11 जून: अमर क्रांतिवीर पंडित रामप्रसाद बिस्मिल की जयंती — चरखा चलता रहा, लहू बहता रहा

11 जून का दिन भारत की सनातनी धरती के लिए एक पावन तीर्थ है। यह वह शुभ दिन है, जब माँ भारती के आँचल में एक ऐसे वीर सपूत ने जन्म लिया, जिसने अपने लहू से स्वतंत्रता की अमर गाथा लिखी। हम बात कर रहे हैं अमर क्रांतिवीर पंडित रामप्रसाद बिस्मिल की, जिनका जन्म 11 जून 1897 को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर में हुआ। दोपहर 11 बजकर 11 मिनट पर, ज्येष्ठ मास की निर्जला एकादशी के पवित्र दिन, इस पंडित-योद्धा का अवतरण हुआ, मानो सनातन धर्म और स्वाधीनता के लिए परमात्मा ने स्वयं एक तपस्वी भेजा हो। बिस्मिल जी का जीवन वह दीपक है, जो आज भी हर सनातनी हृदय में देशभक्ति और हिंदू गौरव की ज्योति प्रज्वलित करता है।

चरखा और लहू का अनघट संनाद

“चरखा चलता रहा, लहू बहता रहा।” यह पंक्ति बिस्मिल जी के बलिदान की उस सनातनी सच्चाई को उजागर करती है, जिसे इतिहास के पन्नों में अक्सर कमतर आँका गया। जब कुछ लोग चरखे की अहिंसा का राग अलाप रहे थे, तब बिस्मिल जैसे क्रांतिवीर अपनी जवानी, सपने, और जीवन की हर धड़कन स्वतंत्रता की बलिवेदी पर न्योछावर कर रहे थे। उनका जीवन इस सनातनी सिद्धांत का प्रतीक है कि स्वराज केवल शांति से नहीं, बल्कि लहू की कीमत पर भी जीता जाता है।

पंडित रामप्रसाद बिस्मिल न केवल एक क्रांतिकारी थे, बल्कि एक विद्वान शायर, संगठनकर्ता, और सनातनी हिंदू योद्धा भी थे। उनकी शायरी—“सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाजू-ए-क़ातिल में है”—हर हिंदुस्तानी के रग-रग में सनातनी साहस की आग भर देती है। यह पंक्तियाँ केवल कविता नहीं, बल्कि उस अटल संकल्प का गान हैं, जिसने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दी।

पंडितत्व और क्रांति का संगम

बिस्मिल जी का “पंडित” उपाधि उनके ब्राह्मण कुल और विद्वता का प्रतीक है। सनातनी परंपरा में जन्मे, उन्होंने वेद-शास्त्रों का अध्ययन किया और संस्कृत, हिंदी, और उर्दू में महारत हासिल की। उनकी शायरी में सनातन धर्म की गहराई और भारत माता के प्रति अटूट भक्ति झलकती थी। “मैं हिंदू हूँ” कहने में उन्हें गर्व था, और उनकी क्रांति में सनातनी तपस्या और बलिदान की भावना थी।

19 वर्ष की आयु में उन्होंने क्रांति का कांटों भरा पथ चुना। हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए) के संस्थापक के रूप में, उन्होंने युवाओं को संगठित किया और स्वतंत्रता के लिए सशस्त्र संघर्ष का आह्वान किया। उनकी लेखनी—चाहे वह “मैनपुरी षड्यंत्र” का पर्चा हो या “क्रांतिकारी” पत्रिका—सनातनी युवाओं में स्वराज की चिंगारी बन गई।

काकोरी की अमर गाथा

बिस्मिल जी का नाम काकोरी कांड के बिना अधूरा है। 9 अगस्त 1925 को, लखनऊ के पास काकोरी में, बिस्मिल जी ने अपने वीर साथियों—पंडित अशफ़क़उल्ला खाँ, राजेंद्र लाहिड़ी, और चंद्रशेखर आज़ाद—के साथ ब्रिटिश खजाने की ट्रेन लूटी। यह केवल धन की लूट नहीं थी, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम के लिए हथियार और संसाधन जुटाने का साहसिक कदम था। काकोरी कांड ने फिरंगियों को सनातनी साहस का वह पराक्रम दिखाया, जिससे उनकी रातों की नींद उड़ गई।

