1789 में जब टीपू सुल्तान की जिहादी आंधी ने दक्षिण भारत को रौंदने की कोशिश की, तब त्रावणकोर के हिंदू योद्धाओं ने ऐसी शौर्य गाथा लिखी कि इतिहास बदल गया। नेदुमकोट्टा की प्राचीरों पर खड़े इन वीरों ने टीपू की विशाल सेना को ललकारा। उनकी तलवारों ने सनातन धर्म की शान को बचाया और हिंदू स्वाभिमान को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। यह कहानी त्रावणकोर की उस अमर विजय की है, जिसने टीपू सुल्तान के मंसूबों को धूल में मिला दिया।
टीपू का आक्रमण: सनातन धर्म पर संकट
18वीं सदी के अंत में टीपू सुल्तान, मैसूर का शासक, अपनी सैन्य शक्ति के दम पर दक्षिण भारत में वर्चस्व स्थापित करना चाहता था। उसकी सेना ने कई क्षेत्रों को जीता, पर त्रावणकोर उसके निशाने पर था। त्रावणकोर, एक समृद्ध हिंदू राज्य, सनातन संस्कृति का गढ़ था। टीपू ने 1789 में त्रावणकोर पर हमला बोला, जिसका मकसद न केवल ज़मीन हड़पना था, बल्कि हिंदू मंदिरों और संस्कृति को कुचलना भी था। उसकी सेना नेदुमकोट्टा की सीमा तक पहुंची, जहां त्रावणकोर के राजा धर्मराजा ने अपने योद्धाओं को एकजुट किया।
टीपू की सेना संख्या और हथियारों में भारी थी। उसने त्रावणकोर के किलों को तोड़ने और हिंदू जनता को दबाने की ठानी। लेकिन त्रावणकोर के हिंदू योद्धा तैयार थे। उनके दिल में सनातन धर्म की रक्षा का संकल्प था। धर्मराजा के नेतृत्व में त्रावणकोर ने नेदुमकोट्टा की रक्षा के लिए अभेद्य रणनीति बनाई। यह युद्ध केवल क्षेत्र का नहीं, बल्कि हिंदू स्वाभिमान का था।
नेदुमकोट्टा का युद्ध: हिंदू शौर्य की जीत
1789-1790 में नेदुमकोट्टा का युद्ध त्रावणकोर की वीरता का प्रतीक बन गया। टीपू की सेना ने नेदुमकोट्टा की प्राचीरों पर हमला किया, लेकिन त्रावणकोर के योद्धाओं ने उनका डटकर मुकाबला किया। धर्मराजा ने अपनी सेना को रणनीतिक रूप से तैनात किया। नेदुमकोट्टा की मजबूत दीवारें और त्रावणकोर की छापामार रणनीति ने टीपू की सेना को हैरान कर दिया। हिंदू योद्धाओं ने अपनी तलवारों और भालों से मैसूर की सेना को पीछे धकेला।
एक निर्णायक मोड़ तब आया जब त्रावणकोर के सैनिकों ने टीपू की सेना की आपूर्ति लाइनों को काट दिया। बारिश और दलदली ज़मीन ने टीपू की सेना को और कमज़ोर किया। त्रावणकोर के योद्धाओं ने मौके का फायदा उठाया। उन्होंने रात के हमलों और तेज़ युद्ध रणनीतियों से टीपू की सेना को तितर-बितर कर दिया। 1790 में टीपू को पीछे हटना पड़ा। नेदुमकोट्टा की प्राचीरें अडिग रहीं, और त्रावणकोर की जीत ने हिंदू गौरव को नई मिसाल दी।
सोशल मीडिया पर लोग लिखते हैं, ‘नेदुमकोट्टा में त्रावणकोर ने टीपू को हराकर सनातन धर्म की रक्षा की।’ इस युद्ध ने न केवल त्रावणकोर को बचाया, बल्कि दक्षिण भारत में हिंदू शक्ति को मज़बूत किया। धर्मराजा और उनके योद्धाओं की वीरता ने दिखाया कि सनातन धर्म का हर सिपाही अपने देश और संस्कृति के लिए अडिग है।
त्रावणकोर की रणनीति और एकता
त्रावणकोर की जीत केवल सैन्य शक्ति का परिणाम नहीं थी। यह एकता और रणनीति की जीत थी। धर्मराजा ने मार्तंड वर्मा द्वारा स्थापित सैन्य ढांचे का उपयोग किया। त्रावणकोर की सेना में नायर योद्धा अपनी तलवारबाज़ी और साहस के लिए प्रसिद्ध थे। उन्होंने स्थानीय भूगोल का लाभ उठाया। नदियां, जंगल और किलों ने उनकी रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
इस युद्ध में त्रावणकोर की जनता ने भी साथ दिया। हिंदू मंदिरों और संस्कृति की रक्षा के लिए हर व्यक्ति योद्धा बन गया। यह एकता टीपू की सेना के लिए अप्रत्याशित थी। त्रावणकोर ने दिखाया कि जब हिंदू समाज एकजुट होता है, तो कोई भी आक्रांता उसे हरा नहीं सकता।
हिंदू योद्धाओं की अमर गाथा
त्रावणकोर की इस विजय ने सनातन धर्म की शान को अमर कर दिया। नेदुमकोट्टा का युद्ध हिंदू स्वाभिमान का प्रतीक बन गया। इसने दक्षिण भारत में सनातन संस्कृति की रक्षा की और टीपू सुल्तान के विस्तारवादी मंसूबों को रोका। त्रावणकोर के योद्धाओं ने न केवल अपनी धरती बचाई, बल्कि हिंदू समाज में स्वतंत्रता की भावना को जागृत किया।
आज जब हम त्रावणकोर के किलों और मंदिरों को देखते हैं, तो उन वीरों की तलवारों की गूंज सुनाई देती है। उनकी वीरता हमें सिखाती है कि सच्चा योद्धा वह है जो अपने धर्म और देश के लिए सब कुछ कुर्बान कर दे। त्रावणकोर की यह गाथा हर भारतीय को प्रेरित करती है। यह संदेश देती है कि हिंदू स्वाभिमान और सनातन गौरव को कोई आंधी मिटा नहीं सकती।