“एक ऐसे युग-पुरुष की स्मृति, जिसकी आवाज़ दहाड़ बनकर गूँजी और जिसने हिंदुत्व, मराठी स्वाभिमान और राष्ट्रवाद को नई परिभाषा दी।”
एक युग-पुरुष की स्मृति और विचारों की लौ
17 नवंबर—यह केवल कैलेंडर की एक तारीख नहीं, बल्कि एक ऐसे युग-पुरुष की स्मृति है जिसने भारतीय राजनीति, हिंदुत्व और मराठी अस्मिता को एक नई पहचान दी। बालासाहेब ठाकरे जी वह व्यक्तित्व थे जिन्होंने सत्ता को कभी महत्व नहीं दिया, लेकिन सत्ता चलाने वालों की सोच को दिशा दी। वे हिंदुत्व की उस प्रचंड ज्योति के वाहक थे जिसकी रोशनी आज भी भारत की राजनीति और समाज में दिखाई देती है। उन्होंने शब्दों को तलवार की तरह और विचारों को आंदोलन की तरह इस्तेमाल किया। उनके समर्थकों के लिए वे केवल नेता नहीं—बल्कि आत्मसम्मान, निर्भीकता और राष्ट्रभक्ति का प्रतीक थे।
बालासाहेब की जड़ें—संस्कार, कला और साहस
23 जनवरी 1926 को पुणे में जन्मे बालासाहेब का पालन-पोषण एक ऐसे घर में हुआ जहाँ समाज, संस्कृति और राष्ट्रवाद की चर्चा स्वाभाविक थी। उनके पिता प्रभोधनकार ठाकरे महाराष्ट्र में सामाजिक चेतना जगाने वाले सबसे प्रभावशाली व्यक्तियों में से थे। बालासाहेब बचपन से ही तेजस्वी बुद्धि, कला-निपुणता और स्पष्टवादिता से पहचाने जाते थे। उन्होंने राजनीति में आने से पहले एक बेहतरीन कार्टूनिस्ट के रूप में अपनी पहचान बनाई और Free Press Journal में काम करते हुए समाज के अन्याय, भ्रष्टाचार और राजनीतिक दोहरेपन पर तीखे व्यंग्य किए।
कार्टून से क्रांति तक — ‘मार्मिक’ का प्रभाव
बालासाहेब की कला केवल मनोरंजन के लिए नहीं थी—वह व्यवस्था पर प्रहार थी। बाद में उन्होंने ‘मार्मिक’ नाम से अपनी पत्रिका शुरू की, और यहीं से उनकी विचारधारा की खुली दहाड़ सामने आने लगी। उनके कार्टूनों ने मराठी समाज के भीतर दबी पीड़ा को शब्द दिए। लोग समझने लगे कि कोई है जो उनकी बात मुखर होकर कह सकता है।
शिवसेना का जन्म — मराठी स्वाभिमान की पुकार
1966 में उन्होंने ‘शिवसेना’ की स्थापना की। यह केवल एक राजनीतिक दल नहीं था—बल्कि एक सामाजिक और भावनात्मक आंदोलन था जिसने मुंबई और पूरे महाराष्ट्र के मराठी युवाओं को पहली बार अपनी पहचान का अहसास कराया। उस समय मुंबई में रोजगार और अवसरों पर बाहरी लोगों का कब्ज़ा माना जाता था, जबकि स्थानीय मराठी युवाओं को अक्सर पीछे कर दिया जाता था। ठाकरे साहेब ने इस अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाई। उनका नारा था—“मराठी मानूस के साथ भेदभाव बर्दाश्त नहीं।” इस नारे के साथ वे धीरे-धीरे मराठी युवाओं के हृदय में बसते चले गए।
हिंदुत्व का सबसे निर्भीक स्वर
