का प्रतीक बना। पश्चिम बंगाल के मेदिनीपुर में जन्मे इस वीर ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी और मुजफ्फरपुर बम कांड से आजादी की आग भड़काई। यह लेख उनके जीवन, उनके साहसिक कामों, और उनके बलिदान की कहानी को बताता है, जो हर देशभक्त के लिए प्रेरणा है।
शुरूआती जिंदगी: देशभक्ति की शुरुआत
खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसंबर 1889 को पश्चिम बंगाल के मेदिनीपुर जिले के मोहोबानी गाँव में हुआ था। वे एक साधारण परिवार में चौथे बच्चे थे। जब वे सिर्फ 6 साल के थे, उनकी माँ का और 7 साल की उम्र में पिता का देहांत हो गया। इसके बाद उनकी बड़ी बहन अपरूपा रॉय ने उनका पालन-पोषण किया।
बचपन से ही वे अंग्रेजों के अत्याचारों से दुखी थे। 1902-1903 में, जब श्री अरबिंदो और सिस्टर निवेदिता मेदिनीपुर आए, उनकी बातों ने खुदीराम को प्रभावित किया। 15 साल की उम्र में वे अनुशीलन समिति से जुड़े और पंपलेट बाँटकर लोगों को अंग्रेजों के खिलाफ जागरूक किया, जो उनकी देशभक्ति की नींव बनी।
क्रांतिकारी रास्ता: अंग्रेजों से लोहा लेना
खुदीराम ने 16 साल की उम्र में ही अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई शुरू कर दी। वे बम बनाना और हथियार चलाना सीख गए। 1908 में, अनुशीलन समिति ने डगलस किंग्सफोर्ड, एक सख्त अंग्रेज मजिस्ट्रेट, को निशाना बनाने का फैसला किया, जो बंगाली क्रांतिकारियों को सजा देने के लिए कुख्यात था। खुदीराम और उनके दोस्त प्रफुल्ल चाकी ने यह जिम्मा लिया। 29 अप्रैल 1908 को, मुजफ्फरपुर में किंग्सफोर्ड की गाड़ी पर उन्होंने बम फेंका, लेकिन गलती से दो अंग्रेज औरतों की मौत हो गई। इस घटना ने खुदीराम को अंग्रेजों के निशाने पर ला दिया।
मुजफ्फरपुर बम कांड: साहस का सबूत
मुजफ्फरपुर बम कांड 1908 में अंग्रेजी शासन के खिलाफ एक बड़ी घटना थी। खुदीराम और प्रफुल्ल चाकी ने किंग्सफोर्ड को मारने की योजना बनाई, जो क्रांतिकारियों को सजा देने के लिए जाना जाता था। 29 अप्रैल 1908 को, खुदीराम ने बम फेंका, लेकिन गाड़ी गलत निकली और दो निर्दोष महिलाओं की जान चली गई। इस घटना ने अंग्रेजों को क्रांतिकारियों पर और सख्त कर दिया, लेकिन खुदीराम का साहस देश में जागृति लाया। यह घटना उनकी 18 साल की उम्र में शहादत का कारण बनी, पर इसने आजादी की लड़ाई को नई ताकत दी।
पकड़ और मुकदमा: हिम्मत का परिचय
29 अप्रैल 1908 की घटना के बाद खुदीराम ने 25 मील पैदल चलकर वाईनी स्टेशन पहुँचे, लेकिन वहाँ दो सिपाहियों ने उन्हें पहचान लिया। उनके पास से 37 गोलियाँ, 30 रुपये, और रेलवे का नक्शा मिला, जो उनकी योजना का सबूत था। मुकदमे में, सिर्फ 18 साल की उम्र में भी उन्होंने डटकर जवाब दिया। उन्होंने कहा, “मैं अपने देश के लिए लड़ा हूँ, मुझे कोई अफसोस नहीं।” अंग्रेजों ने उन्हें दोहरी हत्या का दोषी ठहराया और 13 जून 1908 को फांसी की सजा सुनाई। उनके वकील ने उनकी कम उम्र का हवाला देकर माफी माँगी, लेकिन खुदीराम ने इसे ठुकरा दिया।
शहादत: गीता और मुस्कान के साथ
11 अगस्त 1908 को, मुजफ्फरपुर जेल में सुबह 6 बजे, खुदीराम बोस को फांसी दी गई। उनके हाथ में भगवद्गीता थी और चेहरे पर मुस्कान थी, जो उनके बेबाकी और देशप्रेम को दिखाती थी। फांसी से पहले उन्होंने “वंदे मातरम” का नारा लगाया, जो जेल की दीवारों से गूँज उठा। समाचार पत्रों, जैसे अमृत बाजार पत्रिका, ने लिखा कि लोगों ने उनके शव पर फूल बरसाए और अंग्रेज पुलिस को उन्हें संभालने में दिक्कत हुई। उनकी इस शहादत ने पूरे भारत में आजादी की भावना को जगा दिया।
विरासत और प्रभाव: प्रेरणा की मिसाल
खुदीराम बोस की शहादत ने स्वतंत्रता संग्राम को नई जान दी। मेदिनीपुर में उनके नाम पर स्मारक और स्कूल बने, जो युवाओं को प्रेरित करते हैं। उनकी कुर्बानी ने भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारियों को हिम्मत दी। आज, 11 अगस्त को, उनके सम्मान में कार्यक्रम होते हैं, जो हिंदू गौरव और देशप्रेम का प्रतीक हैं।
अमर वीर की याद
11 अगस्त 2025 को, हम खुदीराम बोस की शहादत को सलाम करते हैं, जिन्होंने 18 साल की उम्र में भारत माता के लिए फांसी ली। उनके हाथ में गीता और चेहरे पर मुस्कान हिंदू शौर्य की मिसाल है। सुदर्शन परिवार उनके बलिदान को नमन करता है और उनकी कहानी को हमेशा याद रखने का वचन देता है। खुदीराम बोस का नाम भारत के इतिहास में अमर रहेगा, जो हमें सिखाता है कि देश के लिए हर बलिदान अनमोल है।