बैटल ऑफ हाइफा: हिंदुस्तानी तलवारों ने चुप कराईं तुर्क बंदूकें, इजरायल आज भी करता है मेजर दलपत सिंह शेखावत को सलाम

बैटल ऑफ हाइफा: हिंदुस्तानी तलवारों ने चुप कराईं तुर्क बंदूकें, इजरायल आज भी करता है मेजर दलपत सिंह शेखावत को सलाम

23 सितंबर 1918, प्रथम विश्व युद्ध का दौर। इजरायल का हाइफा शहर तुर्की और जर्मन सेनाओं के कब्जे में था। उनके पास मशीनगनें, तोपें और आधुनिक हथियार थे, जबकि भारत के जोधपुर लांसर्स के पास केवल तलवारें, भाले और अडिग साहस। फिर भी, मेजर दलपत सिंह शेखावत के नेतृत्व में भारतीय घुड़सवारों ने हाइफा को आजाद कराकर इतिहास रच दिया। यह बैटल ऑफ हाइफा न केवल एक सैन्य विजय थी, बल्कि भारतीय वीरता और हिंदुस्तानी संस्कृति की उस भावना का प्रतीक थी, जो आज भी राइट विंग विचारकों के लिए प्रेरणा है। हाइफा में मेजर दलपत सिंह को “हाइफा हीरो” के रूप में सम्मानित किया जाता है, और यह युद्ध भारत-इजरायल के गहरे सांस्कृतिक और ऐतिहासिक बंधन का प्रतीक है।

हाइफा युद्ध की पृष्ठभूमि

प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) में तुर्की का ओटोमन साम्राज्य जर्मनी के साथ मिलकर मित्र राष्ट्रों के खिलाफ लड़ रहा था। हाइफा, एक महत्वपूर्ण बंदरगाह शहर, तुर्की और जर्मन सेनाओं के कब्जे में था। ब्रिटिश सेना, जिसमें भारतीय रियासतों की टुकड़ियां शामिल थीं, ने हाइफा को आजाद करने की योजना बनाई। यह हिस्सा मैगिडो अभियान का था, जिसमें जोधपुर, मैसूर और हैदराबाद के सैनिकों ने हिस्सा लिया। लेकिन हाइफा पर हमले की जिम्मेदारी जोधपुर लांसर्स को सौंपी गई, जिनका नेतृत्व मेजर दलपत सिंह शेखावत और कैप्टन अमन सिंह जोधा कर रहे थे।

उस समय तुर्की और जर्मन सेनाएं आधुनिक हथियारों से लैस थीं। उनके पास मशीनगनें, मोर्टार और तोपें थीं, जबकि भारतीय सैनिकों के पास केवल तलवारें, भाले और उनकी घुड़सवारी का कौशल था। फिर भी, भारतीय वीरों ने अपने साहस और रणनीति से असंभव को संभव कर दिखाया। यह युद्ध भारतीय सैन्य इतिहास में अंतिम और सबसे शानदार घुड़सवार हमले के रूप में दर्ज है।

मेजर दलपत सिंह शेखावत: हाइफा के हीरो

मेजर दलपत सिंह शेखावत का जन्म 26 जनवरी 1892 को राजस्थान के पाली जिले के देवली पाबूजी गांव में एक रावणा राजपूत परिवार में हुआ था। 18 वर्ष की आयु में वे जोधपुर लांसर्स में भर्ती हुए और अपनी वीरता के बल पर मेजर बने। उनके नेतृत्व में जोधपुर लांसर्स ने हाइफा के युद्ध में अभूतपूर्व पराक्रम दिखाया। माउंट कार्मल की पहाड़ियों पर तुर्की और जर्मन सेनाओं ने मजबूत मोर्चाबंदी की थी। मशीनगनों की गोलियों और तोपों के गोलों के बीच जोधपुर लांसर्स ने हमला बोला।

मेजर दलपत सिंह ने रणनीति बदली और अपनी टुकड़ी को पहाड़ के पीछे से चढ़ाया, जिससे दुश्मन को भनक तक नहीं लगी। तलवारें और भाले लिए भारतीय सैनिकों ने डेढ़ घंटे में तुर्की और जर्मन सेनाओं को घुटनों पर ला दिया। इस हमले में 1,350 से अधिक तुर्क और जर्मन सैनिकों को बंदी बनाया गया, जिसमें 23 ओटोमन और 2 जर्मन अधिकारी शामिल थे। लेकिन इस विजय की कीमत भी चुकानी पड़ी। मेजर दलपत सिंह समेत 8 भारतीय सैनिक शहीद हुए, और 34 घायल हुए।