शिवसेना केवल क्षेत्रवाद तक सीमित नहीं रही। इससे आगे बढ़कर बालासाहेब ने इसे हिंदुत्व की अग्नि से भी जोड़ा। जब देश में हिंदुत्व की बात करना चुनौती माना जाता था, ठाकरे जी ने बिना किसी भय के कहा—“मैं हिंदू हूं और मुझे इस पर गर्व है।” उनकी यह स्पष्टवादिता ही उन्हें सामान्य राजनेताओं से अलग करती थी। वे ऐसे समय में हिंदुत्व की आवाज़ बने जब राजनीति में इस विचार को दबाने की कोशिश की जाती थी। राम मंदिर आंदोलन के दौरान बालासाहेब की आवाज़ सबसे मुखर थी। कश्मीरी हिंदुओं के पलायन पर वे सबसे पहले बोलने वालों में रहे। आतंकवाद और पाकिस्तान समर्थित गतिविधियों के विरुद्ध जिस स्पष्ट और दृढ़ स्वर की आवश्यकता थी, वह बालासाहेब में साफ दिखाई देता था। कई सुरक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि मुंबई में पाकिस्तान समर्थक नेटवर्क और ISI की गतिविधियों को चुनौती देने में बालासाहेब की भूमिका निर्णायक थी।
मुंबई का संरक्षक — संकट में ढाल बनकर खड़े रहे ‘साहेब’
मुंबई के संकटों में भी ठाकरे साहेब जनता के लिए ढाल की तरह खड़े रहे। 1992-93 के दंगों से लेकर मुंबई ब्लास्ट, हड़तालों और आपदाओं तक—शिवसैनिक हर जगह सक्रिय दिखे। आम जनता महसूस करती थी कि अगर शहर में संकट आए, तो ठाकरे साहेब उनके साथ खड़े मिलेंगे। यही भावनात्मक जुड़ाव था जिसने उन्हें ‘साहेब’ की उपाधि दिलाई।
सत्ता से परे एक प्रभावशाली नेतृत्व
ठाकरे साहेब की राजनीति सत्ता पर आधारित नहीं थी। उन्होंने जीवन में कभी मुख्यमंत्री पद नहीं लिया, न ही उसकी चाह रखी। वे कहते थे—“मुझे कुर्सी नहीं चाहिए, मुझे जनता का प्रेम चाहिए।” इसका परिणाम यह हुआ कि सत्ता में न होते हुए भी उनकी बात का प्रभाव सत्ता में बैठे लोगों से कई गुना अधिक था। मुंबई, महाराष्ट्र और केंद्र की राजनीति—तीनों में ठाकरे साहेब की राय का विशेष महत्व था।
मराठी अस्मिता से राष्ट्रवाद तक—ठाकरे की व्यापक दृष्टि
उनकी राष्ट्रवादी सोच मराठी अस्मिता के साथ जुड़ी थी। वे कहते थे—“मराठी होना मेरी पहचान है, लेकिन भारतीय होना मेरा धर्म।” यह विचार इस बात को जताता है कि शिवसेना केवल क्षेत्रीय राजनीति तक सीमित नहीं थी, बल्कि वह राष्ट्रीयता की गहरी भावना से भी जुड़ी थी।
एक जननायक की राजनीतिक शैली — स्पष्टवादिता और निर्भीकता
बालासाहेब ठाकरे की राजनीतिक शैली परंपरागत नहीं थी। वे न मनोवैज्ञानिक शब्दों में बोलते थे, न गोलमोल भाषा में। उनका हर वाक्य बिजली की तरह सीधा और असरदार होता था। वे कहते थे—“अगर सच बोलना अपराध है, तो मैं बार-बार यह अपराध करूँगा।” इस साहस ने उन्हें लाखों दिलों का नायक बनाया। लोग उन्हें इसलिए भी पसंद करते थे क्योंकि वे वही बोलते थे जो जनता महसूस करती थी, लेकिन कहने से डरती थी। ठाकरे साहेब ने उस डर को तोड़ा। उन्होंने भीड़ नहीं, चरित्र बनाया। उन्होंने वोट बैंक नहीं, एक जागरूक समाज तैयार किया जो अपनी अस्मिता और अपने अधिकारों के लिए खड़ा होना जानता था।
शब्दों की शक्ति — भाषण जो दहाड़ बनकर गूँजते रहे
