1 जुलाई: अमर बलिदानी बीरबल सिंह ढालिया…लाठियां खाईं, गोलियां सहीं, फिर भी थामे रखा तिरंगा और गाते रहे वंदे मातरम्

1 जुलाई 1946 को रायसिंहनगर की धरती पर एक सच्चा देशभक्त तिरंगे की शान के लिए शहीद हो गया। बीरबल सिंह ढालिया, बीकानेर प्रजा परिषद के वीर योद्धा, ने लाठियों की मार और गोलियों की बौछार झेली, पर तिरंगा नहीं छोड़ा। ‘वंदे मातरम्’ और ‘भारत माता की जय’ के नारे लगाते हुए उन्होंने अंतिम सांस ली। उनकी शहादत हर भारतीय के दिल में देशभक्ति की लौ जलाती है।

बीकानेर में दमन और स्वतंत्रता की पुकार

1940 के दशक में बीकानेर रियासत में सामंती अत्याचार चरम पर थे। भारी कर और स्वतंत्रता पर पाबंदियां जनता को कुचल रही थीं। बीकानेर प्रजा परिषद ने नागरिक अधिकारों और आजादी के लिए संघर्ष शुरू किया। इस आंदोलन का प्रमुख चेहरा थे बीरबल सिंह ढालिया। रायसिंहनगर में रूई का आढ़ती का काम करने वाले इस साधारण व्यक्ति के दिल में देशभक्ति का जुनून था। वे सामंती शासन के खिलाफ डटकर लड़े और स्वतंत्र भारत का सपना देखा।

रियासत ने तिरंगा फहराने पर सख्त प्रतिबंध लगाया था। यह पाबंदी देशभक्तों के लिए अपमान थी। प्रजा परिषद ने इस अन्याय को चुनौती दी। 30 जून 1946 को रायसिंहनगर में तिरंगा जुलूस निकालने की योजना बनी। बीरबल सिंह ने इसका नेतृत्व स्वीकार किया। वे जानते थे कि यह रास्ता खतरनाक होगा।

तिरंगे के लिए खून की होली

30 जून 1946 को रायसिंहनगर की सड़कों पर तिरंगा जुलूस निकला। बीरबल सिंह सबसे आगे थे। वे तिरंगा थामे ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ और ‘भारत माता की जय’ के नारे लगा रहे थे। रियासत की पुलिस ने बेरहमी से लाठियां बरसाईं। बीरबल सिंह की बाईं भुजा पर ज़ोरदार चोटें पड़ीं। खून बहने लगा, पर उनका हौसला अडिग रहा। वे तिरंगा थामे आगे बढ़े। नारे गूंजते रहे।

जुलूस रेस्ट हाउस की ओर बढ़ा। तभी रियासत के सैनिकों ने अंधाधुंध गोलियां चलानी शुरू कीं। ये सैनिक अपने ही भाइयों पर हथियार उठा रहे थे। बीरबल सिंह की जांघ में एक साथ तीन गोलियां लगीं। दर्द असहनीय था, पर उनका संकल्प नहीं डगमगाया। वे तिरंगा थामे ‘वंदे मातरम्’ गाते हुए आगे बढ़े।

लोगों ने उन्हें कंधों पर उठाकर पंडाल पहुंचाया। वहां से चारपाई पर चिकित्सालय ले जाया गया। खून की भारी कमी के बावजूद उनके हाथ में तिरंगा मजबूत था। चिकित्सक उनकी हिम्मत देखकर चकित थे। अंतिम सांसों में बीरबल सिंह ने कहा, ‘इस झण्डे की लाज अब मैं आपको सौंपे जा रहा हूं।’ 1 जुलाई 1946 को वे शहीद हो गए। उनकी वीरता अमर हो गई।

शहादत का ऐतिहासिक जुलूस

1 जुलाई 1946 को रायसिंहनगर में बीरबल सिंह ढालिया की शव यात्रा निकली। आजाद हिंद फौज के कर्नल अमरसिंह तिरंगा लेकर आगे चल रहे थे। हजारों लोग शामिल हुए। उन्होंने इस वीर को पुष्पांजलि अर्पित की। उनकी पत्नी श्रीमती मूलीदेवी और चार वर्षीय बेटी चम्पाकुमारी ने साहस के साथ विदाई दी। चिता पर उनकी देह अग्नि को समर्पित की गई। तिरंगे की शान को हर आंख ने सलाम किया। यह दृश्य हृदयस्पर्शी था।

बीरबल सिंह की शहादत ने बीकानेर में स्वतंत्रता की लौ तेज की। उनकी वीरता ने जनता में आजादी की चाह मज़बूत की। रायसिंहनगर के रेस्ट हाउस के पास, जहां उन्हें गोलियां लगीं, जनता ने उनकी संगमरमर की मूर्ति स्थापित की। हर साल 30 जून और 1 जुलाई को बलिदान मेला लगता है। लोग सपरिवार श्रद्धांजलि देने आते हैं।

तिरंगे की अमर शान

बीरबल सिंह ढालिया की शहादत राष्ट्रीय गौरव की अमर गाथा है। गंगानगर के मुख्य चौक में उनकी मूर्ति ‘वीर बीरबल चौक’ उनकी वीरता का प्रतीक है। उनके नाम पर एक उद्यान और राजस्थान नहर की ‘बीरबल सिंह वितरिका’ भी है। ये स्मारक उनकी देशभक्ति को जीवित रखते हैं।

उनकी कहानी हर भारतीय को प्रेरित करती है। सोशल मीडिया पर लोग लिखते हैं, ‘बीरबल सिंह ढालिया ने तिरंगे के लिए प्राण दिए। यही सच्ची देशभक्ति है।’ उनकी शहादत सिखाती है कि देश की आन-बान के लिए हर कुर्बानी छोटी है। 1 जुलाई को उनके बलिदान दिवस पर हम इस अमर शहीद को शत-शत नमन करते हैं। हम तिरंगे की लाज रखने का संकल्प लेते हैं।

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