राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत ने रविवार, 21 दिसंबर को एक कार्यक्रम के दौरान भारत की सांस्कृतिक पहचान पर स्पष्ट और बेबाक विचार रखे। आरएसएस के 100 वर्ष पूरे होने के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है और इस सत्य को सिद्ध करने के लिए किसी संवैधानिक प्रमाण की जरूरत नहीं है। यह देश अपनी परंपराओं, मूल्यों और संस्कृति के कारण हिंदू राष्ट्र रहा है और रहेगा।
अपने संबोधन में मोहन भागवत ने उदाहरण देते हुए कहा कि जैसे सूर्य पूर्व से उगता है और इसके लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती, वैसे ही भारत की हिंदू पहचान भी स्वाभाविक और ऐतिहासिक सत्य है। उन्होंने कहा कि यह पहचान किसी दस्तावेज़ या संवैधानिक शब्दों पर निर्भर नहीं करती, बल्कि भारत की आत्मा, संस्कृति और जीवन-पद्धति में निहित है।
आरएसएस प्रमुख ने यह भी स्पष्ट किया कि संघ की विचारधारा किसी धर्म या समुदाय के विरोध में नहीं है। उनके अनुसार, जो भी व्यक्ति भारत को अपनी मातृभूमि मानता है, भारतीय संस्कृति का सम्मान करता है और अपने पूर्वजों की विरासत पर गर्व करता है, वह इस राष्ट्र का अभिन्न हिस्सा है। उन्होंने कहा कि जब तक इस धरती पर ऐसे लोग मौजूद हैं, तब तक भारत एक हिंदू राष्ट्र बना रहेगा।
मोहन भागवत ने हिंदुत्व को लेकर फैली कुछ भ्रांतियों पर भी बात की। उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि जन्म के आधार पर बनी जाति व्यवस्था हिंदुत्व की पहचान नहीं है। हिंदुत्व का मूल भाव समरसता, समानता और सांस्कृतिक एकता है। उन्होंने जोर देकर कहा कि समाज को बांटने वाली किसी भी सोच को हिंदू परंपरा से जोड़ना गलत है।
संविधान के संदर्भ में बोलते हुए आरएसएस प्रमुख ने कहा कि यदि भविष्य में संसद कभी संविधान में संशोधन कर ‘हिंदू राष्ट्र’ शब्द जोड़ भी दे या न जोड़े, इससे संघ की सोच पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उनका कहना था कि शब्दों से अधिक महत्वपूर्ण सत्य और व्यवहार होता है। “हम हिंदू हैं और हमारा देश हिंदू राष्ट्र है—यह एक वास्तविकता है,” उन्होंने कहा।
उन्होंने यह भी याद दिलाया कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द मूल रूप से भारतीय संविधान की प्रस्तावना में शामिल नहीं थे। ये शब्द आपातकाल के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यकाल में संविधान के 42वें संशोधन के माध्यम से जोड़े गए थे। भागवत ने इस संदर्भ में यह संकेत दिया कि संविधान में समय-समय पर बदलाव होते रहे हैं, लेकिन भारत की मूल सांस्कृतिक चेतना सदैव स्थिर रही है।
अपने पूरे संबोधन में मोहन भागवत का संदेश साफ था—भारत की पहचान उसकी संस्कृति से है, और यह संस्कृति हजारों वर्षों से हिंदू मूल्यों पर आधारित रही है। यही पहचान भारत को जोड़ती है, दिशा देती है और आगे बढ़ने की प्रेरणा बनती है।