बालासाहेब ठाकरे का भाषण सुनना अपने आप में एक अनुभव था। उनकी आवाज़, उनकी शैली और उनकी बातों का जोर ऐसा होता था कि सुनने वाले का खून गरम हो जाए। वे लंबा भाषण नहीं देते थे, लेकिन कुछ ही मिनटों में जनता की नब्ज पकड़ लेते थे। कई विशेषज्ञ कहते हैं कि महाराष्ट्र में जनमत निर्माण की सबसे बड़ी शक्ति अगर किसी के पास थी, तो वह बालासाहेब के शब्द थे। वे सिर्फ राजनीतिक मुद्दों पर नहीं, समाज, संस्कृति, आतंकवाद, भ्रष्टाचार और युवा नीति — हर विषय पर निर्भीकता से बोलते थे। उनके भाषणों की एक खास बात यह थी कि वे सुनने वाले पर तुरंत असर डालते थे। यही नेतृत्व की असली पहचान थी — जो केवल दिमाग नहीं, दिल को भी छू ले।
हिंदुत्व की लौ — एक विचार नहीं, जीवन दर्शन
बालासाहेब के लिए हिंदुत्व कोई राजनीतिक नारों का विषय नहीं था। यह जीवन का मर्म, संस्कृति की धड़कन और राष्ट्र की रक्षा का संकल्प था। वे कहते थे—“अगर हिंदू सुरक्षित है तो देश सुरक्षित है।” उन्होंने हिंदुत्व को आधुनिक रूप दिया—जहाँ धर्म के साथ राष्ट्रवाद, संस्कार और आत्मसम्मान जुड़ते हैं। वे हमेशा कहते थे—
“हिंदुत्व कट्टर नहीं, कर्तव्य है।”
उनकी यह सोच हजारों युवाओं को प्रेरित करती थी। उन्हें यह एहसास दिलाती थी कि हिंदू होना शर्म का नहीं, गर्व का विषय है। ठाकरे साहेब ने हिंदुत्व की भाषा को शहरों से निकलकर गांवों तक पहुँचाया। यह वही दौर था जब देश में pseudo-secular राजनीति अपने चरम पर थी, लेकिन ठाकरे साहेब अकेले थे जो बिना दबाव, बिना डर — हिंदुत्व की बात करते थे।
राम मंदिर आंदोलन में योगदान — संकल्प का प्रतीक
राम मंदिर आंदोलन के समय बालासाहेब की भूमिका सबसे निर्णायक नेताओं में मानी जाती है। अयोध्या में राम मंदिर निर्माण को वे हिंदू अस्मिता का प्रश्न मानते थे। उन्होंने खुलकर कारसेवकों का समर्थन किया और कहा—
“राम मंदिर हिंदू समाज का अधिकार है, उपकार नहीं।”
राम मंदिर आंदोलन को जिस जनबल और वैचारिक शक्ति की ज़रूरत थी, वह शिवसेना ने दी। ठाकरे साहेब ने पूरे महाराष्ट्र और कई अन्य राज्यों से लाखों हिंदू युवाओं को इस विचार से जोड़ा। अयोध्या में आज भव्य राम मंदिर का निर्माण पूरा हो चुका है — और भारतीय जनता आज भी याद करती है कि यह आंदोलन उन आवाज़ों के कारण सफल हुआ, जिनमें से सबसे प्रमुख आवाज़ बालासाहेब की थी।
असहायों के रक्षक — संकट के समय में “साहेब” का साया
मुंबई की जनता के लिए बालासाहेब ठाकरे केवल नेता नहीं, संकटमोचक थे। 1992–93 के दंगों में जब शहर जल रहा था, तब लोग शिवसेना और ठाकरे साहेब से सुरक्षा की उम्मीद कर रहे थे। मुंबई ब्लास्ट के बाद जब भय का माहौल था, तब शिवसैनिकों का नेटवर्क लोगों की सहायता में लगा था। यह सब इसलिए संभव हुआ क्योंकि ठाकरे साहेब ने अपने कार्यकर्ताओं को अनुशासन, साहस और सेवा की शिक्षा दी थी। उनका मानना था कि जनता का नेता वही है जो संकट में सबसे आगे और सुरक्षित समय में सबसे पीछे खड़ा रहे। मुंबई में आज भी बुजुर्ग लोग कहते हैं—“अगर साहेब होते, तो यह शहर कभी डरता नहीं।”
शिवसैनिकों का निर्माण — अनुशासन, ऊर्जा और राष्ट्रभक्ति का संगम
ठाकरे साहेब ने शिवसेना को केवल एक संगठन नहीं, बल्कि एक परिवार की तरह बनाया। वे हर शिवसैनिक को अपने बच्चे की तरह मानते थे। उनके मन में युवाओं के लिए विशेष स्थान था क्योंकि वे मानते थे कि राष्ट्र और समाज का भविष्य युवा ही तय करते हैं। उन्होंने शिवसैनिकों में यह तीन संस्कार डालने की जिम्मेदारी ली—
