21 जून: पूज्य डॉ. हेडगेवार की पुण्यतिथि, जिनका लगाया ‘संघ’ रूपी बीज आज राष्ट्रभक्ति की छांव दे रहा है

21 जून का दिन भारत के इतिहास में एक विशेष स्थान रखता है। यह वह दिन है जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के संस्थापक और प्रथम सरसंघचालक, परम पूज्य डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार की पुण्यतिथि मनाई जाती है। डॉ. हेडगेवार, जिन्हें प्यार से ‘डॉक्टर जी’ कहा जाता है, ने 1925 में एक छोटा सा बीज बोया था, जो आज एक विशाल वटवृक्ष बनकर राष्ट्रभक्तों को छांव और शक्ति दे रहा है।

उनकी दूरदर्शिता, त्याग और राष्ट्र के प्रति अटूट समर्पण ने भारत को एक ऐसी संगठनात्मक शक्ति दी, जो सनातन संस्कृति, हिंदुत्व और राष्ट्रीय गौरव की रक्षा के लिए अडिग खड़ी है। यह गाथा हर उस भारतीय के लिए प्रेरणा है, जो अपनी माटी, धर्म और संस्कृति के लिए जीता है।

डॉ. हेडगेवार का प्रारंभिक जीवन: राष्ट्रभक्ति की नींव

डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार का जन्म 1 अप्रैल 1889 को नागपुर में एक साधारण मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बचपन से ही उनके मन में देशभक्ति की लौ जल रही थी। जब वे मात्र 13 वर्ष के थे, तब उन्होंने अंग्रेजी शासन के खिलाफ स्कूल में ‘वंदे मातरम्’ का नारा बुलंद किया और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के प्रतीक ‘किंग एडवर्ड’ की तस्वीर को फेंक दिया। यह घटना उनके क्रांतिकारी स्वभाव का प्रतीक थी।

मेडिकल की पढ़ाई के लिए कोलकाता भेजे गए, लेकिन वहां उनका संपर्क क्रांतिकारी संगठनों, जैसे अनुशीलन समिति, से हुआ। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया और अपने चिकित्सकीय ज्ञान को देशसेवा में लगाया। लेकिन डॉ. हेडगेवार को जल्द ही अहसास हुआ कि केवल सशस्त्र क्रांति से भारत की गुलामी की जंजीरें नहीं टूटेंगी। देश को एक ऐसी संगठित शक्ति की जरूरत थी, जो समाज में चरित्र निर्माण, एकता और राष्ट्रभक्ति का भाव जागृत करे। यही विचार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना का आधार बना।

संघ की स्थापना: एक बीज का वटवृक्ष बनना

1925 में विजयादशमी के पावन अवसर पर, डॉ. हेडगेवार ने नागपुर में एक छोटे से समूह के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नींव रखी। उनका उद्देश्य था—हिंदू समाज को संगठित करना, उसमें आत्मविश्वास और अनुशासन का भाव जगाना, और भारत को एक सशक्त राष्ट्र के रूप में स्थापित करना। उन्होंने ‘शाखा’ की अवधारणा शुरू की, जहां स्वयंसेवक शारीरिक व्यायाम, बौद्धिक चर्चा और संस्कारों के माध्यम से राष्ट्रसेवा के लिए तैयार होते थे।

डॉ. हेडगेवार का मानना था कि हिंदू समाज की एकता और सनातन संस्कृति की रक्षा ही भारत की आत्मा को जीवित रख सकती है। उन्होंने स्वयंसेवकों को सिखाया कि राष्ट्रभक्ति केवल नारों तक सीमित नहीं, बल्कि यह एक जीवनशैली है। उनके इस दृष्टिकोण ने संघ को एक सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलन का रूप दिया। आज संघ की शाखाएं न केवल भारत, बल्कि विश्व के कोने-कोने में राष्ट्रभक्ति की मशाल जला रही हैं।

हिंदुत्व और राष्ट्रवाद: डॉ. हेडगेवार का दर्शन

डॉ. हेडगेवार का राष्ट्रवाद केवल राजनीतिक स्वतंत्रता तक सीमित नहीं था। उनका मानना था कि भारत की आत्मा उसकी सनातन संस्कृति और हिंदुत्व में बस्ती है। उन्होंने हिंदुत्व को एक जीवन पद्धति के रूप में देखा, जो सभी धर्मों और समुदायों को समेट सकता है, बशर्ते वे भारत की सांस्कृतिक एकता को स्वीकार करें। यह दर्शन राइट विंग विचारकों के लिए प्रेरणा का स्रोत है, जो सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति को वैश्विक मंच पर गर्व के साथ प्रस्तुत करना चाहते हैं।