हिंदुस्तानी तलवारों की जीत

हाइफा का युद्ध इसलिए अनूठा है, क्योंकि यह आधुनिक युद्ध के दौर में तलवारों और भालों की जीत थी। तुर्की और जर्मन सेनाएं, जो इस्लामिक ओटोमन साम्राज्य का हिस्सा थीं, ने 400 वर्षों तक हाइफा पर कब्जा जमाए रखा। लेकिन भारतीय सैनिकों की वीरता ने इस कब्जे को समाप्त कर दिया। यह युद्ध राइट विंग विचारकों के लिए विशेष महत्व रखता है, क्योंकि यह हिंदुस्तानी साहस और सांस्कृतिक गौरव का प्रतीक है। तलवारों और भालों से लैस राजपूत योद्धाओं ने न केवल विदेशी शासन को चुनौती दी, बल्कि यह भी दिखाया कि भारतीय संस्कृति का साहस और धर्म किसी भी आधुनिक शक्ति से कम नहीं है।

यह युद्ध भारत और इजरायल के बीच गहरे रिश्तों की नींव भी बना। हाइफा की आजादी ने यहूदी राष्ट्र के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया, और आज इजरायल में इस युद्ध को स्कूलों के पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाता है। मेजर दलपत सिंह को मरणोपरांत मिलिट्री क्रॉस और विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया। उनकी मूर्तियां जोधपुर, दिल्ली के त्रिमूर्ति भवन और लंदन की रॉयल गैलरी में स्थापित हैं।

राइट विंग के लिए प्रेरणा

हाइफा का युद्ध राइट विंग विचारकों के लिए इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह भारतीय सैनिकों की उस भावना को दर्शाता है, जो अपनी संस्कृति, धर्म और वीरता के लिए किसी भी हद तक जा सकती है। तुर्की के ओटोमन साम्राज्य, जो इस्लामिक शासन का प्रतीक था, को परास्त करना न केवल सैन्य जीत थी, बल्कि हिंदुस्तानी गौरव का प्रतीक भी था। मेजर दलपत सिंह और उनके सैनिकों ने दिखाया कि साहस और रणनीति के आगे आधुनिक हथियार भी बेकार हैं। यह युद्ध उस हिंदू-राजपूत वीरता की गाथा है, जो विदेशी आक्रांताओं के सामने कभी नहीं झुकी।

आज, जब राइट विंग विचारक भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म की रक्षा की बात करते हैं, हाइफा का युद्ध उन्हें प्रेरित करता है। यह दिखाता है कि सच्चा योद्धा वह है, जो अपने धर्म और संस्कृति के लिए प्राणों की आहुति दे दे। मेजर दलपत सिंह का बलिदान इस बात का सबूत है कि भारतीय वीरता न केवल युद्ध के मैदान में, बल्कि वैश्विक मंच पर भी अपनी छाप छोड़ सकती है।

हाइफा दिवस और भारत-इजरायल संबंध

हर साल 23 सितंबर को इजरायल और भारतीय सेना हाइफा दिवस मनाती है। हाइफा में वार मेमोरियल पर भारतीय सैनिकों को श्रद्धांजलि दी जाती है। इजरायल के स्कूलों में मेजर दलपत सिंह की वीरता की कहानियां पढ़ाई जाती हैं, और हाइफा चौक में उनका शिलालेख स्थापित है। यह युद्ध भारत और इजरायल के बीच सांस्कृतिक और ऐतिहासिक बंधन को मजबूत करता है।

बैटल ऑफ हाइफा भारतीय सैन्य इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय है। मेजर दलपत सिंह शेखावत और जोधपुर लांसर्स ने तलवारों और भालों से तुर्की और जर्मन सेनाओं को परास्त कर हाइफा को आजाद कराया। यह युद्ध न केवल सैन्य विजय थी, बल्कि हिंदुस्तानी साहस, संस्कृति और गौरव का प्रतीक था। राइट विंग विचारकों के लिए यह युद्ध एक प्रेरणा है, जो सनातन धर्म और भारतीय वीरता की रक्षा के लिए बलिदान का महत्व दर्शाता है। मेजर दलपत सिंह को इजरायल का सलाम और भारत का नमन है।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top