25 जून 2025, आज वह दिन है जब हम स्वतंत्र भारत के इतिहास के सबसे काले अध्याय इमरजेंसी की 50वीं वर्षगांठ को याद करते हैं। 25 जून 1975 को इंदिरा गांधी ने एक ऐसा फैसला लिया, जिसने भारत के लोकतंत्र पर ताला लगा दिया। अगले 21 महीनों तक देश ने सत्ता के अत्याचारों का ऐसा दौर देखा, जिसने न केवल नागरिकों के अधिकार छीने, बल्कि स्वतंत्रता की आत्मा को कुचलने की कोशिश की।
नसबंदी के आतंक से लेकर जेलबंदी तक, प्रेस पर सेंसरशिप से लेकर विपक्ष का दमन—यह वह दौर था, जब एक व्यक्ति की सत्ता लालसा ने भारत को तानाशाही की ओर धकेल दिया। लेकिन भारत की जनता ने इस जुल्म का जवाब दिया और लोकतंत्र को फिर से जिंदा किया। यह गाथा हर भारतीय के लिए एक चेतावनी और प्रेरणा है कि स्वतंत्रता कितनी अनमोल है।
इमरजेंसी की पृष्ठभूमि: सत्ता का संकट
1970 के दशक की शुरुआत में, इंदिरा गांधी की लोकप्रियता चरम पर थी। 1971 के लोकसभा चुनाव में “गरीबी हटाओ” नारे और बांग्लादेश युद्ध में भारत की जीत ने उन्हें अपार समर्थन दिलाया। लेकिन जल्द ही उनकी सरकार पर भ्रष्टाचार, महंगाई, और बेरोजगारी के गंभीर आरोप लगने लगे। 1974 तक देश में असंतोष बढ़ गया। जयप्रकाश नारायण (जेपी) ने बिहार में छात्र आंदोलन शुरू किया, जो “संपूर्ण क्रांति” के नारे के साथ राष्ट्रीय आंदोलन बन गया। यह आंदोलन इंदिरा सरकार के लिए गंभीर चुनौती बन गया।
12 जून 1975 को, इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया। राज नारायण के मुकदमे में, इंदिरा गांधी का 1971 का रायबरेली से चुनाव रद्द कर दिया गया, क्योंकि उन्होंने चुनावी नियमों का उल्लंघन किया था। अदालत ने उन्हें छह साल तक कोई सार्वजनिक पद संभालने से रोक दिया। सत्ता छिनने के डर से इंदिरा ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की, लेकिन विपक्ष और जनता का दबाव बढ़ता गया। इस संकट ने उन्हें वह कदम उठाने के लिए मजबूर किया, जिसने भारत के लोकतंत्र को अंधेरे में धकेल दिया।
25 जून 1975: लोकतंत्र पर ताला
25 जून 1975 की रात, इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल की घोषणा पर हस्ताक्षर करवाए। “आंतरिक अशांति” का हवाला देकर देश में इमरजेंसी लागू कर दी गई। रातों-रात विपक्षी नेताओं—जेपी, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, जॉर्ज फर्नांडिस—को जेल में डाल दिया गया। प्रेस पर सख्त सेंसरशिप लागू की गई, और नागरिकों के मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए।
इंदिरा गांधी ने ऑल इंडिया रेडियो पर कहा, “देश को अनुशासन की जरूरत है।” लेकिन यह अनुशासन नहीं, तानाशाही थी। संजय गांधी, इंदिरा के छोटे बेटे ने बिना किसी आधिकारिक पद के सत्ता की बागडोर संभाल ली। उनकी मर्जी ही कानून बन गई। इमरजेंसी ने भारत को एक ऐसी जेल में बदल दिया, जहां कोई भी सवाल उठाने की हिम्मत नहीं कर सकता था।
नसबंदी का आतंक: सत्ता का क्रूर चेहरा
इमरजेंसी का सबसे बर्बर पहलू था जबरन नसबंदी अभियान। संजय गांधी ने जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर एक ऐसा कार्यक्रम शुरू किया, जिसने लाखों लोगों की जिंदगी तबाह कर दी। सरकारी कर्मचारियों, शिक्षकों, और पुलिस को नसबंदी के टारगेट पूरे करने के आदेश दिए गए। उत्तर प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, और अन्य राज्यों में लोगों को जबरन पकड़कर नसबंदी कराई गई।
गांवों में पुलिस छापे मारती थी, और पुरुषों को ट्रकों में भरकर नसबंदी कैंपों में ले जाया जाता था। कई मामलों में, अविवाहित युवकों, बुजुर्गों, और यहां तक कि महिलाओं की भी नसबंदी कर दी गई। गुड़गांव में विरोध करने वालों पर गोलीबारी हुई, और कई लोग मारे गए। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 1975-77 के बीच 83.6 लाख नसबंदियां हुईं, जिनमें से अधिकांश जबरन थीं। इस अत्याचार ने जनता में भय और आक्रोश की आग भड़का दी।