लेकिन यह साहस बिस्मिल जी के लिए बलिदान का कारण बना। ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया, और कठोर मुकदमे के बाद उन्हें दोषी ठहराया गया। 19 दिसंबर 1927 को, पौष मास की स्फुरदा एकादशी के दिन, गोरखपुर जेल में उन्हें फांसी दे दी गई। उस समय उनकी उम्र मात्र 30 वर्ष थी, लेकिन उनके 11 वर्षों का क्रांतिकारी जीवन भारत के इतिहास में अमर हो गया।

फांसी पर अटल साहस

फांसी की सूचना ने बिस्मिल जी को विचलित नहीं किया। उन्होंने अपने अंतिम दिन अपनी आत्मकथा—“निज जीवन की एक छटा”—को पूरा करने में लगाए। उनकी लेखनी में सनातनी तपस्या और क्रांति की ज्वाला थी। उन्होंने लिखा—“क्या हि लज्जत है कि रग-ए-रग से ये आती है सदा, दम न ले तलवार जब तक जान ‘बस्मिल’ में रहे।” यह पंक्तियाँ उनके उस स्वप्न को दर्शाती हैं, जिसमें वे चाहते थे कि कोई उन्हें रिवॉल्वर भेज दे, ताकि वे अंतिम साँस तक लड़ें।

जेल के कर्मचारी उनकी पवित्रता और साहस से अभिभूत थे। उनकी आत्मकथा और कविताएँ जेल से बाहर भेजी गईं, शायद उन कर्मचारियों की सहायता से। बिस्मिल जी का जीवन इतना प्रेरक था कि उनकी मृत्यु भी सनातनी क्रांति का प्रबल संदेश बन गई।

11 का दैविक संयोग

बिस्मिल जी के जीवन में 11 अंक एक दैविक संयोग की तरह बार-बार उभरता है। उनका जन्म 11 जून 1897 को 11:20 पर हुआ, जो निर्जला एकादशी थी। उनकी फांसी भी पौष की स्फुरदा एकादशी को हुई। उन्होंने 19 वर्ष की उम्र से क्रांति शुरू की और 11 वर्षों तक स्वतंत्रता के लिए समर्पित रहे। यह संयोग सनातनी विश्वास को दर्शाता है कि उनका जीवन परमात्मा की योजना था, जो भारत माता और सनातन धर्म के लिए समर्पित था।

सनातनी गौरव का प्रतीक

पंडित रामप्रसाद बिस्मिल सनातन धर्म के सच्चे रक्षक थे। उनके क्रांतिकारी संग्राम में हिंदू धर्म की तपस्या, साहस, और बलिदान की भावना थी। उनकी शायरी में भारत माता की पुकार और सनातनी गौरव गूँजता था। काकोरी कांड में उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता का संदेश दिया, लेकिन उनका हृदय सनातनी मूल्यों से ओतप्रोत था।

आज, जब हम उनकी जन्मजयंती मना रहे हैं, यह स्मरण करने का समय है कि स्वतंत्रता का सूरज केवल चरखे से नहीं, बल्कि बिस्मिल जैसे वीरों के लहू से उगा। दक्षिणपंथी सनातनी के लिए, बिस्मिल जी का जीवन एक प्रेरणा है—यह सिखाता है कि सनातन धर्म और राष्ट्र के लिए बलिदान ही सच्चा मार्ग है।

पंडित रामप्रसाद बिस्मिल का जीवन एक सनातनी क्रांतिकारी की अमर गाथा है। उनकी शायरी, उनका साहस, और उनका बलिदान आज भी हमें सिखाता है कि स्वतंत्रता की कीमत चुकानी पड़ती है।। और वह कीमत है—लहू। इस पावन दिन, आइए, हम उनके सनातनी गौरव को नमन करें और संकल्प लें कि उनकी क्रांति की ज्वाला को सदा जीवित रखेंगे।

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