14 जून का दिन भारत के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है। यह वह पावन तिथि है, जब एक सिख योद्धा, भाई मणी सिंह जी, ने अपने अंग-अंग को मुगल तलवारों की भेंट चढ़ाकर भी धर्म की रक्षा की और हिंदू-सिख गौरव का परचम लहराया। 14 जून 1738 को लाहौर में उनकी शहादत ने सिख धर्म और खालसा पंथ की अटलता को अमर कर दिया। भाई मणी सिंह जी का बलिदान न केवल एक शौर्य गाथा है, बल्कि धर्मांतरण के खिलाफ अडिग संकल्प का प्रतीक भी है, जो आज भी हर देशभक्त के हृदय में गर्व की ज्वाला प्रज्वलित करता है।
प्रारंभिक जीवन और गुरु गोबिंद सिंह जी से नाता
भाई मणी सिंह जी का जन्म 7 अप्रैल 1644 को अलीपुर (वर्तमान में पाकिस्तान के मुजफ्फरगढ़ जिले में) एक राजपूत परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम मणि राम था। उनके पिता माई दास जी और माता मधरी बाई ने उन्हें सिख धर्म और वीरता के संस्कार दिए। भाई मणी सिंह जी का जीवन गुरु गोबिंद सिंह जी के साथ गहरे जुड़ाव का साक्षी है। वे गुरु जी के बचपन के साथी थे और उनके प्रिय शिष्यों में से एक बने। 1699 में, जब गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की, भाई मणी सिंह जी ने अमृत छककर सिख धर्म की प्रतिज्ञा ली। इसके बाद गुरु जी ने उन्हें अमृतसर भेजकर हरमंदिर साहब की व्यवस्था सौंप दी, जो उनकी निष्ठा और नेतृत्व का प्रमाण था।
परिवार की बलिदानी परंपरा
भाई मणी सिंह जी का परिवार सिख धर्म और गुरु घर के प्रति अटूट समर्पण का प्रतीक है। उनके 12 भाइयों में से सभी 12 ने बलिदान दिया। उनके 9 पुत्रों में से प्रत्येक ने धर्म और देश के लिए प्राण न्योछावर किए। इनमें भाई बचित्र सिंह जी, जिन्होंने नागणी बरछे से हाथी का मुकाबला किया, और भाई उदय सिंह जी, जिन्होंने केसरी चंद का सिर काटकर लाया, विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उनके 14 पौत्र, 13 भतीजे, और 9 चाचा भी शहीद हुए। उनके दादा जी ने छठे गुरु की पुत्री बीबी वीरो जी की शादी के दौरान शाही काजी का मुकाबला कर उसे मार गिराया था। दादा के 5 भाइयों ने भी बलिदान दिया। यह बलिदानी परंपरा भाई मणी सिंह जी के जीवन को और भी प्रेरक बनाती है।
मुगल अत्याचार और धर्मांतरण का दबाव
18वीं शताब्दी में मुगल शासकों ने सिख समुदाय पर अत्याचारों की सारी हदें पार कर दी थीं। भाई मणी सिंह जी, जो हरमंदिर साहब के प्रबंधक थे, मुगल शासक जाकिर खान के निशाने पर आए। उन्हें इस्लाम स्वीकार करने का दबाव डाला गया। मुगलों ने सोचा कि एक प्रभावशाली सिख नेता का धर्मांतरण सिख समुदाय को कमजोर कर देगा। लेकिन भाई मणी सिंह जी का संकल्प अटल था। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि वे अपने धर्म को कभी नहीं छोड़ेंगे। इस इनकार ने मुगल शासक को क्रोधित कर दिया, और उन्होंने भाई मणी सिंह जी को क्रूर यातनाएँ देने का आदेश दिया।
क्रूर शहादत और अटल धर्मनिष्ठा
