लौह पुरुष की ललकार: नेहरू-गांधी से मतभेद के बावजूद सरदार पटेल ने बचाई भारत की अखंडता

सरदार वल्लभभाई पटेल, जिन्हें भारत का “लौह पुरुष” कहा जाता है, स्वतंत्रता संग्राम के एक ऐसे नायक थे, जिन्होंने न केवल अंग्रेजों से लोहा लिया, बल्कि आजाद भारत को एकजुट करने में अपनी अदम्य इच्छाशक्ति का परिचय दिया। लेकिन उनकी यह यात्रा इतनी आसान नहीं थी। कई मौकों पर उनके विचार जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गांधी से टकराए।

फिर भी, उन्होंने अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया और भारत की अखंडता को बचाने के लिए हर चुनौती का डटकर सामना किया। यह लेख सरदार पटेल की उस ललकार की कहानी है, जब उन्होंने नेहरू और गांधी से मतभेद के बावजूद देश को एक नई दिशा दी।

सरदार पटेल: एक दृढ़ नायक का उदय

सरदार पटेल का जन्म 31 अक्टूबर 1875 को गुजरात के नडियाद में एक साधारण किसान परिवार में हुआ था। अपनी मेहनत और लगन से उन्होंने बैरिस्टर की पढ़ाई पूरी की और स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। खेड़ा सत्याग्रह और बारडोली आंदोलन में उनकी नेतृत्व क्षमता ने उन्हें “सरदार” की उपाधि दिलाई। आजादी के बाद, जब वे भारत के पहले गृह मंत्री बने, तब उनकी असली परीक्षा शुरू हुई। उस समय भारत 562 रियासतों में बंटा हुआ था, और इन रियासतों को एकजुट करना किसी बड़े युद्ध से कम नहीं था।

रियासतों का एकीकरण: नेहरू से पहला बड़ा मतभेद

आजादी के बाद सबसे बड़ी चुनौती थी रियासतों का भारत में विलय। नेहरू और गांधी इस मामले में बातचीत और सहमति के पक्ष में थे। लेकिन पटेल का मानना था कि कठोर कदम उठाए बिना यह संभव नहीं होगा। हैदराबाद और जूनागढ़ जैसी रियासतों ने भारत में शामिल होने से इनकार कर दिया था। हैदराबाद के निजाम ने तो अलग देश बनाने का सपना तक देख लिया था।

नेहरू इस मामले को कूटनीति से हल करना चाहते थे, लेकिन पटेल ने सख्त रुख अपनाया। उन्होंने सेना भेजकर हैदराबाद को भारत में शामिल करवाया। इस कार्रवाई से नेहरू खुश नहीं थे, लेकिन पटेल ने साफ कह दिया कि देश की अखंडता से समझौता नहीं किया जा सकता। उनकी इस ललकार ने न केवल हैदराबाद, बल्कि अन्य रियासतों को भी भारत में शामिल होने के लिए मजबूर कर दिया।

कश्मीर मुद्दा: नेहरू से टकराव की दूसरी वजह

कश्मीर के मुद्दे पर भी सरदार पटेल और नेहरू के बीच गहरे मतभेद थे। 1947 में जब कश्मीर पर पाकिस्तानी कबायलियों ने हमला किया, तब महाराजा हरि सिंह ने भारत से मदद मांगी। पटेल ने तुरंत सैन्य कार्रवाई की वकालत की और कश्मीर को भारत का हिस्सा बनाने के लिए विलय पत्र पर हस्ताक्षर करवाया। लेकिन नेहरू ने इस मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में ले जाकर इसे जटिल बना दिया।

पटेल का मानना था कि कश्मीर का मसला सैन्य ताकत से हल किया जा सकता था, लेकिन नेहरू की अंतरराष्ट्रीय कूटनीति की सोच ने उनकी राह में रोड़े अटकाए। पटेल ने इस फैसले का खुलकर विरोध किया, लेकिन उनकी बात नहीं मानी गई। फिर भी, कश्मीर के भारत में विलय में उनकी भूमिका को आज भी याद किया जाता है।

सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण: गांधी-नेहरू के खिलाफ एक और कदम

सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण का मुद्दा भी पटेल, नेहरू और गांधी के बीच मतभेद का बड़ा कारण बना। सोमनाथ मंदिर, जिसे कई बार आक्रमणकारियों ने तोड़ा था, हिंदुओं की आस्था का प्रतीक था। 1947 में पटेल ने इस मंदिर के पुनर्निर्माण का संकल्प लिया।

गांधी ने सुझाव दिया कि इसके लिए जनता से चंदा लिया जाए, ताकि सरकार पर धर्मनिरपेक्षता का सवाल न उठे। लेकिन नेहरू इस पुनर्निर्माण के पूरी तरह खिलाफ थे। उनका मानना था कि इससे भारत की धर्मनिरपेक्ष छवि को ठेस पहुंचेगी। पटेल ने इस विरोध को नजरअंदाज करते हुए मंदिर का पुनर्निर्माण शुरू करवाया। 1951 में जब मंदिर का उद्घाटन हुआ, तब तक पटेल इस दुनिया में नहीं थे, लेकिन उनकी यह पहल आज भी उनकी दृढ़ता का प्रतीक है।

गांधी से मतभेद: अहिंसा के सिद्धांत पर सवाल

गांधी की अहिंसा की नीति पर भी पटेल ने कई बार सवाल उठाए। जहां गांधी हर हाल में अहिंसा पर जोर देते थे, वहीं पटेल का मानना था कि देश की सुरक्षा और एकता के लिए जरूरत पड़ने पर बल का इस्तेमाल करना गलत नहीं है। 1947 में जब देश में सांप्रदायिक दंगे भड़के, तब पटेल ने कठोर कदम उठाकर स्थिति को नियंत्रित किया। गांधी ने उनकी इस नीति की आलोचना की, लेकिन पटेल ने साफ कहा कि देश की सुरक्षा उनकी पहली प्राथमिकता है। उनकी यह ललकार गांधी के सिद्धांतों से अलग थी, लेकिन इसने देश में शांति स्थापित करने में मदद की।

लौह पुरुष की अमर गाथा

सरदार पटेल ने अपने जीवन में कई बार नेहरू और गांधी से मतभेदों का सामना किया, लेकिन उन्होंने कभी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। रियासतों का एकीकरण, कश्मीर का विलय, और सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण उनके ऐसे फैसले थे, जिन्होंने भारत की अखंडता को मजबूत किया। नेहरू और गांधी के साथ उनके वैचारिक टकराव ने यह साबित किया कि वे एक ऐसे नेता थे, जो अपने देश के लिए किसी भी हद तक जा सकते थे। आज भी सरदार पटेल की ललकार हमें सिखाती है कि सच्चा नेतृत्व वही है, जो कठिन समय में सही फैसले लेने से न डरे। उनकी यह गाथा हर भारतीय के लिए गर्व का विषय है।

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