सम्राट ललितादित्य: जिसने तिब्बत से अफगान तक हिंदू साम्राज्य फैलाया, पर वामपंथी इतिहासकारों ने उनके शौर्य को दबा दिया

हिंदू इतिहास में कई वीर योद्धाओं ने अपनी वीरता से दुनिया को चकित किया, लेकिन उनके योगदान को जानबूझकर भुलाने की साजिश भी चली। सम्राट ललितादित्य मुक्तापीड ऐसे ही एक महान हिंदू शासक थे, जिन्होंने 8वीं सदी में कश्मीर से तिब्बत और अफगानिस्तान तक हिंदू साम्राज्य का विस्तार किया।

उनकी सेनाओं ने दूर-दूर तक विजय पताका फहराई, लेकिन वामपंथी इतिहासकारों ने उनके शौर्य को दबाने की कोशिश की। यह लेख उनके गौरवशाली इतिहास को सामने लाता है और उस साजिश का पर्दाफाश करता है, जो हिंदू अस्मिता को कमजोर करने की कोशिश करती रही।

शुरुआती जीवन: एक शासक का उदय

ललितादित्य मुक्तापीड का जन्म कर्कोट वंश में हुआ, जो कश्मीर की शाही परंपरा का हिस्सा था। उनका शासनकाल लगभग 724 से 760 ई. तक माना जाता है। बचपन से ही उनमें नेतृत्व की क्षमता थी, और वे अपने पिता के बाद राजगद्दी पर बैठे। कश्मीर की घाटियों से निकलकर उन्होंने अपने सपनों को विशाल बनाया। राजतरंगिणी, कश्मीर के प्राचीन ग्रंथ, में उनके शौर्य और दूरदर्शिता का वर्णन मिलता है। वे न केवल एक योद्धा थे, बल्कि एक कुशल प्रशासक भी, जिन्होंने अपनी प्रजा को समृद्धि दी।

उनका जीवन संघर्षों से भरा था, लेकिन उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति ने उन्हें कश्मीर से बाहर निकलने और विशाल साम्राज्य बनाने के लिए प्रेरित किया। यह वह समय था, जब हिंदू संस्कृति को बाहरी आक्रमणों का सामना करना पड़ रहा था, और ललितादित्य ने इसे बचाने का बीड़ा उठाया।

विजय अभियान: तिब्बत से अफगान तक

ललितादित्य की सबसे बड़ी उपलब्धि थी उनके सैन्य अभियान, जो कश्मीर से शुरू होकर तिब्बत, अफगानिस्तान, और मध्य एशिया तक फैले। उन्होंने तुर्क, तिब्बती, और अन्य शत्रु शक्तियों को परास्त किया। 736 ई. में उन्होंने तिब्बत पर विजय प्राप्त की, जहाँ उनकी सेना ने दुर्गम पहाड़ों को पार किया और स्थानीय राज्यों को अपने अधीन किया। इसके बाद उन्होंने अफगानिस्तान के क्षेत्रों में प्रवेश किया और वहाँ हिंदू सभ्यता का परचम लहराया।

उनकी सेना में कश्मीरी योद्धाओं के साथ-साथ स्थानीय जनजातियों का भी सहयोग था, जो उनकी रणनीति की सफलता का राज था। उन्होंने न केवल युद्ध जीते, बल्कि विजित क्षेत्रों में हिंदू मंदिरों और संस्कृति को बढ़ावा दिया। यह विस्तार हिंदू साम्राज्य की शक्ति और एकता का प्रतीक था, जो आज भी गर्व का स्रोत है।

कला और संस्कृति का संरक्षक

ललितादित्य केवल योद्धा ही नहीं, बल्कि कला और संस्कृति के संरक्षक भी थे। उनके शासन में मंदिरों और स्मारकों का निर्माण हुआ, जो हिंदू वास्तुकला की शान हैं। मार्तंड सूर्य मंदिर, जो आज भी खंडहर के रूप में खड़ा है, उनकी विरासत का एक उदाहरण है। उन्होंने विद्वानों और कारीगरों को संरक्षण दिया, जिससे कश्मीर साहित्य और कला का केंद्र बन गया।

उनकी यह उपलब्धि वामपंथी इतिहासकारों की नजर में कम महत्व की रही, क्योंकि वे हिंदू गौरव को उजागर करने वाली बातों से बचते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि ललितादित्य ने हिंदू संस्कृति को नई ऊँचाई दी, जो उनकी सैन्य विजय से भी बड़ी थी।

वामपंथी साजिश: शौर्य को दबाना

ललितादित्य की कहानी को इतिहास के पन्नों से मिटाने की कोशिश की गई है। वामपंथी इतिहासकारों ने उनके योगदान को कम करके आँका और उनकी विजयों को अतिशयोक्तिपूर्ण बताया। वे कश्मीर की इस वीर गाथा को हाशिए पर रखकर अपने एजेंडे को आगे बढ़ाना चाहते हैं, जो हिंदू अस्मिता को कमजोर करता है। राजतरंगिणी जैसे प्रामाणिक स्रोतों को भी उन्होंने नजरअंदाज किया या तोड़-मरोड़ कर पेश किया।

यह साजिश हिंदू समाज को अपनी जड़ों से दूर करने की एक सोची-समझी चाल है। लेकिन सत्य को दबाया नहीं जा सकता। ललितादित्य की वीरता और उनके हिंदू साम्राज्य का विस्तार आज भी लोक कथाओं और प्राचीन अभिलेखों में जीवित है, जो वामपंथी दावों को चुनौती देता है।

विरासत और प्रभाव

ललितादित्य की मृत्यु के बाद भी उनकी विरासत कश्मीर और हिंदू इतिहास में बनी रही। उनके वंशजों और उत्तराधिकारियों ने उनके सपनों को आगे बढ़ाया। चित्तौड़ और अन्य क्षेत्रों में उनकी विजय की कहानियाँ गाई जाती रहीं। उनकी नीतियों ने कश्मीर को एक सांस्कृतिक और सैन्य केंद्र बनाया, जो बाद के शासकों के लिए प्रेरणा बना।

हालांकि, वामपंथी इतिहासकारों ने उनकी इस विरासत को कम करके दिखाने की कोशिश की, लेकिन हिंदू समाज ने उनकी याद को संजोए रखा। आज उनकी कहानी हमें सिखाती है कि सच्चे वीरों को भुलाया नहीं जा सकता, चाहे कितनी ही साजिशें क्यों न हों।

हिंदू शौर्य का प्रतीक

सम्राट ललितादित्य मुक्तापीड ने तिब्बत से अफगान तक हिंदू साम्राज्य फैलाकर इतिहास रचा, लेकिन वामपंथी इतिहासकारों ने उनके शौर्य को दबाने की कोशिश की। उनकी वीरता और कला संरक्षण की कहानी हिंदू गौरव का अभेद किला है, जो आज भी हमारा सिर ऊँचा करती है। यह समय है कि हम उनकी याद को पुनर्जीवित करें और वामपंथी साजिश को नकारें। उनकी गाथा सनातन अस्मिता का एक जीवंत प्रतीक है, जो हमें प्रेरित करती रहेगी।

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