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अनुशासन — संगठन के प्रति निष्ठा
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राष्ट्रभक्ति — देश के लिए समर्पण
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साहस — अन्याय के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत
इन्हीं गुणों ने शिवसेना को महाराष्ट्र की सबसे प्रभावशाली शक्तियों में स्थापित किया।
पत्रकारिता से जनशक्ति तक — मीडिया में प्रभाव
बालासाहेब ने कार्टून और लेखन से करियर शुरू किया था। उनकी लेखनी और चित्रण में वही ताजगी, आक्रामकता और प्रहारक क्षमता थी जो बाद में उनकी राजनीति में दिखी। “मार्मिक” के माध्यम से उन्होंने मीडिया को वैचारिक संघर्ष का मंच बनाया। वे कहते थे—“अगर अन्याय है, तो कागज पर तलवार चला दो।” इसी विचार ने उन्हें समाज का दर्पण बना दिया।
सत्ता का आकर्षण नहीं, विचारों की ताकत महत्वपूर्ण
कई नेता सत्ता के पीछे दौड़ते हैं, लेकिन ठाकरे साहेब सत्ता को महत्व देने वालों में नहीं थे। उन्होंने कहा था—“अगर मैं चाहता, तो आज मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ सकता था, लेकिन मुझे कुर्सी नहीं, लोगों का दिल जीतना है।”
उनकी यह सोच आज की राजनीति में दुर्लभ है। सत्ता में न रहकर भी उनकी ताकत और दबदबा हर सरकार महसूस करती थी। वे फैसले लेते थे — सरकारें उनका अनुसरण करती थीं।
महाराष्ट्र में विकास, रोजगार और उद्योग पर दृष्टि
बालासाहेब महाराष्ट्र को उद्योग, रोजगार, और सांस्कृतिक केंद्र के रूप में विकसित देखना चाहते थे। शिवसेना–बीजेपी की गठबंधन सरकारों के दौरान मुंबई में कई बड़े प्रोजेक्ट शुरू हुए —
• महाराष्ट्र में विशाल इंफ्रास्ट्रक्चर नेटवर्क
• लोकल ट्रेनों का विस्तार
• उद्योग निवेश को बढ़ावा
• मजदूरों और कर्मचारियों के अधिकार
वे चाहते थे कि महाराष्ट्र समृद्ध हो, लेकिन अपनी पहचान और संस्कृति बचाए रखे।
दुश्मनों पर प्रहार — परंतु आम जनता के लिए नरम दिल
बालासाहेब को लोग कठोर नेता समझते थे, लेकिन उनका व्यक्तित्व दो भागों में बंटा था —
• दुश्मनों के लिए शेर
• आम जनता के लिए सेवक
वे अनाथ बच्चों की शिक्षा, गरीबों के इलाज और साधारण परिवारों की मदद के लिए हमेशा तैयार रहते थे। उनके दरवाजे पर कोई खाली हाथ नहीं लौटता था।
कला, संगीत और संस्कृति से प्रेम — एक संवेदनशील हृदय
बहुत कम लोग जानते हैं कि ठाकरे साहेब संगीत, चित्रकला और साहित्य के गहरे प्रेमी थे। उनकी कला आज भी कई संग्रहालयों और निजी दीर्घाओं में सुरक्षित है। वे क्लासिकल संगीत से लेकर मराठी नाट्यसंस्कृति तक हर क्षेत्र को संरक्षण देते थे।
अपने अंतिम दिनों तक जनता के लिए समर्पण
बीमारी के बावजूद उन्होंने सार्वजनिक जीवन को नहीं छोड़ा। उनके घर “मातोश्री” में लोगों की भीड़ लगी रहती थी। हर व्यक्ति चाहे गरीब हो, बुजुर्ग हो, पार्टी कार्यकर्ता हो या आम नागरिक — सभी से वे एक जैसा व्यवहार करते थे।
