18 जुलाई: गोलियां खत्म हुईं, पर हौसला नहीं – संगीन से दुश्मनों को ढेर कर अमर हुए परमवीर पीरू सिंह

18 जुलाई: गोलियां खत्म हुईं, पर हौसला नहीं – संगीन से दुश्मनों को ढेर कर अमर हुए ‘परमवीर पीरू सिंह’

18 जुलाई, वह अमर तारीख जब वीरता ने इतिहास में स्वर्णिम छाप छोड़ी। यह वह दिन है जब राजस्थान के झुंझनू जिले के बेरी गांव के सपूत, हवलदार मेजर पीरू सिंह, ने 1948 में टिथवाल युद्ध में अपने प्राणों की आहुति देकर देश की रक्षा की। रणबांकुरों की धरती शेखावाटी, खासकर झुंझनू, पूरे देश में शूरवीरों और बहादुरों के लिए जाना जाता है।

इस जिले ने देश को सर्वाधिक सैनिक दिए हैं, और इसकी मिट्टी के हर कण में वीरता की गूँज सुनाई देती है। सदियों पुरानी परंपरा रही है यहाँ कि मातृभूमि के लिए हंसते-हंसते मर जाना गर्व की बात है। पीरू सिंह की कहानी उसी गौरवशाली इतिहास का हिस्सा है, जिसने 18 जुलाई को देशभक्ति का एक अमर अध्याय लिखा।

राजपूताना राइफल्स की ‘डी’ कंपनी का शेर: हवलदार मेजर पीरू सिंह का वीरतापूर्ण सफर

पीरू सिंह का जन्म 1917 में झुंझनू जिले के बेरी नामक छोटे से गांव में ठाकुर लाल सिंह के घर हुआ था। चार भाईयों में सबसे छोटे पीरू सिंह में बचपन से ही साहस और जुझारूपन था। वे राजपूताना राइफल्स की छठी बटालियन की “डी” कंपनी में हवलदार मेजर के रूप में अपनी सेवाएँ दे रहे थे। 1947 के भारत-पाक विभाजन के बाद कश्मीर पर कबायली हमलावरों ने आक्रमण किया और वहाँ की भूमि पर कब्जा जमा लिया। कश्मीर नरेश ने अपनी रियासत को भारत में विलय की घोषणा की, जिसके बाद भारतीय सेना ने अपनी भूमि की रक्षा के लिए फौजें तैनात कीं। 5 नवंबर 1947 को राजपूताना राइफल्स की छठी बटालियन, जिसमें पीरू सिंह शामिल थे, हवाई जहाज से श्रीनगर पहुँची।

टिथवाल युद्ध: शौर्य का चरम

श्रीनगर की रक्षा के बाद छठी बटालियन ने कबायली हमलावरों को खदेड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मई 1948 में उरी और टिथवाल क्षेत्र में झेलम नदी के दक्षिण में पीरखण्डी और लेडीगली जैसी प्रमुख पहाड़ियों पर कब्जा किया गया, जहाँ पीरू सिंह ने अपने नेतृत्व और साहस से सभी को प्रभावित किया। जुलाई 1948 के दूसरे सप्ताह में जब दुश्मन का दबाव टिथवाल क्षेत्र में बढ़ने लगा, तो बटालियन को उरी से टिथवाल स्थानांतरित किया गया। टिथवाल की सुरक्षा का मुख्य केंद्र रिछमार गली था, जो 9 किलोमीटर दक्षिण में स्थित था और लगातार खतरे में था।

18 जुलाई 1948 को सुबह छठी राइफल्स ने दारापाड़ी पहाड़ी की बन्नेवाल दरारिज पर दुश्मन को हटाने का अभियान शुरू किया। यह स्थान ऊँची-ऊँची चट्टानों से घिरा था, जहाँ पहुँचना बेहद कठिन था। तंग जगह होने के कारण सीमित जवानों को यह जिम्मेदारी सौंपी गई, और पीरू सिंह ने इस हमले का नेतृत्व संभाला। जैसे-जैसे उनकी प्लाटून आगे बढ़ी, दुश्मन की ओर से दोनों तरफ से गोलियाँ बरसने लगीं। आधे से अधिक साथी शहीद हो गए, लेकिन पीरू सिंह का हौसला डिगा नहीं। वे अपने साथियों को प्रोत्साहित करते रहे और प्राणों की परवाह किए बिना आगे बढ़े।

अंतिम युद्ध: गोलियों से संगीन तक

जब पीरू सिंह उस स्थान पर पहुँचे जहाँ से दुश्मन मशीनगनों से गोलियाँ बरसा रहा था, उन्होंने अपनी स्टेनगन से दुश्मन के सैनिकों को भून डाला। दुश्मन की गोलीबारी रुक गई, लेकिन तब तक उनके सभी साथी शहीद हो चुके थे। फिर भी, वे अकेले आगे बढ़े। रक्त से लथपथ, उन्होंने हथगोलों से दुश्मन पर हमला बोला। इसी बीच एक गोली उनके माथे पर लगी, लेकिन गिरते-गिरते उन्होंने दो दुश्मन खंदकों को नष्ट कर दिया। गोलियाँ खत्म होने के बाद भी उनका हौसला नहीं रुका; संगीन से दुश्मनों को ढेर कर उन्होंने अपनी वीरता का चरम प्रदर्शन किया। यह वीरता और कर्तव्यपरायणता का ऐसा उदाहरण था, जो भारतीय सैनिक इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा गया।

परमवीर चक्र: सम्मान का प्रतीक

पीरू सिंह की इस अपूर्व वीरता के लिए भारत सरकार ने उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया, जो देश का सर्वोच्च वीरता पुरस्कार है। अविवाहित पीरू सिंह की ओर से यह सम्मान उनकी माता ने 26 जनवरी 1948 को राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद से ग्रहण किया। वे राजस्थान के पहले और भारत के दूसरे परमवीर चक्र विजेता बने। उनका बलिदान न केवल झुंझनू बल्कि पूरे देश के लिए प्रेरणा का स्रोत है। शेखावाटी की इस मिट्टी ने एक बार फिर साबित किया कि यहाँ के वीर सपूत मातृभूमि के लिए अपनी जान की भी परवाह नहीं करते।

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