भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में न्यायपालिका का कंधा निष्पक्षता की ज़िम्मेदारी उठाता है। लेकिन जब अदालती फैसलों में धार्मिक संस्थाओं के लिए अलग-अलग मानदंड नज़र आते हैं, तो सवाल उठना लाज़िमी हो जाता है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने वक्फ संपत्तियों को लेकर जो टिप्पणी की, उसने एक नई बहस को जन्म दे दिया है — “जब वक्फ को संपत्ति के दावे के लिए दस्तावेज़ नहीं चाहिए, तो फिर मंदिरों से सदियों पुराने सबूत क्यों मांगे जा रहे हैं?”
क्या है मामला?
सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई के दौरान यह कहा कि वक्फ बोर्ड को किसी संपत्ति पर दावा करने के लिए दस्तावेज़ी सबूत देना ज़रूरी नहीं है। बोर्ड यह कहे कि कोई ज़मीन वक्फ है, तो उसे प्राइमाफेसी (prima facie) मान लिया जाएगा। यही नहीं, कोर्ट ने यह भी कहा कि वक्फ संपत्ति का ट्रस्टी (mutawalli) अगर खुद को मालिक कहता है, तो भी उससे संपत्ति छीनने का आधार नहीं बनता।
अब यहीं से सवाल खड़ा होता है कि क्या यही मापदंड हिंदू मंदिरों और उनकी संपत्तियों पर भी लागू होता है? जब मंदिरों के लिए दस्तावेज़ों, नक्शों, पुरातात्विक प्रमाणों और शिलालेखों की मांग की जाती है, तब क्या यह ‘दोहरा मापदंड’ नहीं कहलाएगा?
मंदिरों को साबित क्यों करना पड़ता है?
इतिहास गवाह है कि भारत में हजारों मंदिरों को या तो तोड़ा गया, बदला गया या मस्जिदों में तब्दील कर दिया गया। इन मामलों में जब भी हिंदू पक्ष मंदिर के अस्तित्व की बात करता है, तो अदालतें उनसे ठोस सबूत मांगती हैं — जैसे कि उस स्थान का पुरातात्विक महत्व, कोई शिलालेख, मंदिर की डिजाइन, पूजा पद्धति या फिर ब्रिटिश या मुग़ल रिकॉर्ड।
राम जन्मभूमि मामला इसका ताज़ा उदाहरण है, जिसमें हिंदू पक्ष को ASI की रिपोर्ट, साक्ष्य और इतिहासिक तथ्यों के सहारे यह सिद्ध करना पड़ा कि वहाँ मंदिर था। वहीँ दूसरी ओर वक्फ बोर्ड को सिर्फ एक मौखिक या परंपरागत दावा काफी माना जा रहा है।
वक्फ बोर्ड को कैसे मिलती है संपत्ति?
भारत में वक्फ एक इस्लामिक ट्रस्ट होता है, जो मुस्लिम समुदाय की धार्मिक, सामाजिक या शैक्षणिक ज़रूरतों के लिए संपत्तियाँ रखता है। ये संपत्तियाँ वक्फ अधिनियम 1995 के तहत बोर्ड के नियंत्रण में होती हैं। वक्फ की संपत्ति वक़्फ करने वाले व्यक्ति द्वारा ‘अल्लाह के नाम’ पर छोड़ी जाती है, जिससे वह संपत्ति धार्मिक ट्रस्ट बन जाती है।
यहाँ तक तो ठीक है, लेकिन विवाद तब शुरू होता है जब वक्फ बोर्ड उन ज़मीनों पर दावा करता है जिन पर आज दूसरे धर्मों की संरचनाएँ या उपयोग हो रहे हों। और ज़्यादातर मामलों में दावा करने के लिए दस्तावेज़ी साक्ष्य की ज़रूरत नहीं समझी जाती।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से मचा बवाल
सुप्रीम कोर्ट की हालिया टिप्पणी — कि वक्फ के दावे के लिए दस्तावेज़ों की ज़रूरत नहीं — ने इस बात को हवा दी है कि क्या वक्फ बोर्ड को ‘विशेषाधिकार’ दिया जा रहा है?
अगर कोई मंदिर अपने अस्तित्व की बात करे, तो उससे हर पहलू पर सबूत मांगा जाता है। उसे साबित करना होता है कि वहाँ पूजा होती थी, किस देवता की होती थी, कब से होती थी, और क्या वह स्थान ऐतिहासिक है। और अगर मंदिर ज़रा भी विवादित ज़मीन पर हो, तो उसे कानूनी और ऐतिहासिक स्तर पर खुद को जस्टिफाई करना पड़ता है।
वहीं दूसरी तरफ, अगर वक्फ बोर्ड कह दे कि कोई संपत्ति वक्फ है, तो उसे अदालत में मान्यता मिल जाती है। ऐसे में निष्पक्ष न्याय की बात कैसे की जा सकती है?
न्याय में समानता ज़रूरी
भारत का संविधान ‘समानता का अधिकार’ (Right to Equality – Article 14) की गारंटी देता है। इसका अर्थ है कि कानून सबके लिए एक जैसा होगा। फिर चाहे मामला मंदिर का हो या मस्जिद का, वक्फ संपत्ति हो या ट्रस्ट संपत्ति — सभी को समान स्तर पर कानून के तराज़ू में तोलना चाहिए।
किसी एक धार्मिक संस्था को विशेष छूट देना और दूसरे से कठोर सबूत मांगना, संविधान की आत्मा के खिलाफ है। अदालतें खुद बार-बार कहती हैं कि न्याय सिर्फ होना नहीं चाहिए, बल्कि होता हुआ दिखाई भी देना चाहिए।
ये दोहरा मापदंड क्यों?
एक बड़ा सवाल यह भी है कि आखिर इस दोहरे रवैये की वजह क्या है? क्या वक्फ बोर्ड की कानूनी ताक़त ज़्यादा है? या यह ऐतिहासिक अन्यायों की भरपाई की कोशिश है? या फिर राजनीतिक दबाव की भूमिका है?
ऐसा प्रतीत होता है कि वक्फ अधिनियम के तहत बोर्ड को जिस तरह के अधिकार दिए गए हैं, वह काफी व्यापक हैं। वहीं मंदिरों की देखरेख ट्रस्टों के हाथ में होती है, जिन्हें बार-बार कानूनी बाधाओं से गुजरना पड़ता है।