चंद्रशेखर आजाद जयंती 2025: भारत माता का सच्चा सपूत, न झुका न रुका, आजाद ही जिया, आजाद ही शहीद हुआ

भारत के महान क्रांतिकारी और स्वतंत्रता सैनानी चंद्रशेखर आजाद की 119वीं जन्म जयंती पर उन्हें कोटि-कोटि प्रणाम। भारत माता के लिए उन्होंने वीरता से अपने प्राणों की आहूति दे दी थी, जो हिंदू शौर्य की गौरवगाथा है। 23 जुलाई 1906 को मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले के भाबका नामक स्थान पर जन्मे आजाद के क्रांतिकारी विचारों ने उन्हें अमर बना दिया था।

वहीं आजादी की लड़ाई में उनके योगदान को याद कर आज भी लोगों की छाती गर्व से चौड़ी तो आंखें नम हो जाती हैं। आज भारत माता के ऐसे ही वीर पुत्र की जन्म जयंती पर यहां देखें उनकी खास कोट्स, शायरी, जिन्हें पढ़ आप चंद्रशेखर आजाद को हमेशा अपनी यादों में जीवित रख सकते हैं।

वे न केवल एक योद्धा थे, बल्कि हिंदू शौर्य और स्वाभिमान का जीवंत प्रतीक, जिन्होंने “न झुका न रुका” का संकल्प लेकर ब्रिटिश हुकूमत को चुनौती दी। “आजाद ही जिया, आजाद ही शहीद हुआ” उनके जीवन का गौरविल्ला उद्घोष है, जो आज भी हर हिंदू हृदय को गर्व से भरता है। यह लेख उनकी वीरता, बलिदान, और अमर कहानी को इस पावन जयंती पर श्रद्धांजलि अर्पित करता है, जो युवाओं को प्रेरित करने वाली है।

प्रारंभिक जीवन: संकल्प की जड़ें

चंद्रशेखर का जन्म एक साधारण परिवार में हुआ, परंतु उनके हृदय में देशभक्ति का ज्वार बचपन से ही उमड़ रहा था। मात्र 12 वर्ष की आयु में वे गांधीजी के असहयोग आंदोलन का हिस्सा बने और पहली बार गिरफ्तार हुए।

कोर्ट में जज के नाम पूछने पर उन्होंने गर्व से कहा, “मेरा नाम आजाद है, पिता का नाम स्वतंत्रता, और पता जेलखाना!” यह जवाब उनकी अदम्य साहस और हिंदू स्वाभिमान का प्रतीक बना। ब्रिटिश शासन ने उन्हें कोड़े मारे, किंतु उनका हौसला कभी नहीं टूटा। यही संकल्प उनकी क्रांतिकारी यात्रा की नींव बना।

क्रांति का अगुआ: हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन

चंद्रशेखर आजाद ने हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) को नई दिशा दी और भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु जैसे साथियों के साथ ब्रिटिश सत्ता को हिला दिया। काकोरी कांड (1925) और सॉन्डर्स वध (1928) उनकी क्रांतिकारी सोच के प्रमाण हैं, जिन्होंने ब्रिटिश पुलिस को कड़ा जवाब दिया।

वे अक्सर कहते थे, “दुश्मन के सामने सिर कभी न झुकाना।” उनके साहस और रणनीति ने हिंदू युवाओं को एकजुट कर स्वतंत्रता की ज्वाला प्रज्ज्वलित की। वे भारत माता के वीर सपूत थे, जिन्होंने हिंदू शौर्य को नई ऊँचाइयों पर पहुँचाया।

न झुका न रुका: वीरता की मिसाल

चंद्रशेखर आजाद का जीवन वीरता और बलिदान की गाथा है। एक बार इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें घेर लिया, किंतु उन्होंने अकेले मोर्चा संभाला। घंटों चली मुठभेड़ में उन्होंने अपनी गोलियों से पुलिस को परास्त किया।

जब अंतिम गोली बची, तो उन्होंने खुद को गोली मार ली, ताकि गुलाम न बनें। यह घटना उनकी शहादत की शुरुआत थी, जिसे विस्तार से अगले खंड में देखेंगे। यह हिंदू गौरव और स्वाभिमान की अनुपम मिसाल है।

शहादत की गौरवगाथा: अल्फ्रेड पार्क का बलिदान

27 फरवरी 1931 का दिन भारतीय इतिहास में एक स्वर्णिम पन्ना है, जब चंद्रशेखर आजाद ने अपनी वीरता का चरम प्रदर्शन किया। इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें सूचना के आधार पर घेर लिया था। आजाद उस दिन अपने साथी सुखदेव राज के साथ योजना बना रहे थे, जब अचानक पुलिस ने चारों ओर से हमला बोल दिया। उनके सिर पर 5000 रुपये का इनाम था, और ब्रिटिश अधिकारी नूर आलम खान के नेतृत्व में एक बड़ी टुकड़ी तैनात थी।

