उत्तराखंड का वो वीर योद्धा जिसने अकेले 300 चीनी सैनिकों को कर दिया ढेर, शहीद के बाद भी मिला प्रमोशन… जानें जसवंत सिंह रावत की कहानी

भारत की धरती वीरों की जननी है और इन वीरों में राइफलमैन जसवंत सिंह रावत का नाम सुनहरे अक्षरों में लिखा है। उत्तराखंड के इस सपूत ने 1962 के भारत-चीन युद्ध में ऐसा साहस दिखाया, जो इतिहास में अमर हो गया।

अकेले 300 चीनी सैनिकों को ढेर करने और गोलियाँ लगने के बावजूद लड़ते रहने की उनकी कहानी हिंदू शौर्य और देशभक्ति का प्रतीक है। शहीद होने के बाद भी उन्हें प्रमोशन मिला, जो उनकी वीरता का सम्मान है। यह लेख जसवंत की गाथा को सलाम करता है और देश के हर नागरिक को उनके बलिदान से प्रेरणा लेने का आह्वान करता है।

जसवंत का प्रारंभिक जीवन: पहाड़ों का वीर

जसवंत सिंह रावत का जन्म 19 अगस्त 1941 को उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल में हुआ। एक साधारण पहाड़ी परिवार में पले-बढ़े इस जवान ने 1960 में मात्र 19 साल की उम्र में 4 गढ़वाल राइफल्स में भर्ती लिया। पहाड़ों की कठिनाइयों में पले जसवंत का मन हमेशा देश सेवा में लगा था। उनके परिवार में सैन्य परंपरा थी और वे अपने पूर्वजों की तरह देश की रक्षा का संकल्प ले चुके थे। जसवंत की साहस ने उन्हें एक असाधारण सैनिक बनाया।

1962 में जब चीन ने भारत पर हमला बोला, जसवंत अपनी बटालियन के साथ अरुणाचल प्रदेश के तवांग क्षेत्र में तैनात थे। नूरानांग की पहाड़ियों पर उनका मुकाबला चीनी सैनिकों से हुआ, जहाँ उन्होंने अपने प्राणों की परवाह न करते हुए देश की रक्षा की।

युद्ध का मैदान: 72 घंटों का अद्भुत संघर्ष

17 नवंबर 1962 को भारत-चीन युद्ध के अंतिम चरण में चीनी सेना ने नूरानांग पर हमला किया। जसवंत और उनकी टुकड़ी—लांस नायक त्रिलोक सिंह नेगी और राइफलमैन गोपाल सिंह गुंसाई—को दुश्मन का सामना करना पड़ा। चीनी सैनिकों की संख्या 300 से अधिक थी, जबकि भारतीयों के पास सीमित गोला-बारूद था। शुरू में जसवंत और उनके साथियों ने दो चीनी दस्तों को खदेड़ दिया, लेकिन दुश्मन ने मध्यम मशीन गनों का इस्तेमाल शुरू कर दिया। इस हमले में त्रिलोक और गोपाल शहीद हो गए और जसवंत गंभीर रूप से घायल हो गए।

गोलियाँ उनकी बाईं भुजा और पेट में लगीं और उनकी आँतें बाहर निकल आईं। फिर भी, जसवंत ने हार नहीं मानी। उन्होंने अपने हथियार को पैर के अंगूठे से संभाला और दुश्मन पर गोलियाँ चलाते रहे। जसवंत ने दो स्थानीय मोनपा लड़कियों सेला और नूरा से मदद माँगी। इन लड़कियों ने बंकर से बंकर तक कूदकर चीनी सैनिकों को भ्रमित किया, जबकि जसवंत ने अकेले मोर्चा संभाला।

72 घंटों तक यह युद्ध चला। चीनी सैनिक समझ नहीं पा रहे थे कि इतने कम भारतीय सैनिकों से इतना कड़ा प्रतिरोध कैसे हो रहा है। जसवंत की वीरता से दुश्मन को 300 सैनिकों का नुकसान हुआ और भारतीय सेना को अपनी रणनीति मजबूत करने का समय मिला। अंत में जब चीनी सैनिकों ने उनकी स्थिति का पता लगा लिया, जसवंत ने अपनी आखिरी गोली खुद पर चला ली, ताकि दुश्मन के हाथों कैद न हों। यह बलिदान हिंदू वीरता का चरम था।

शहीद के बाद सम्मान: प्रमोशन और स्मृति

जसवंत सिंह रावत को मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया, जो भारत का दूसरा सबसे बड़ा वीरता पुरस्कार है। उनकी वीरता के लिए उन्हें राइफलमैन से नायब सूबेदार के पद पर प्रमोशन दिया गया, जो शहीद के बाद का दुर्लभ सम्मान है। आज भी रक्षा मंत्रालय उनके नाम पर पेंशन का चेक भेजता है, जो उनकी अमरता का प्रतीक है।

नूरानांग में उनकी याद में एक स्मृति स्थल बनाया गया है, जहाँ उनकी मूर्ति और एक संग्रहालय है। 4 गढ़वाल राइफल्स को नूरानांग का युद्ध सम्मान भी मिला जो 1962 के युद्ध में एकमात्र ऐसा सम्मान है। सेना के जवान मानते हैं कि जसवंत की आत्मा आज भी नूरानांग में उनकी ड्यूटी करती है। अगर कोई जवान ड्यूटी पर सो जाता है, तो वे कहते हैं कि जसवंत उन्हें थप्पड़ मारकर जगाते हैं। यह विश्वास हिंदू संस्कृति की गहराई को दर्शाता है।

प्रेरणा और देशभक्ति

आज भी भारतीय सेना के जवान जसवंत से प्रेरणा लेते हैं। सीमा पर डटे सैनिक, चाहे वह गलवान घाटी हो या कश्मीर, जसवंत की तरह ही अपने कर्तव्य निभाते हैं। 2020 में गलवान में 20 जवानों की शहादत ने देश को झकझोर दिया, लेकिन उनकी वीरता जसवंत की परंपरा को आगे बढ़ाती है। हिंदू गौरव आज भी जीवित है, और यह जसवंत जैसे वीरों की बदौलत है।

हर भारतीय को जसवंत की कहानी से सीख लेनी चाहिए। यह समय है कि हम अपने वीरों को याद करें, उनकी कुर्बानी को सलाम करें, और देश के लिए एकजुट हों। जसवंत ने साबित किया कि भारतीय सैनिक अपनी जान की परवाह किए बिना मातृभूमि की रक्षा करते हैं।

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