18 अगस्त को हम परमवीर चक्र विजेता लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर तारापोरे की जयंती मनाते हैं, जिन्होंने 1965 के युद्ध में घायल होकर भी दुश्मन के 60 टैंक तबाह कर भारत माता का गौरव बढ़ाया। ये वीर, जिनकी वीरता को नकली कलमकारों ने गुमनाम रखने की कोशिश की, हिंदू शौर्य और देशभक्ति की मिसाल हैं। उनकी गाथा उन युद्धभूमियों पर गूंजती है, जहाँ उन्होंने दुश्मनों को पराजित किया। यह लेख उनके साहस, बलिदान, और हिंदू वीरता की अमर कहानी को समर्पित है, जो हर देशभक्त के लिए प्रेरणा है।
प्रारंभिक जीवन: वीरता की विरासत
अर्देशिर तारापोरे का जन्म 18 अगस्त 1923 को मुंबई, महाराष्ट्र में हुआ था, जो आज उनकी जयंती के रूप में मनाया जाता है। उनके पूर्वजों का संबंध छत्रपति शिवाजी महाराज की सेना से था, जिन्हें वीरता के लिए 100 गांवों का इनाम मिला था। इनमें से एक गांव तारापोर था, जिससे उनका वंश तारापोरे कहलाया। बहादुरी की इस विरासत को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने सरदार दस्तूर वायज स्कूल, पुणे से 1940 में मैट्रिक पास की। इसके बाद उन्होंने सेना में जाने का फैसला किया, जहाँ उनकी देशभक्ति और राष्ट्रप्रेम नस-नस में रचा-बसा था।
सैन्य प्रशिक्षण और शुरुआती करियर
अर्देशिर का सैन्य प्रशिक्षण ऑफिसर ट्रेनिंग स्कूल, गोलकुंडा में हुआ, और वे बेंगलुरु भेजे गए। 1 जनवरी 1942 को उन्हें 7वीं हैदराबाद इन्फैंट्री में कमीशंड ऑफिसर के रूप में नियुक्त किया गया। हालाँकि, उनका मन बख्तरबंद रेजिमेंट में टैंकों से युद्ध लड़ने का था। एक रोचक घटना ने उनकी तकदीर बदल दी। एक बार उनकी बटालियन का निरीक्षण मेजर जनरल इंड्रोज, स्टेट फोर्सेस के कमांडर-इन-चीफ, कर रहे थे। ट्रेनिंग के दौरान एक रंगरूट का हैंड ग्रेनेड असुरक्षित क्षेत्र में गिरा। फुर्ती से तारापोरे ने छलांग लगाकर उसे सुरक्षित स्थान पर फेंका, लेकिन विस्फोट में वे घायल हो गए। इस साहस के लिए इंड्रोज ने उनकी तारीफ की और उन्हें आर्म्ड रेजिमेंट, लांसर्स में स्थानांतरित कर दिया।
1965 का युद्ध: चाविंडा का घमासान
11 सितंबर 1965 को लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर तारापोरे स्यालकोट सेक्टर में थे और पूना हॉर्स की कमान संभाल रहे थे। 1 कोर्प्स का लक्ष्य चाविंडा पर कब्जा करना था। उन्हें फिल्लौरा पर अचानक हमला करने का आदेश मिला, ताकि चाविंडा जीता जा सके। हमले के दौरान वजीराली से दुश्मन ने जोरदार जवाबी गोलीबारी शुरू की। घायल होने के बावजूद तारापोरे ने हिम्मत नहीं हारी और अपने स्क्वाड्रन को इन्फैंट्री के साथ लेकर फिल्लौरा पर धावा बोला। उनकी नेतृत्व क्षमता और साहस ने दुश्मन को पीछे धकेल दिया।
दुश्मन के 60 टैंक तबाह
14 सितंबर को 1 कोर्प्स ने चाविंडा पर कब्जे के लिए रणनीति बनाई। 17 हॉर्स और 8 गढ़वाल राइफल्स को जस्सोरान और बुनटुर डोगरांडी पर कब्जा करने का आदेश दिया गया। 16 सितंबर को 17 हॉर्स ने 9 डोगरा के साथ जस्सोरान पर कब्जा किया, लेकिन भारी नुकसान हुआ। उधर, 8 गढ़वाल ने बुनटुर अग्राडी पर सफलता पाई, परंतु कमांडिंग ऑफिसर झिराड शहीद हो गए। तारापोरे चाविंडा पर हमले के लिए डटे रहे। उनकी टुकड़ी ने दुश्मन के 60 टैंक तबाह किए, जबकि केवल 9 टैंक गंवाए। यह उपलब्धि उनकी युद्धक सूझबूझ का प्रमाण थी।
बलिदान और परमवीर चक्र
16 सितंबर 1965 को चाविंडा के युद्ध में तारापोरे दुश्मन के निशाने पर आए। घायल अवस्था में भी वे लड़े, लेकिन अंततः वीरगति प्राप्त की। उनकी मृत्यु ने उनकी सेना को दोगुना जोश से भर दिया, और लड़ाई जारी रही। भारत सरकार ने लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर तारापोरे को मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया, जो उनके साहस का सर्वोच्च सम्मान है। हम उनके बलिदान को सलाम करते हैं।
पाकिस्तान की मान्यता: एक योद्धा का सम्मान
पाकिस्तानी मेजर आगा हुमायूँ खान और मेजर शमशाद ने चाविंडा युद्ध पर एक आलेख लिखा, जो पाकिस्तान के डिफेंस जर्नल में प्रकाशित हुआ। उन्होंने तारापोरे को एक बहादुर और अजेय योद्धा बताया, जिन्होंने 17 पूना हॉर्स का कुशल संचालन किया। यह दुश्मन की भी उनकी वीरता की स्वीकृति थी, जो हिंदू शौर्य का गर्व बढ़ाती है।
आधुनिक संदर्भ: प्रेरणा का स्रोत
18 अगस्त 2025 को, तारापोरे की जयंती पर हम उनके बलिदान को याद करते हैं। आज भी देश की सीमाएँ और हिंदू अस्मिता पर खतरे हैं। उनकी वीरता हमें सिखाती है कि दुश्मन का मुकाबला करने के लिए साहस और एकता जरूरी है। सुदर्शन परिवार इस महायोद्धा को नमन करता है और उनकी गौरवगाथा को अमर रखने का संकल्प लेता है।
वीरता का सम्मान
हम लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोरे को नमन करते हैं, जिन्होंने घायल होकर भी 60 टैंक तबाह कर भारत का मान बढ़ाया। उनका बलिदान हिंदू शौर्य और देशभक्ति का प्रतीक है। जय हिंद की सेना के इस वीर को सलाम, और हम उनकी यशगाथा को सदा सदा के लिए संजोएंगे।