आजाद ने बिना घबराए मोर्चा संभाला। उनकी पिस्तौल की गूंज पूरे पार्क में गूंज उठी, और उन्होंने अपने कौशल से पुलिस को चारों ओर से खदेड़ दिया। घंटों चली इस मुठभेड़ में उन्होंने अकेले ही करीब 40 गोलियाँ चलाईं, जिससे पुलिस सकते में आ गई। लेकिन गोलियाँ खत्म होने लगीं। उन्होंने अपने साथी को सुरक्षित निकालने का इशारा किया और खुद अंतिम गोली के लिए तैयार हो गए। जब गोला-बारूद समाप्त हुआ, तो उन्होंने अपनी पिस्तौल को अपनी कनपटी पर रखा और बिना हिचक स्वयं को गोली मार दी। यह क्षण था जब उन्होंने अपनी कसम निभाई—”दुश्मन के सामने कभी सर न झुकाना, और आजाद ही मरना।”

ब्रिटिश पुलिस ने उनके शव को देखा और हैरानी में पड़ गई। उनकी छाती पर एक भी गोली नहीं लगी थी, जो उनकी सटीक निशानेबाजी का प्रमाण थी। इस घटना ने हिंदू समाज में एक नई क्रांति की लहर पैदा की। वामपंथी इतिहासकारों ने इसे हिंसक कदम कहा, किंतु हिंदू जनमानस ने इसे स्वाभिमान और बलिदान की जीत माना। अल्फ्रेड पार्क आज भी “चंद्रशेखर आजाद पार्क” के नाम से उनकी याद में खड़ा है, जहाँ हर साल लोग उनके बलिदान को नमन करते हैं।

हिंदू गौरव का प्रतीक

आजाद ने हिंदू संस्कृति और राष्ट्रवाद को अपने जीवन में आत्मसात किया। वे भगवान राम और हनुमान जी की भक्ति में लीन रहते थे, जिन्हें वे अपनी शक्ति मानते थे। उनकी वीरता ने हिंदू युवाओं को सिखाया कि स्वतंत्रता के लिए प्राण त्यागना धर्म और कर्तव्य है। वामपंथी इतिहासकारों ने उनकी धार्मिक भावना को नजरअंदाज किया, किंतु जनता ने उन्हें हमेशा भारत माता का सच्चा सपूत माना। उनकी शहादत ने हिंदू अस्मिता को अक्षुण्ण रखा और क्रांति की ज्योत जलाए रखी।

चुनौतियाँ और बलिदान

आजाद का जीवन सतत खतरे में रहा। ब्रिटिश सरकार ने उनके सिर पर 5000 रुपये का इनाम रखा, किंतु वे कभी पकड़े नहीं गए। वे जंगलों में छिपकर रणनीति बनाते और दिन में क्रांति की अगुआई करते। अपनी मृत्यु से पहले उन्होंने साथियों को प्रेरित किया कि स्वतंत्रता के लिए हर बलिदान देना होगा। उनका त्याग हिंदू समाज और स्वतंत्रता आंदोलन के लिए अमर है।

विरासत और प्रभाव

27 फरवरी 1931 को शहीद होने के बाद भी चंद्रशेखर आजाद की गाथा जीवित है। उनकी “आजाद ही जिया, आजाद ही शहीद हुआ” की कसम ने लाखों युवाओं को प्रेरित किया। उनकी जयंती 23 जुलाई को हर साल हिंदू शौर्य और राष्ट्रभक्ति का पर्व बनती है। आजाद ने साबित किया कि हिंदू वीरता और बलिदान से ही माँ भारती आजाद हुई। उनकी याद हमें स्वतंत्रता की कीमत सिखाती है।

अमर शहीद

चंद्रशेखर आजाद जयंती 2025 हमें उनके बलिदान और वीरता की याद दिलाती है। वे भारत माता का सच्चा सपूत थे, जो न झुके न रुके, और आजाद ही जिया और आजाद ही शहीद हुआ। उनकी कहानी हिंदू गौरव और स्वतंत्रता की प्रेरणा है। वामपंथी आलोचना के बावजूद उनकी शहादत अमर है। आइए, 23 जुलाई 2025 को उनके सपनों को साकार करें और माँ भारती की रक्षा का संकल्प लें।

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