आज 9 जून 2025 है, और यह दिन भारतीय इतिहास के एक महानायक, बिरसा मुंडा जी के बलिदान दिवस के रूप में मनाया जाता है। बिरसा मुंडा, जिन्हें उनके अनुयायी और आदिवासी समाज प्यार से “धरती आबा” कहकर पुकारता है, एक ऐसे वीर योद्धा थे, जिन्होंने अंग्रेजों की तोपों और बंदूकों के सामने अपनी छाती अड़ा दी और तीर-कमान से उनकी सत्ता की जड़ें हिला दीं। लेकिन अफसोस! स्वतंत्रता संग्राम के नकली ठेकेदारों और वामपंथी इतिहासकारों ने उनकी इस गौरवपूर्ण गाथा को जानबूझकर दबा दिया। चरखे की आड़ में स्वतंत्रता की कहानी को बढ़ावा देने वाले इन चाटुकारों ने बिरसा मुंडा जी के हिंदू-आदिवासी शौर्य को इतिहास के पन्नों से मिटाने की साजिश रची। आज, उनके बलिदान दिवस पर, हमें उनके जीवन और संघर्ष को याद करते हुए यह संकल्प लेना होगा कि उनकी अमर गाथा को हर हिंदू और आदिवासी तक पहुँचाया जाए।
बिरसा मुंडा: हिंदू-आदिवासी गौरव का प्रतीक
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखंड के रांची जिले के उलीहातू गाँव में हुआ था। उनके पिता सुगना मुंडा और माता करमी हातू एक साधारण आदिवासी परिवार से थे। बिरसा ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा साल्गा गाँव में शुरू की और बाद में चाईबासा के इंग्लिश मिडिल स्कूल में पढ़ाई की। लेकिन उनका मन हमेशा अपने समाज की दयनीय स्थिति पर चिंतन करता रहता था। अंग्रेजों ने आदिवासी समाज को उनकी जमीनों से बेदखल कर दिया था, उनकी संस्कृति को कुचला जा रहा था, और उन्हें जबरन धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर किया जा रहा था। बिरसा मुंडा ने इस अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाई और अपने लोगों को एकजुट कर अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूँका।
बिरसा मुंडा को न केवल एक योद्धा के रूप में बल्कि एक आध्यात्मिक नेता के रूप में भी देखा जाता था। उनके अनुयायी उन्हें भगवान का दर्जा देते थे, क्योंकि उन्होंने तोपों और बंदूकों को तीर-कमान से ध्वस्त करने का जो युद्ध कौशल दिखाया, वह किसी देवता से कम नहीं था। बिरसा ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए भी लड़ाई लड़ी। उन्होंने अपने अनुयायियों को धर्म परिवर्तन के खिलाफ जागरूक किया और सनातनी मूल्यों को अपनाने की प्रेरणा दी। यह उनकी हिंदू-आदिवासी एकता की सबसे बड़ी मिसाल थी।
अंग्रेजों के खिलाफ उलगुलान: तीरों से तोपों को हराने की गाथा
19वीं सदी के अंत में बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों के खिलाफ “उलगुलान” (महान विद्रोह) की शुरुआत की। 1894 में छोटा नागपुर में मानसून की विफलता के कारण भयंकर अकाल और महामारी फैल गई थी। इस संकट के समय बिरसा ने अपने लोगों की सेवा में दिन-रात एक कर दिया। उन्होंने 1 अक्टूबर 1894 को मुंडा समुदाय को एकजुट कर अंग्रेजों से लगान माफी के लिए आंदोलन शुरू किया। लेकिन अंग्रेजों ने इसे अपराध मानकर 1895 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया और हजारीबाग केंद्रीय कारागार में दो साल की सजा दी।
जेल से रिहा होने के बाद बिरसा का संकल्प और मज़बूत हो गया। 1897 से 1900 के बीच मुंडा समुदाय और अंग्रेज सिपाहियों के बीच कई बार भयंकर युद्ध हुए। अगस्त 1897 में बिरसा ने अपने 400 क्रांतिकारी सिपाहियों के साथ खूँटी थाने पर तीर-कमान से हमला बोला। 1898 में तांगा नदी के किनारे अंग्रेज सेना के साथ भिड़ंत हुई, जिसमें पहले तो अंग्रेज हार गए, लेकिन बाद में उन्होंने बदले की कार्रवाई में कई आदिवासी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। इन गिरफ्तारियों में कई गद्दार हिंदुस्तानी सिपाहियों का भी हाथ था, जो मेडल और वेतन के लिए अपने ही भाइयों पर गोलियाँ बरसा रहे थे।