14 जून 1738 को लाहौर में भाई मणी सिंह जी को अमानवीय यातनाओं का सामना करना पड़ा। मुगल जल्लादों ने उनके शरीर के प्रत्येक जोड़ को तलवार से काटा। गरम चिमटों से उनका मांस नोचा गया, जिससे उनके शरीर में केवल हड्डियाँ शेष रह गईं। लेकिन इन यातनाओं के बीच भी भाई मणी सिंह जी का हौसला नहीं डगमगाया। उन्होंने न तो दर्द की शिकायत की और न ही धर्म छोड़ने की बात मानी। उनकी यह अटलता धर्म की रक्षा में एक अमर शौर्य गाथा बन गई। “अंग-अंग मुगल तलवार से कटता रहा, पर वह मुसलमान न बने”—यह वाक्य उनकी शहादत की महिमा को सदा के लिए अमर करता है।
हिंदू-सिख गौरव का परचम
भाई मणी सिंह जी की शहादत केवल सिख धर्म की रक्षा तक सीमित नहीं थी। यह हिंदू-सिख एकता और भारतीय संस्कृति के गौरव की प्रतीक थी। सिख धर्म, जो हिंदू धर्म का अभिन्न अंग है, ने मुगल अत्याचारों के खिलाफ हमेशा ढाल का काम किया। भाई मणी सिंह जी का बलिदान उस दौर की याद दिलाता है, जब धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए सिख योद्धाओं ने अपने प्राण न्योछावर किए। उनकी शहादत ने मुगलों को यह संदेश दिया कि तलवारें शरीर को काट सकती हैं, लेकिन धर्म और संकल्प को नहीं झुका सकतीं।
इतिहास का विकृतिकरण और आज का संदेश
आज भी भाई मणी सिंह जी जैसे बलिदानियों की गाथाएँ इतिहास के पन्नों में कम ही उजागर होती हैं। कुछ इतिहासकारों ने, जो सत्ता के चाटुकार थे, ऐसी शौर्य गाथाओं को दबाने का प्रयास किया। यदि इन बलिदानियों की कहानियाँ सही मायनों में जन-जन तक पहुँचतीं, तो शायद आज समाज में धर्मांतरण और लव जिहाद जैसे मुद्दे इतने प्रबल न होते। भाई मणी सिंह जी का बलिदान हमें सिखाता है कि धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए हर कीमत चुकाने को तैयार रहना चाहिए। उनका जीवन और शहादत दक्षिणपंथी संगठनों के लिए एक प्रेरणा है, जो हिंदू-सिख एकता और भारतीय गौरव को बढ़ावा देते हैं।
खालसा पंथ की प्रेरणा
भाई मणी सिंह जी का जीवन खालसा पंथ के मूल्यों—साहस, बलिदान, और धर्मनिष्ठा—का प्रतीक है। गुरु गोबिंद सिंह जी के शिष्य के रूप में, उन्होंने खालसा की स्थापना के बाद इसके प्रसार और संगठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी शहादत ने खालसा पंथ को और मजबूत किया। आज, जब हम 14 जून को उनकी शहादत को याद करते हैं, यह हमें खालसा के उन आदर्शों को अपनाने की प्रेरणा देता है, जो धर्म और देश की रक्षा के लिए समर्पित हैं।
भाई मणी सिंह जी का बलिदान एक ऐसी ज्योति है, जो सदियों से हिंदू-सिख गौरव को प्रज्वलित करती आ रही है। 14 जून 1738 को, जब मुगल तलवारों ने उनके अंग-अंग को काटा, तब भी उनका धर्म अटल रहा। उनकी शहादत धर्मांतरण के खिलाफ एक अमर संदेश है, जो आज के समाज को सिखाता है कि अपनी संस्कृति और धर्म की रक्षा के लिए साहस और संकल्प की आवश्यकता है। इस बलिदान दिवस पर, आइए, हम भाई मणी सिंह जी के शौर्य को नमन करें और उनके दिखाए मार्ग पर चलने का संकल्प लें। उनकी अमर गाथा सदा हमारे हृदय में जीवित रहेगी।