उन्होंने विदेशी आक्रांताओं—मुगलों से लेकर अंग्रेजों तक—के अत्याचारों का विश्लेषण किया और समझा कि हिंदू समाज की कमजोरी उसकी असंगठितता थी। इसलिए, उन्होंने संघ को एक ऐसा मंच बनाया, जहां हर वर्ग, जाति और समुदाय का व्यक्ति एकसाथ खड़ा होकर राष्ट्र के लिए काम कर सके। उनका यह दृष्टिकोण आज भी संघ की ताकत है, जो समाज में एकता और भाईचारे को बढ़ावा देता है।

संघ का सामाजिक योगदान: डॉ. हेडगेवार की विरासत

डॉ. हेडगेवार ने केवल 15 वर्षों तक संघ का नेतृत्व किया, लेकिन उनकी नींव इतनी मजबूत थी कि आज संघ विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन है। उनकी मृत्यु के बाद, माधव सदाशिव गोलवलकर (गुरुजी) ने उनकी विरासत को आगे बढ़ाया। संघ ने स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, और आजादी के बाद भी आपदाओं, सामाजिक सुधारों और राष्ट्र निर्माण में उसका योगदान अनुकरणीय है।

चाहे 1962 का भारत-चीन युद्ध हो, 1971 का बांग्लादेश मुक्ति संग्राम, या प्राकृतिक आपदाएं जैसे भूकंप और बाढ़, संघ के स्वयंसेवकों ने बिना किसी स्वार्थ के सेवा की। शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास और सांस्कृतिक जागरण के क्षेत्र में संघ की सहयोगी संस्थाएं, जैसे विद्या भारती, वनवासी कल्याण आश्रम और विश्व हिंदू परिषद, आज लाखों लोगों के जीवन को बेहतर बना रही हैं। यह सब डॉ. हेडगेवार के उस छोटे से बीज का परिणाम है, जो अब एक विशाल वटवृक्ष बन चुका है।

डॉ. हेडगेवार का त्याग और समर्पण

डॉ. हेडगेवार का जीवन सादगी और त्याग का प्रतीक था। उन्होंने कभी विवाह नहीं किया और अपना पूरा जीवन राष्ट्रसेवा को समर्पित कर दिया। उनकी दिनचर्या में शाखा, स्वयंसेवकों के साथ चर्चा और राष्ट्र के लिए चिंतन शामिल था। वे स्वयंसेवकों को परिवार की तरह मानते थे और हर एक को व्यक्तिगत रूप से प्रेरित करते थे।

1940 में, जब उनकी तबीयत बिगड़ी, तब भी वे संघ के कार्य को प्राथमिकता देते रहे। 21 जून 1940 को, मात्र 51 वर्ष की आयु में, उन्होंने अंतिम सांस ली। लेकिन उनकी मृत्यु केवल शारीरिक थी; उनका विचार और दर्शन आज भी संघ के हर स्वयंसेवक के हृदय में जीवित है।

आज के संदर्भ में डॉ. हेडगेवार की प्रासंगिकता

आज, जब भारत वैश्विक मंच पर एक शक्ति के रूप में उभर रहा है, डॉ. हेडगेवार का दर्शन और भी प्रासंगिक हो गया है। वैश्वीकरण और पश्चिमी प्रभावों के बीच, भारतीय युवाओं को अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़े रखना जरूरी है। संघ का ‘हिंदुत्व’ का विचार केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है।

डॉ. हेडगेवार ने सिखाया कि राष्ट्र की सेवा हर व्यक्ति का कर्तव्य है। उनका यह संदेश आज के युवाओं को प्रेरित करता है कि वे अपनी शिक्षा, कौशल और ऊर्जा को राष्ट्र निर्माण में लगाएं। राइट विंग विचारकों के लिए, उनका जीवन एक मशाल है, जो सनातन धर्म, हिंदू एकता और राष्ट्रीय गौरव की रक्षा का मार्ग दिखाती है।

21 जून, डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार की पुण्यतिथि, हमें उनके त्याग, समर्पण और दूरदर्शिता को याद करने का अवसर देता है। उन्होंने एक छोटा सा बीज बोया, जो आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रूप में एक विशाल वटवृक्ष बन चुका है। यह वृक्ष लाखों स्वयंसेवकों को राष्ट्रभक्ति की छांव देता है और भारत को सांस्कृतिक, सामाजिक और राष्ट्रीय रूप से सशक्त बनाने में योगदान देता है।

डॉ. हेडगेवार की गाथा हर भारतीय के लिए प्रेरणा है। उनका जीवन हमें सिखाता है कि सच्ची राष्ट्रभक्ति वह है, जो समाज में एकता, अनुशासन और सेवा का भाव जगाए। उनकी पुण्यतिथि पर, हम संकल्प लें कि उनके दिखाए मार्ग पर चलकर हम भारत को विश्व गुरु बनाने में योगदान देंगे। पूज्य डॉक्टर जी को कोटि-कोटि नमन!

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