2 अगस्त 1954 का दिन भारतीय इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय है, जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के वीर स्वयंसेवकों ने पुर्तगाली शासन से गोवा, दादरा और नगर हवेली को मुक्त करने की नींव रखी। यह इतिहास सिर्फ वही नहीं है जो लिखा गया, बल्कि जो छिपाया गया, वह भी है।
समाज को सत्य से दूर रखने और कुछ गिने-चुने लोगों को महिमामंडित करने के लिए किए गए इस अक्षम्य पाप का दंड साजिशकर्ताओं को जरूर मिलना चाहिए। लेकिन अफसोस, नेहरू ने इस शौर्य और बलिदान को स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा मानने से इनकार कर दिया। यह लेख उस ऐतिहासिक दिन को याद करता है, जब संघ ने देशभक्ति की मिसाल पेश की और नेहरू की नज़रअंदाजी ने एक गहरी चोट पहुंचाई।
भारत की आजादी और पुर्तगाली गुलामी
भारत का स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त 1947 को मनाया गया, जब अंग्रेज भारत से चले गए और फ्रांस के कब्जे वाले पांडिचेरी, कारिकल, और चंद्रनगर भारत में शामिल हो गए। लेकिन गोवा, दादरा, नगर हवेली, दमन, और दीव जैसे भूभाग पुर्तगाली शासन के अधीन गुलाम बने रहे। नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने इनकी मुक्ति के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया, जिसने देशभक्तों के मन में आक्रोश पैदा किया। इस खामोशी ने संघ को आगे बढ़ने का बीड़ा उठाने के लिए प्रेरित किया, जो बाद में गोवा मुक्ति आंदोलन की नींव बना।
संघ का शौर्यपूर्ण अभियान
जनवरी 1954 में संघ के प्रचारक राजाभाऊ वाकणकर ने इस पवित्र मिशन की कमान संभाली। उन्होंने योग्य साथियों और साधनों को एकत्र किया, जिसमें विश्वनाथ नरवणे ने अपनी रणनीति से महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो 14 भाषाओं के जानकार थे और सिल्वासा में व्यूह रचना के लिए रुके।
हथियारों के लिए धन जुटाने का जिम्मा प्रसिद्ध मराठी गायक सुधीर फड़के को सौंपा गया, जिन्होंने लता मंगेशकर के साथ संगीत कार्यक्रमों से आर्थिक सहायता जुटाई। 1948 में गांधी-हत्या के झूठे आरोपों के कारण संघ पर प्रतिबंध लगा था, और इसके बावजूद लोग इसे शक की नजर से देखते थे। लेकिन संघ ने हिम्मत नहीं हारी और 31 जुलाई 1954 को पुणे रेलवे स्टेशन से ‘मुक्तिवाहिनी’ दल रवाना हुआ।
2 अगस्त 1954: तिरंगे का गर्व
1 अगस्त को मूसलाधार बारिश में मुक्तिवाहिनी सिल्वासा पहुंची और योजनानुसार हमला बोला। पुलिस थाना, न्यायालय, और जेल को मुक्त कराया गया। पुर्तगाली सैनिकों ने हथियार डाल दिए, और मुख्य भवन पर कब्जा करने के बाद प्रमुख प्रशासक फिंदाल्गो को बंधक बनाया, लेकिन उनकी प्रार्थना पर उन्हें सुरक्षित छोड़ दिया।
2 अगस्त 1954 को सूर्योदय के साथ शासकीय भवन पर तिरंगा गर्व से फहराया गया। आश्चर्यजनक रूप से, मात्र 116 स्वयंसेवकों—बाबूराव भिड़े, विनायकराव आप्टे, बाबासाहब पुरंदरे, डॉ. श्रीधर गुप्ते, बिंदु माधव जोशी, मेजर प्रभाकर कुलकर्णी, श्रीकृष्ण भिड़े, नाना काजरेकर, त्रयंबक भट्ट, विष्णु भोंसले, ललिता फड़के, और हेमवती नाटेकर—ने एक रात में इस क्षेत्र को स्वतंत्र करा लिया।
गोवा मुक्ति आंदोलन: संघ की भूमिका
इस सफलता ने गोवा मुक्ति आंदोलन को नई ऊर्जा दी। संघ ने 1955 में सत्याग्रह आंदोलन को बढ़ावा दिया, जिसमें स्वयंसेवक जेल गए और प्रताड़ना सही। यह आंदोलन 19 दिसंबर 1961 को भारतीय सेना की कार्रवाई से गोवा की पूर्ण आजादी तक चला। संघ ने दिखाया कि देशभक्ति केवल शब्दों में नहीं, बल्कि कर्मों में भी जीती जाती है। यह नींव बिना उनके बलिदान के अधूरी रहती।
नेहरू की नज़रअंदाजी: एक ऐतिहासिक भूल
नेहरू सरकार ने इस शौर्य को स्वीकार करने से इनकार किया। उनकी विदेश नीति संयुक्त राष्ट्र में बातचीत पर केंद्रित थी, जबकि संघ के वीर जान की परवाह किए बिना लड़ रहे थे। इस नज़रअंदाजी ने RSS के योगदान को कम करके आंका और स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा देने से मना कर दिया। राइट-विंग कार्यकर्ताओं के लिए यह नेहरू की हिंदू संगठनों को दबाने की कोशिश थी।
वामपंथी और सेक्युलर नजरिया: सच्चाई को दबाने की साजिश?
वामपंथी और सेक्युलर इतिहासकारों ने संघ के बलिदान को नजरअंदाज किया और नेहरू की नीतियों को सही ठहराया। वे दावा करते हैं कि गोवा की मुक्ति केवल सेना की देन थी, जो एक सोची-समझी साजिश लगती है। सच्चाई यह है कि बिना संघ के शुरुआती बलिदान के, गोवा की आजादी इतनी जल्दी संभव नहीं थी।
भारत के लिए सबक: अपने वीरों को पहचानें
इस घटना से हमें सबक मिलता है कि देश की अखंडता के लिए हर वीर का सम्मान होना चाहिए। संघ ने संगठन और बलिदान से यह साबित किया। आज हमें 2 अगस्त 1954 के उन 116 वीरों को याद करना चाहिए, जिन्होंने देश के लिए अपने प्राण दिए।
गोवा आज: एक स्वतंत्र धरोहर
आज गोवा पर्यटन और संस्कृति का केंद्र है, लेकिन इसकी आजादी की कहानी अधूरी है, अगर हम संघ के योगदान को भूल जाएं। यह उनकी देशभक्ति और शौर्य का प्रमाण है, जो नेहरू की नज़रअंदाजी के बावजूद अमर है।
बलिदान का सम्मान
2 अगस्त 1954 का दिन हमें सिखाता है कि देशभक्ति और शौर्य की कोई सीमा नहीं। संघ के 116 स्वयंसेवकों ने गोवा मुक्ति की नींव रखी, लेकिन नेहरू की नज़रअंदाजी ने उनके योगदान को कम आंका। हमें अपने वीरों का सम्मान करना चाहिए और वामपंथी इतिहास लेखन को नकारना चाहिए। गोवा की आजादी संघ के शौर्य का प्रतीक है, जो हमेशा जिंदा रहेगा।