्म और विज्ञान विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हैं।”

आज BHU उसी भावना पर खड़ा है — ज्ञान, सेवा और संस्कृति का एक जीवंत प्रतीक।

धर्मनिष्ठता और गौसंरक्षण का जीवनधर्म

मालवीय जी गहरे धार्मिक, सनातन धर्म में आस्था रखने वाले और गौभक्त व्यक्ति थे। उन्होंने अखिल भारतीय गौसंरक्षण सभा की स्थापना की और देशभर में गोशालाएँ स्थापित कराईं। वे कहते थे — “गाय हमारी संस्कृति की आत्मा है। गौसंरक्षण केवल धार्मिक कर्तव्य नहीं, बल्कि आर्थिक और सांस्कृतिक आधार है।”

उनका धर्म किसी कट्टरता पर नहीं, बल्कि सर्वभूत हिताय की भावना पर आधारित था। उनके लिए हिंदुत्व का अर्थ था — सत्य, संयम, सेवा और सहिष्णुता। वे कहा करते थे — “हमारा धर्म दूसरों को नीचा दिखाने का नहीं, बल्कि सबको जोड़ने का मार्ग है।”

स्वदेशी और समाज सेवा का अभियान

मालवीय जी महात्मा गांधी के स्वदेशी आंदोलन के समर्थक थे। उन्होंने विदेशी वस्त्रों और आयातित वस्तुओं के बहिष्कार का नेतृत्व किया। उनका विश्वास था कि राजनीतिक स्वतंत्रता तभी टिकाऊ होगी जब आर्थिक स्वावलंबन स्थापित होगा।

वे युवाओं से कहा करते थे — “विदेशी वस्त्र त्यागो, भारतीय आत्मा को अपनाओ, यही सच्चा स्वराज है।”

उन्होंने बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ और अन्य स्थानों पर अनाथालय, छात्रावास और विद्यालयों की स्थापना कराई। उनका जीवन इस बात का प्रमाण था कि सेवा ही धर्म है।

साम्प्रदायिक सौहार्द और राष्ट्र दृष्टि

मालवीय जी भले ही हिंदू संस्कृति के प्रतीक माने जाते थे, पर उनके राष्ट्रवाद का आधार सर्वधर्म समभाव और एकता थी। वे मानते थे कि भारत की ताकत उसकी विविधता में है। उन्होंने कहा — “भारत की शक्ति उसकी विविधता में है। जब तक यह एकता बनी रहेगी, तब तक कोई हमें विभाजित नहीं कर सकता।”

उनके लिए राष्ट्र केवल भौगोलिक क्षेत्र नहीं, बल्कि एक जीवंत आध्यात्मिक चेतना था। वे कहते थे — “राष्ट्र एक शरीर है, जिसके हृदय में धर्म और आत्मा में संस्कृति बसती है।”

व्यक्तित्व और आदर्श

मालवीय जी का जीवन अनुशासन, सादगी और आत्मसंयम का प्रतीक था। उन्होंने कभी सरकारी पद या लाभ स्वीकार नहीं किया। वे सदैव सफेद खादी पहनते, तुलसी की माला धारण करते और भक्ति भाव से जीवन व्यतीत करते थे। हर सुबह वे गीता का पाठ करते और दिन का आरंभ “जय श्री राम” के साथ करते थे।

उनके व्यक्तित्व में एक अजीब आकर्षण था — शांति, विनम्रता और आत्मविश्वास का संगम। गांधीजी ने कहा था — “महामना भारत के नैतिक बल के प्रतीक हैं।”

स्वतंत्रता संग्राम में योगदान

मालवीय जी ने स्वतंत्रता आंदोलन में नैतिक और वैचारिक नेतृत्व दिया। 1919 के जलियांवाला बाग़ नरसंहार के बाद उन्होंने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जनमत तैयार किया। उन्होंने लाला लाजपत राय की गिरफ्तारी का विरोध किया और जनजागरण के अनेक अभियान चलाए।

वे हिंसा के विरोधी थे, परंतु अन्याय के नहीं। उनकी नीति थी — “सत्य, सेवा और सहनशीलता।” वे कहते थे — “भारत को शक्ति चाहिए, पर वह शक्ति धर्म और करुणा से जन्मी हो, घृणा से नहीं।”

उनकी वाणी से देशभर में नैतिक चेतना जागी।

अंतिम वर्ष और विरासत

1946 में महामना का देहांत हुआ। लेकिन वे अपने पीछे एक ऐसी ज्योति छोड़ गए जो आज भी भारत के हर कोने में प्रकाश दे रही है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय आज भी उनके सिद्धांतों पर चल रहा है। यहाँ हर विद्यार्थी “ज्ञानामृतं सर्वत्र सर्वदा” की भावना को अपनाता है।

हर वर्ष 12 नवंबर को BHU में उनकी पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि दी जाती है। प्रधानमंत्री से लेकर सामान्य विद्यार्थी तक उन्हें “महामना” कहकर नमन करते हैं। क्योंकि उन्होंने सिखाया था कि धर्म और राष्ट्र सेवा एक ही साधना है।

महामना की आज की प्रासंगिकता

आज जब शिक्षा व्यवसाय बन गई है, राजनीति नैतिकता से दूर हो रही है, और समाज में विभाजन की रेखाएँ गहरी हो रही हैं, मालवीय जी की शिक्षाएँ पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हैं।

वे कहते थे — “राष्ट्र का उत्थान ज्ञान, चरित्र और सेवा से होता है, न कि केवल सत्ता से।”

उनके विचारों में हिंदुत्व कोई राजनीतिक विचार नहीं, बल्कि जीवन का आचरण था। उनका हिंदुत्व सहिष्णुता, करुणा और सत्य पर आधारित था।

निष्कर्ष: एक अमर युगपुरुष की विरासत

महामना मदन मोहन मालवीय जी का जीवन भारत के पुनर्जागरण की गाथा है। उन्होंने शिक्षा को साधना, राजनीति को धर्म और सेवा को पूजा बनाया। उन्होंने सिखाया कि भारत केवल भूमि नहीं, यह चेतना है — जब तक यह चेतना जीवित है, भारत अमर रहेगा।

आज जब BHU के प्रांगण में दीप जलता है, तो वह केवल ज्ञान का दीप नहीं, बल्कि महामना की आत्मा का प्रतीक है।

12 नवंबर केवल उनकी पुण्यतिथि नहीं — यह दिन उस ऋषि को याद करने का है जिसने सिखाया कि धर्म, शिक्षा और राष्ट्रप्रेम ही भारत की आत्मा हैं।

जय महामना। जय भारत।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top