1966 का गौ आंदोलन: जब करपात्री महाराज के नेतृत्व में साधुओं ने संसद को घेरा और इंदिरा सरकार की नींव हिला दी

हिंदू संस्कृति में गाय को “गौ माता” के रूप में पूजा जाता है, जो 33 करोड़ देवी-देवताओं का वास मानी जाती है। प्राचीन काल से गौ रक्षा हिंदुत्व का अभिन्न अंग रही है, जैसा कि छत्रपति शिवाजी महाराज और उनके पुत्र संभाजी राजे ने मुगल शासकों के खिलाफ गाय की रक्षा के लिए लड़ा था।

भारत के संविधान की अनुच्छेद 48 में भी गाय के संरक्षण का उल्लेख है, जो राज्य को इस दिशा में कदम उठाने का निर्देश देता है। लेकिन स्वतंत्र भारत में यह सपना अधूरा रहा, और 1966 में एक ऐतिहासिक आंदोलन ने इस मुद्दे को फिर से जीवंत कर दिया। यह वह समय था जब करपात्री महाराज के नेतृत्व में साधुओं ने संसद को घेरा और इंदिरा गांधी की नवगठित सरकार को चुनौती दी, जिसने हिंदू शौर्य की एक नई कहानी लिखी।

गौ हत्या का दंश और इंदिरा का वादा

1966 में भारत राजनीतिक उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा था। लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद 13 जनवरी 1966 को इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री पद संभाला था। उस समय देश में गौ हत्या एक संवेदनशील मुद्दा था, क्योंकि हर दिन हजारों गायों का वध हो रहा था, जो हिंदू समाज के लिए असहनीय था। करपात्री महाराज, जो ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती के शिष्य थे, ने गौ रक्षा को अपने जीवन का मिशन बनाया। उनके नेतृत्व में अखिल भारतीय रामराज्य परिषद और अन्य हिंदू संगठनों ने गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध की मांग उठाई।

कहा जाता है कि इंदिरा गांधी, जो चुनाव जीतने के लिए साधुओं का आशीर्वाद लेना चाहती थीं, ने करपात्री महाराज से वादा किया कि अगर वे सत्ता में आईं तो गोहत्या पर रोक लगाएंगी। लेकिन सत्ता में आने के बाद इंदिरा ने इस वादे को पूरा करने में रुचि नहीं दिखाई। यह वादाखिलाफी हिंदू समाज में रोष पैदा करने लगी, और करपात्री महाराज का धैर्य जवाब दे गया। उन्होंने साधुओं और गौ भक्तों को एकजुट करने का फैसला किया, जिसने 1966 के गौ आंदोलन की नींव रखी।

आंदोलन का उदय: साधुओं का संसद कूच

7 नवंबर 1966 को, जो हिंदू पंचांग के अनुसार गोपाष्टमी का पवित्र दिन था, करपात्री महाराज ने लाखों साधुओं, संतों और गौ भक्तों के साथ दिल्ली में एक विशाल रैली का आयोजन किया। यह रैली चांदनी चौक के आर्य समाज मंदिर से शुरू होकर संसद भवन की ओर बढ़ी। साधुओं का मकसद स्पष्ट था—गोहत्या पर तत्काल प्रतिबंध के लिए कानून बनवाना। इस आंदोलन में शंकराचार्य निःसंगदेव तीर्थ, स्वामी हरिहरानंद, और महात्मा रामचंद्र वीर जैसे बड़े संत शामिल हुए, जिन्होंने उपवास तक शुरू कर दिया था।

रैली में एक लाख से अधिक लोग शामिल हुए, और माहौल उत्साहपूर्ण था। स्वामी करपात्री और अन्य नेताओं ने गाय के महत्व पर प्रकाश डाला। कुछ कट्टरपंथी नेताओं, जैसे जनसंघ के स्वामी रमेश्वरानंद, ने भीड़ को प्रेरित किया कि वे संसद में घुसकर सांसदों को बंधक बनाएं। इस जोश के जवाब में पुलिस ने आंसू गैस और गोलियां चलाईं, जिसने आंदोलन को खूनी संघर्ष में बदल दिया।