जनवरी 1900 में डोमबाड़ी पहाड़ी पर एक और बड़ा संघर्ष हुआ, जहाँ बिरसा अपनी जनसभा को संबोधित कर रहे थे। इस हमले में अंग्रेजों ने कई निर्दोष महिलाओं और बच्चों को मार डाला। लेकिन वामपंथी इतिहासकारों ने इस नरसंहार की कभी निंदा नहीं की। आज जो लोग गौरक्षा के नाम पर दूसरों को गुंडा कहते हैं, वे उस समय के इस नरसंहार पर चुप क्यों रहे? यह सवाल आज भी अनुत्तरित है।
जेल में प्रताड़ना और बलिदान: अमरता की कहानी
3 फरवरी 1900 को बिरसा मुंडा को चक्रधरपुर में गिरफ्तार कर लिया गया। इस गिरफ्तारी में भी किसी गद्दार का हाथ था, जिसे वामपंथी इतिहासकारों ने छुपा लिया। जेल में बिरसा को अमानवीय यातनाएँ दी गईं। उन्हें शारीरिक और मानसिक रूप से तोड़ने की कोशिश की गई, लेकिन वे अडिग रहे। जेल की सलाखें भी उनके हौसले को नहीं तोड़ पाईं। आखिरकार, 9 जून 1900 को रांची कारागार में बिरसा मुंडा ने अपनी अंतिम सांस ली और अमरता प्राप्त की।
वामपंथी इतिहासकारों की साजिश: बिरसा की गाथा को दबाने का पाप
बिरसा मुंडा का बलिदान स्वतंत्रता संग्राम की एक अमर गाथा है, लेकिन वामपंथी इतिहासकारों ने इसे जानबूझकर दबा दिया। उन्होंने चरखे को स्वतंत्रता का प्रतीक बनाकर बिरसा के तीरों को इतिहास से मिटाने की साजिश रची। अगर बिरसा मुंडा की वीरता और उनके हिंदू-आदिवासी शौर्य की कहानी को सामने लाया जाता, तो इन नकली ठेकेदारों का झूठ उजागर हो जाता।
वामपंथी इतिहासकारों ने कभी नहीं चाहा कि लोग यह जानें कि बिरसा को उनके अनुयायी भगवान क्यों मानते थे। उन्होंने बिरसा की सनातनी पहचान और उनके धर्म परिवर्तन के खिलाफ संघर्ष को भी दबा दिया। यह एक अक्षम्य पाप है, जिसके लिए इन चाटुकार इतिहासकारों को कभी माफ नहीं किया जा सकता।
बिरसा मुंडा: हिंदू-आदिवासी एकता की मिसाल
बिरसा मुंडा ने न केवल अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी, बल्कि हिंदू-आदिवासी एकता की भी मिसाल कायम की। उन्होंने अपने अनुयायियों को सनातन धर्म की रक्षा के लिए प्रेरित किया और धर्म परिवर्तन के खिलाफ जागरूकता फैलाई। उनकी यह लड़ाई आज भी प्रासंगिक है, जब हिंदू और आदिवासी समाज को धर्म परिवर्तन और सांस्कृतिक हमलों का सामना करना पड़ रहा है। बिरसा मुंडा की गाथा हमें सिखाती है कि एकता और शौर्य के बल पर किसी भी शत्रु को हराया जा सकता है।
बलिदान दिवस पर संकल्प: बिरसा मुंडा की गाथा को अमर रखें
आज, 9 जून 2025 को, बिरसा मुंडा के बलिदान दिवस पर हमें यह संकल्प लेना होगा कि उनकी गौरव गाथा को हर हिंदू और आदिवासी तक पहुँचाया जाए। हमें वामपंथी इतिहासकारों की साजिश को उजागर करना होगा और सच्चाई को सामने लाना होगा। बिरसा मुंडा की वीरता को स्कूलों के पाठ्यक्रम में शामिल करना होगा, ताकि नई पीढ़ी उनके बलिदान से प्रेरणा ले सके। सरकार से माँग है कि बिरसा मुंडा के नाम पर राष्ट्रीय स्तर पर स्मारक बनाए जाएँ और उनके बलिदान दिवस को राष्ट्रीय पर्व के रूप में मान्यता दी जाए।
धरती आबा बिरसा मुंडा की अमर गाथा हमें सिखाती है कि सच्चाई और शौर्य को कोई भी साजिश दबा नहीं सकती। आइए, उनके बलिदान को नमन करें और सनातन धर्म और हिंदू-आदिवासी गौरव की रक्षा का संकल्प लें।