17 नवंबर 2012 को उनके निधन के बाद पूरा महाराष्ट्र रो पड़ा। मुंबई की सड़कों पर मानव सागर उमड़ आया था। आज भी मातोश्री के बाहर लोग उनकी पुण्यतिथि पर दीप जलाते हैं।
बालासाहेब की विरासत — विचारों की अमरता
बालासाहेब की विरासत किसी इमारत, पद या सत्ता में नहीं, बल्कि विचारों में जीवित है।
• हिंदुत्व का स्वाभिमान
• मराठी अस्मिता
• राष्ट्रवाद
• स्पष्टवादिता
• निर्भीकता
ये सभी मूल्य आज भी भारत की राजनीति और समाज को दिशा दे रहे हैं।
राजनीतिक साहस, स्पष्टवादिता और अडिग रवैया
बालासाहेब ठाकरे का नेतृत्व भारतीय राजनीति में सबसे अलग और अनोखा माना जाता है। वे उन कुछ नेताओं में से थे जो सत्य को खुलकर कहने में कभी नहीं झिझके। चाहे वह विपक्ष हो, केंद्र की सरकार हो या अपने ही समर्थक—वे सभी से समान निर्भीकता के साथ बात करते थे। उनके भाषणों में एक अनोखी आग, दृढ़ता और तर्क का मेल दिखता था। वे राजनीतिक लाभ की चिंताओं से पूरी तरह मुक्त थे। कभी किसी के आगे झुके नहीं और न ही किसी प्रकार के दबाव को स्वीकार किया। यही कारण है कि उनके समर्थकों के मन में उनके लिए श्रद्धा, विश्वास और प्रेम कभी कम नहीं हुआ।
शिवसैनिकों के प्रेरणास्रोत — ‘साहेब’ की करिश्माई उपस्थिति
ठाकरे साहेब केवल एक राजनीतिक नेता नहीं थे, बल्कि एक भावनात्मक आधार थे। शिवसैनिकों के लिए वे एक ऐसे मार्गदर्शक थे जो उनके जीवन में अनुशासन, संघर्ष और सेवा का मार्ग खोलते थे। कहा जाता है कि शिवसैनिकों में जो निष्ठा और समर्पण दिखाई देता है, उसका मूल कारण बालासाहेब की व्यक्तित्व शक्ति और उनके द्वारा दी गई दिशा थी। वे अपने कार्यकर्ताओं के परिवारों की तकलीफों से लेकर उनके संघर्ष तक—हर बात को व्यक्तिगत रूप से देखते थे। यही कारण था कि सामान्य लोग अपने नेता को नहीं, बल्कि अपने ‘साहेब’ को मानते थे।
मुंबई के विकास और श्रमिक वर्ग के हितों की आवाज़
बालासाहेब ठाकरे का प्रभाव केवल राजनीति तक सीमित नहीं था। मुंबई, महाराष्ट्र और विशेषकर कामगारों के हितों के लिए उन्होंने महत्वपूर्ण संघर्ष किए। 1970 और 80 के दशक में जब मिल मजदूर, टैक्सी ड्राइवर, दिहाड़ी कामगार और छोटे व्यापारी बड़े संकटों से जूझ रहे थे, तब ठाकरे साहेब की आवाज़ उनके लिए एक शक्ति बनी। उन्होंने बार-बार कहा कि मुंबई केवल इमारतों की वजह से नहीं, बल्कि श्रमिकों की मेहनत से खड़ी है। उनकी इस सोच ने समाज के हर वर्ग में विश्वास जगाया कि कोई है जो उनकी पीड़ा और परिश्रम को समझता है।
सामाजिक सद्भाव, धर्म-सुरक्षा और सांस्कृतिक गौरव
हालाँकि ठाकरे साहेब का व्यक्तित्व अत्यंत तेजस्वी और कठोर माना जाता है, लेकिन उनके भीतर समाज के प्रति संवेदनशीलता और मानवीय दृष्टि भी उतनी ही गहरी थी। उन्होंने धार्मिक अस्मिता की रक्षा के साथ-साथ सामाजिक सद्भाव पर भी बराबर ज़ोर दिया। उनके लिए हिंदुत्व का अर्थ किसी के प्रति घृणा नहीं, बल्कि अपने धर्म, संस्कृति और अपनी पहचान पर गर्व करना था। वे कहते थे कि हिंदुत्व कमजोर नहीं, बल्कि करुणा और न्याय पर आधारित शक्ति है—और यह शक्ति समाज को जोड़ती है, तोड़ती नहीं।