खूनी टकराव: साधुओं का बलिदान

पुलिस की गोलीबारी में कई साधुओं की जान चली गई। आधिकारिक रिकॉर्ड्स के अनुसार, 8 से 10 साधुओं की मृत्यु हुई, लेकिन आंदोलन में शामिल कुछ लोगों का दावा है कि संख्या इससे कहीं अधिक थी, शायद सैकड़ों। लाशों को जल्दी-जल्दी हटाकर अज्ञात स्थानों पर दफनाया गया, जो हिंदू समाज के लिए एक गहरा आघात था।

करपात्री महाराज ने साधुओं की लाशें उठाते हुए यह दृश्य देखा, जो उनके लिए असहनीय था। इस हिंसा ने हिंदू समाज में गहरा आक्रोश पैदा किया और इंदिरा गांधी की सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया। गृह मंत्री गुलजारीलाल नंदा ने इस असफलता की जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दे दिया, लेकिन इंदिरा गांधी ने उन्हें संसद में बरी कर दिया और खुद अस्थायी रूप से गृह मंत्रालय संभाला, इससे पहले कि यशवंतराव चव्हाण को नया गृह मंत्री बनाया गया।

इंदिरा सरकार पर प्रभाव: नींव हिलने की शुरुआत

यह घटना इंदिरा गांधी की नवगठित सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती थी। हालाँकि गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं लगा, लेकिन आंदोलन ने सरकार को मजबूर किया कि वह इस मुद्दे पर विचार करे। यशवंतराव चव्हाण ने उपवास कर रहे संतों से मुलाकात की और वादा किया कि अगले सत्र में “एंटी-स्लॉटर बिल” लाया जाएगा। लेकिन कांग्रेस सरकार ने इस वादे को भी पूरा नहीं किया, जो हिंदू संगठनों के लिए एक और धोखा था।

आंदोलन की ताकत ने इंदिरा की “कमजोर” छवि को चुनौती दी, जिसे उनके विरोधी पहले मानते थे। यह घटना उनके शासन की शुरुआत में एक सबक थी कि हिंदू भावनाओं को अनदेखा करना महंगा पड़ सकता है। राइट-विंग संगठनों, जैसे जनसंघ और आरएसएस, ने इस आंदोलन को हिंदू एकता का प्रतीक माना और इसे भविष्य के संघर्षों की प्रेरणा बनाया।

करपात्री महाराज का श्राप: हिंदू शक्ति का प्रतीक

इस घटना के बाद करपात्री महाराज ने इंदिरा गांधी पर श्राप दिया, जिसकी चर्चा आज भी होती है। कई लोग इस घटना को याद करते हैं और करपात्री महाराज के श्राप को सच मानते हैं, जिसके बाद इंदिरा गांधी की 31 अक्टूबर 1984 को बॉडीगार्डों द्वारा हत्या और संजय गांधी की 1980 में विमान दुर्घटना हुई। यह हिंदू शक्ति की दिव्य इच्छा का प्रतीक है, जो सनातन गौरव में गहरी जड़ें जमाए हुए है।

हिंदू शौर्य की अमर गाथा

1966 का गौ आंदोलन हिंदू समाज के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ था। करपात्री महाराज के नेतृत्व में साधुओं ने न केवल संसद को घेरा, बल्कि इंदिरा सरकार की नींव हिलाकर यह संदेश दिया कि गौ रक्षा के मुद्दे पर समझौता नहीं होगा। इस आंदोलन में हुए बलिदानों ने हिंदू शौर्य और सनातन गौरव को नई ऊँचाइयों पर पहुँचाया।

यह कहानी हमें सिखाती है कि सत्य और धर्म के लिए लड़ाई कभी व्यर्थ नहीं जाती। 1966 का गौ आंदोलन एक ऐसी गाथा है, जो आने वाली पीढ़ियों को हिंदू एकता और शौर्य का पाठ पढ़ाएगी।

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