जेलबंदी और प्रेस का दमन
इमरजेंसी के दौरान 1.4 लाख से ज्यादा लोग बिना मुकदमे के जेल में डाल दिए गए। मेन्टेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट (MISA) और डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स (DIR) ने सरकार को असीमित शक्ति दे दी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS), जनसंघ, और अन्य संगठनों के कार्यकर्ताओं को विशेष रूप से निशाना बनाया गया। लोकनायक जयप्रकाश नारायण को पटना में कैद किया गया, जहां उनकी सेहत बिगड़ गई।
प्रेस पूरी तरह गुलाम बन गया। अखबारों को सरकार की मंजूरी के बिना कुछ भी छापने की इजाजत नहीं थी। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ और ‘स्टेट्समैन’ जैसे कुछ अखबारों ने सेंसरशिप का विरोध किया, लेकिन उनकी बिजली काट दी और छपाई रोक दी गई। एक बार ‘इंडियन एक्सप्रेस’ ने अपने पहले पन्ने को खाली छोड़कर विरोध जताया। यह स्वतंत्र पत्रकारिता के लिए सबसे शर्मनाक दौर था।
जनता का संघर्ष: तानाशाही के खिलाफ जंग
इमरजेंसी के जुल्मों ने जनता में गुस्से की लहर पैदा कर दी। जेपी के नेतृत्व में लोक संघर्ष समिति और RSS जैसे संगठनों ने भूमिगत आंदोलन शुरू किया। जेलों में बंद कार्यकर्ताओं ने हार नहीं मानी। नानाजी देशमुख, दत्तोपंत ठेंगड़ी, और अन्य RSS नेताओं ने गांव-गांव में जनता को संगठित किया। लालकृष्ण आडवाणी ने जेल से लिखा, “लोकतंत्र की आत्मा को नहीं मारा जा सकता।”
1977 में, इंदिरा गांधी ने आत्मविश्वास में आकर लोकसभा चुनाव की घोषणा की, यह सोचकर कि जनता उनके साथ है। लेकिन जनता ने जवाब दिया। जनता पार्टी, जिसमें जनसंघ, समाजवादी और अन्य दल शामिल थे, ने 1977 के चुनाव में कांग्रेस को करारी शिकस्त दी। इंदिरा और संजय गांधी दोनों अपनी सीट हार गए। मोरारजी देसाई भारत के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने। यह जनता की जीत थी, जिसने तानाशाही को उखाड़ फेंका।
इमरजेंसी का प्रभाव: राजनीति का नया युग
इमरजेंसी ने भारतीय राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया। इसने RSS और जनसंघ को मजबूत किया, जो बाद में भारतीय जनता पार्टी (BJP) के रूप में उभरे। जेपी आंदोलन ने लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार और मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं को जन्म दिया। लेकिन सबसे बड़ा सबक यह था कि सत्ता का दुरुपयोग कितना खतरनाक हो सकता है।
राइट विंग विचारकों के लिए, इमरजेंसी कांग्रेस और वामपंथी विचारधारा की सनातन संस्कृति और लोकतंत्र को दबाने की साजिश का प्रतीक है। RSS और जनसंघ के कार्यकर्ताओं ने इमरजेंसी के खिलाफ लड़कर सिद्ध किया कि हिंदुत्व और राष्ट्रभक्ति भारत की असली ताकत हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई बार इमरजेंसी को याद करते हुए कहा, “यह वह दौर था, जब कांग्रेस ने लोकतंत्र का गला घोंटा।”
इमरजेंसी के 50 साल बाद, 25 जून 1975 का वह काला दिन हमें याद दिलाता है कि लोकतंत्र कितना नाजुक और कीमती है। इंदिरा गांधी के फैसले ने भारत के लोकतंत्र पर ताला लगा दिया, और देश ने सत्ता के अत्याचारों का भयानक दौर देखा। नसबंदी, जेलबंदी, और प्रेस का दमन—यह सब एक तानाशाही की कहानी थी। लेकिन भारत की जनता ने हार नहीं मानी। 1977 के चुनावों में उसने तानाशाही को धूल चटाई और लोकतंत्र को फिर से स्थापित किया।
आज, जब हम इमरजेंसी के 50 साल मना रहे हैं, हमें उन नायकों—जेपी, RSS कार्यकर्ताओं, और लाखों आम लोगों—को नमन करना चाहिए, जिन्होंने लोकतंत्र की रक्षा की। यह कहानी हमें सिखाती है कि सनातन संस्कृति, स्वतंत्रता, और राष्ट्रभक्ति के बिना भारत अधूरा है। इमरजेंसी का यह काला अध्याय हमें चेताता है कि कभी भी तानाशाही को पनपने न दें। भारत के अमर लोकतंत्र को कोटि-कोटि नमन!