बालासाहेब का पारिवारिक पक्ष — सादगी और अनुशासन का जीवन
महान नेताओं के जीवन में अक्सर निजी पक्ष दब जाता है, लेकिन ठाकरे साहेब का पारिवारिक जीवन भी उतना ही प्रेरक है। वे अत्यंत सादगीप्रिय, अनुशासित और परिवार से जुड़े हुए व्यक्ति थे। चाहे व्यस्तता कितनी भी हो, वे परिवार के साथ समय बिताते थे। अपने पुत्र उद्धव ठाकरे और पोते आदित्य ठाकरे को उन्होंने राजनीति नहीं, बल्कि संस्कारों की शिक्षा दी। उनका मानना था कि राजनीति से पहले मनुष्य को अच्छा इंसान होना चाहिए।
बांद्रा स्थित ‘मातोश्री’ — आंदोलन, चिंतन और निर्णयों का केंद्र
मुंबई के बांद्रा में स्थित ठाकरे परिवार का निवास ‘मातोश्री’ भारतीय राजनीति में एक ऐसा स्थान बन गया जहाँ बिना पद के भी सबसे महत्वपूर्ण निर्णय लिए जाते थे। देशभर के नेता, अभिनेता, अधिकारी—सभी यहाँ आकर सलाह लेते थे। बालासाहेब की निर्णय क्षमता इतनी प्रभावशाली थी कि राजनीतिक विश्लेषक कहते थे—”दिल्ली में सरकारें बदल सकती हैं, लेकिन मुंबई में ठाकरे साहेब का प्रभाव अटूट है।”
हिंदुत्व की लौ जो बुझी नहीं — विचारधारा आज भी जीवंत
2012 में उनके देहांत के बाद भी बालासाहेब की विचारधारा न केवल जीवंत रही, बल्कि समय के साथ और भी प्रभावशाली हुई। हिंदुत्व पर उनका स्पष्ट और निर्भीक दृष्टिकोण आज भी अनेक राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों के लिए प्रेरणा है। भारत में राष्ट्रवाद, सांस्कृतिक गौरव और हिंदू पहचान पर जो नए विमर्श खड़े हुए, उनमें बालासाहेब का योगदान आधारशिला के रूप में देखा जाता है। विशेषज्ञ मानते हैं कि यदि बालासाहेब न होते, तो हिंदुत्व को लेकर जो राष्ट्रीय स्तर पर जागरूकता और स्वाभिमान दिखाई देता है, वह संभवत: इतनी व्यापक न होता।
बालासाहेब ठाकरे की विरासत — एक विचार जो पीढ़ियों को दिशा देता है
उनका जीवन सिखाता है कि एक व्यक्ति बिना पद, बिना सत्ता, बिना सरकारी संसाधनों के भी युग-निर्माता बन सकता है। बालासाहेब की विरासत केवल राजनीतिक नहीं—सांस्कृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक भी है। उन्होंने एक ऐसी राह दिखाई जिसमें आत्मसम्मान, राष्ट्रवाद, हिंदुत्व और सामाजिक न्याय का संगम था। यही कारण है कि उनकी पुकार, उनकी शैली, उनकी दहाड़—सब आज भी करोड़ों दिलों में वैसे ही गूँजती है।
समापन — एक ऐसी लौ जो मार्ग दिखाती है
आज 17 नवंबर को उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें याद करना केवल श्रद्धांजलि नहीं है, बल्कि उस विचार को प्रणाम करना है जो आज भी करोड़ों लोगों को प्रेरित करता है। बालासाहेब ठाकरे केवल एक नेता नहीं थे—वे आंदोलन थे। वे विचार थे। वे स्वाभिमान की आवाज़ थे। उनका जीवन बताता है कि शब्दों में भी शक्ति होती है, और विचारों में वह अग्नि जो पीढ़ियों को दिशा दे सकती है।
