उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने संविधान की प्रस्तावना में आपातकाल (1975-77) के दौरान जोड़े गए शब्दों—‘समाजवादी’, ‘धर्मनिरपेक्ष’, और ‘अखंडता’—को ‘नासूर’ करार देते हुए तीखी आलोचना की। उन्होंने कहा कि प्रस्तावना संविधान की आत्मा है, जो अपरिवर्तनीय होनी चाहिए, लेकिन 1976 के 42वें संशोधन द्वारा इन शब्दों को जोड़कर संविधान निर्माताओं की मंशा के साथ ‘विश्वासघात’ किया गया। धनखड़ ने इसे आपातकाल के ‘अंधकारमय दौर’ में संविधान की मूल भावना पर हमला बताया, जो सनातन सभ्यता और हजारों वर्षों की सांस्कृतिक विरासत का अपमान है।
उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में कहा कि संसद सर्वोच्च है और संविधान को अंतिम रूप देने का अधिकार केवल निर्वाचित प्रतिनिधियों को है। धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट के परस्पर विरोधी फैसलों—गोलकनाथ (1967), जिसमें प्रस्तावना को संविधान का हिस्सा नहीं माना गया, और केशवानंद भारती (1973), जिसमें इसे संविधान का अभिन्न अंग बताया गया—पर सवाल उठाए। उन्होंने केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट की 13 जजों की पीठ द्वारा स्थापित ‘मूल संरचना सिद्धांत’ का उल्लेख किया, जिसमें धर्मनिरपेक्षता को संविधान का आधार माना गया।
धनखड़ ने आपातकाल को लोकतंत्र का ‘काला दिवस’ बताते हुए कहा कि इस दौरान मौलिक अधिकार निलंबित किए गए, न्यायपालिका पंगु हो गई, और प्रस्तावना में बदलाव कर संविधान की आत्मा को चोट पहुंचाई गई। उन्होंने डॉ. बी.आर. आंबेडकर का हवाला देते हुए कहा कि ये शब्द मूल संविधान का हिस्सा नहीं थे और इन्हें जोड़ना राजनीतिक अवसरवाद था। यह बयान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के उस सुझाव के बाद आया, जिसमें इन शब्दों की समीक्षा की मांग की गई थी, जिसे विपक्ष ने संविधान पर हमला करार दिया।