भारतीय इतिहास में कुछ तारीख़ें ऐसी हैं जिन्हें जानबूझकर हल्का कर दिया गया। 24 दिसंबर 1737 उन्हीं में से एक है। यह वह दिन था जब भारतीय मराठा शक्ति ने यह साफ़ कर दिया कि इस देश की धरती पर सिर्फ़ विदेशी सल्तनतों का राज नहीं चलेगा।
भोपाल की धरती पर मराठाओं ने अकेले दम पर
निज़ाम, मुग़ल और नवाबों की संयुक्त 70 हज़ार की फौज को बिना बड़े खून-खराबे के झुका दिया।
यह जीत तलवार की नहीं, रणनीति और राष्ट्रबोध की थी।
भाग्यनगर से भोपाल तक: टकराव की असली वजह
भाग्यनगर—जिसे आज हैदराबाद कहा जाता है—उस समय निज़ाम की सत्ता का केंद्र था। यहीं से वह खुद को दक्कन का सबसे बड़ा शासक मानता था, भले ही नाम के लिए वह मुग़ल बादशाह का अधीनस्थ था।
मुग़ल साम्राज्य उस दौर में अंदर से खोखला हो चुका था। दिल्ली कमजोर थी, सूबेदार मनमानी कर रहे थे और भारतीय जनता पर करों का बोझ बढ़ता जा रहा था। निज़ाम और नवाब इसी कमजोर व्यवस्था के सबसे बड़े फ़ायदे उठाने वाले थे।
दूसरी ओर, मराठा साम्राज्य भारतीय स्वाभिमान और स्वशासन की ताक़त बनकर उभर रहा था।
यह सिर्फ़ विस्तार नहीं था, यह विदेशी प्रभुत्व को चुनौती थी।
मराठा नेतृत्व: पेशवा बाजीराव का स्पष्ट दृष्टिकोण
मराठा सेना का नेतृत्व कर रहे थे पेशवा बाजीराव प्रथम— एक ऐसे सेनानायक, जिनके लिए युद्ध सिर्फ़ जीत-हार नहीं, बल्कि धर्म और मातृभूमि की रक्षा का माध्यम था।
बाजीराव की सोच सीधी थी— विदेशी सत्ता को उसकी ताक़त से नहीं, उसकी कमज़ोर नसों पर वार करके हराया जाए।
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तेज़ चलने वाली घुड़सवार सेना
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भारी तोपों से बचते हुए वार
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दुश्मन की रसद और पानी पर कब्ज़ा
यह वही रणनीति थी जिसने बार-बार भारतीय धरती पर आक्रांताओं को परेशान किया था।
निज़ाम-मुग़ल-नवाब गठजोड़: संख्या थी, आत्मबल नहीं
मराठाओं से डरकर निज़ाम ने मुग़लों और स्थानीय नवाबों के साथ मिलकर एक विशाल सेना खड़ी की। करीब 70,000 सैनिक, भारी तोपें, हाथी और लंबी सप्लाई लाइन।
लेकिन इस गठजोड़ की सबसे बड़ी कमजोरी साफ़ थी— यह सेना सत्ता बचाने के लिए थी, जबकि मराठा सेना धरती और स्वाभिमान बचाने के लिए। यही अंतर हर युद्ध में निर्णायक होता है।
भोपाल में मराठा रणनीति: बिना फालतू खून बहाए जीत
भोपाल पहुँचते ही बाजीराव ने खुला युद्ध नहीं किया। उन्होंने मैदान नहीं चुना, उन्होंने सिस्टम पर वार किया।
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जहाँ से निज़ाम की सेना को खाना मिलता था, वहाँ मराठा पहुँच गए
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जहाँ से पानी आता था, वहाँ पहरा बैठ गया
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भारी सेना धीरे-धीरे खुद अपने बोझ से टूटने लगी
मराठा घुड़सवार आते, वार करते और तुरंत गायब हो जाते। निज़ाम की फौज के पास ताक़त थी, लेकिन दिशा नहीं।
24 दिसंबर 1737: जब घमंड टूटा
इस दिन तक निज़ाम की हालत साफ़ हो चुकी थी। भूखे सैनिक, टूटा मनोबल और बिखरी व्यवस्था। मराठाओं ने आख़िरी दबाव बनाया।
कोई दिखावटी युद्ध नहीं—बस चारों ओर से घेराव।
निज़ाम समझ गया कि अगर अब भी अड़ा रहा, तो उसकी पूरी फौज खत्म हो जाएगी।
70 हज़ार की सेना को झुकना पड़ा।
इतनी बड़ी हार क्यों हुई? साफ़ शब्दों में
यह हार इसलिए नहीं हुई कि निज़ाम कमजोर था,
बल्कि इसलिए हुई क्योंकि—
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मराठाओं के पास स्पष्ट नेतृत्व था
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उनकी लड़ाई भारतीय हित में थी
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निज़ाम की सेना सिर्फ़ सत्ता बचा रही थी
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मराठा सैनिक उद्देश्य के लिए लड़ रहे थे
इतिहास गवाह है—
उद्देश्य वाली सेना हमेशा संख्या वाली सेना पर भारी पड़ती है।
इस जीत का दूरगामी असर
भोपाल की जीत के बाद—
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मुग़ल सत्ता की रही-सही साख भी टूटी
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निज़ाम को मराठाओं की ताक़त माननी पड़ी
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मध्य भारत में भारतीय शक्ति का दबदबा बढ़ा
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पेशवा बाजीराव एक महान सेनानायक के रूप में स्थापित हुए
यह जीत एक संदेश थी—
भारत अब सिर्फ़ लूटा जाने वाला नहीं रहेगा।
इतिहास में क्यों दब गई यह जीत
दुर्भाग्य से, ऐसी भारतीय जीतों को वह स्थान नहीं मिला, जो विदेशी आक्रमणों को मिला। भोपाल का युद्ध हमें याद दिलाता है कि
भारत ने सिर्फ़ संघर्ष नहीं किया, उसने रणनीति से विजय भी पाई।
निष्कर्ष: यह तारीख़ याद रहनी चाहिए
24 दिसंबर 1737
वह दिन जब मराठाओं ने साबित किया कि भारतीय शौर्य किसी भी साम्राज्य से कम नहीं। भोपाल की धरती पर निज़ाम-मुग़ल-नवाब का गठजोड़ टूटा और भारतीय स्वाभिमान मजबूत हुआ। यह इतिहास नहीं, प्रेरणा है।
