24 जून, वह दिन जब भारत माता की गोद में एक ऐसे क्रांतिकारी का जन्म हुआ, जिन्होंने अंग्रेजी गुलामी की जंजीरों को तोड़ने की ठान ली। दामोदर हरि चापेकर, जिनके नाम से अंग्रेजी हुकूमत कांप उठी, वह वीर थे जिन्होंने 1897 में अत्याचारी प्लेग कमिश्नर वाल्टर चार्ल्स रेंड का अंत कर स्वतंत्रता की पहली चिंगारी जलाई।
चापेकर बंधुओं—दामोदर, बालकृष्ण और वासुदेव—ने अपने खून से भारत की आजादी की नींव रखी। उनकी यह दास्तां हर उस देशभक्त के लिए प्रेरणा है, जो सनातन संस्कृति और स्वराज के लिए लड़ता है। यह गाथा उन वामपंथी इतिहासकारों के मुंह पर तमाचा है, जो क्रांतिकारियों को भुलाकर एक परिवार की चाटुकारिता में लीन रहे।
पुणे में अंग्रेजी अत्याचार: क्रांति की पृष्ठभूमि
1897 में पुणे प्लेग की चपेट में था। अंग्रेजी हुकूमत ने इसे बहाना बनाकर हिंदुओं पर जुल्म ढाए। वाल्टर चार्ल्स रेंड, पुणे का प्लेग कमिश्नर, और उनके सहायक लेफ्टिनेंट आयर्स्ट ने हिंदू घरों में जबरन घुसकर महिलाओं का अपमान किया, मंदिरों को अपवित्र किया और लोगों को उनके घरों से बेदखल किया। शिवाजी जयंती और गणेश पूजा जैसे हिंदू उत्सवों पर पाबंदी लगाकर अंग्रेजों ने सनातन संस्कृति को कुचलने की कोशिश की। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने अपने समाचार पत्र ‘केसरी’ में इन अत्याचारों की कड़ी आलोचना की, जिसके लिए उन्हें जेल में डाल दिया गया।
यह सब देखकर दामोदर हरि चापेकर का खून खौल उठा। बचपन से ही तिलक को गुरु मानने वाले दामोदर ने मां से सीखा था कि “रोना नहीं, लड़ना है।” उनके मन में सैनिक बनने का सपना था, और विरासत में मिला कीर्तन का यश-ज्ञान उनकी देशभक्ति को और प्रबल करता था। तिलक के एक कथन—“शिवाजी ने अत्याचार का विरोध किया, तुम क्या कर रहे हो?”—ने चापेकर बंधुओं को क्रांति का मार्ग दिखाया। दामोदर ने अपने भाइयों, बालकृष्ण और वासुदेव, के साथ संकल्प लिया कि वे अंग्रेजी जुल्म का अंत करेंगे।
22 जून 1897: क्रांति की पहली चिंगारी
22 जून 1897 को रानी विक्टोरिया का 60वां राज्यारोहण समारोह था। पुणे के गवर्नमेंट हाउस क्लब में रेंड और आयर्स्ट इस जलसे में शामिल थे। दामोदर हरि चापेकर, अपने भाई बालकृष्ण और दोस्त विनायक रानाडे के साथ वहां पहुंचे। उनकी योजना थी—अत्याचारियों को जीवित नहीं छोड़ना। रात 12:10 बजे, जैसे ही रेंड और आयर्स्ट अपनी-अपनी बग्घियों में सवार हुए, दामोदर ने रेंड की बग्घी पर चढ़कर उसे गोली मार दी। दूसरी ओर, बालकृष्ण ने आयर्स्ट को निशाना बनाया। आयर्स्ट तुरंत मर गया, जबकि रेंड तीन दिन बाद अस्पताल में दम तोड़ गया।
पुणे की जनता में यह खबर जंगल की आग की तरह फैली। उत्पीड़ित लोग चापेकर बंधुओं की जय-जयकार करने लगे। यह भारत के स्वतंत्रता संग्राम में पहला सशस्त्र क्रांतिकारी हमला था, जिसने अंग्रेजी हुकूमत को हिलाकर रख दिया। यह चिंगारी थी, जिसने आगे चलकर भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारियों को प्रेरित किया।
वामपंथी इतिहासकारों की साजिश: क्रांतिकारियों को भुलाना
वामपंथी इतिहासकारों और उनके चाटुकार लेखकों ने दामोदर चापेकर जैसे वीरों को इतिहास के पन्नों से मिटाने की साजिश रची। इन लोगों ने स्वतंत्रता संग्राम को एक परिवार और उनके सहयोगियों तक सीमित कर दिया, ताकि सनातन संस्कृति और हिंदू क्रांतिकारियों का योगदान दबाया जा सके। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद में इस साजिश को उजागर करते हुए कहा था, “इन क्रांतिकारियों को भुला दिया गया, क्योंकि कुछ लोग आजादी की ठेकेदारी करना चाहते थे।” चापेकर बंधुओं की गाथा इस सत्य को उजागर करती है कि सनातन हिंदू संस्कृति के रक्षक ही स्वराज के असली नायक थे।
वामपंथियों ने तिलक और चापेकर जैसे वीरों को हिंसक बताकर बदनाम करने की कोशिश की, लेकिन सच्चाई यह है कि इन क्रांतिकारियों ने हिंदुस्तान की अस्मिता और धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राण न्योछावर किए। दामोदर चापेकर ने रेंड का वध कर न केवल अंग्रेजी अत्याचार का जवाब दिया, बल्कि हिंदू समाज में स्वाभिमान की लौ जलाई।
शहादत का गौरव: चापेकर बंधुओं का बलिदान
रेंड और आयर्स्ट की हत्या के बाद, अंग्रेजों ने चापेकर बंधुओं को पकड़ने के लिए 20,000 रुपये का इनाम रखा। द्रविड़ बंधुओं ने विश्वासघात कर दामोदर का सुराग दे दिया। दामोदर को गिरफ्तार कर लिया गया, और बाद में बालकृष्ण भी पकड़े गए। सत्र न्यायाधीश ने दामोदर को फांसी की सजा सुनाई। 18 अप्रैल 1898 को, दामोदर ने तिलक द्वारा दी गई गीता पढ़ते हुए हंसते-हंसते फांसी का फंदा गले में डाला। उनकी मंद मुस्कान और अडिग साहस ने अंग्रेजों को भी हैरान कर दिया।
बाद में, वासुदेव और रानाडे ने द्रविड़ बंधुओं को विश्वासघात की सजा दी और उन्हें गोली मार दी। लेकिन अंग्रेजों ने वासुदेव, बालकृष्ण और रानाडे को भी पकड़कर फांसी दे दी। चापेकर बंधुओं का पूरा परिवार भारत माता के लिए बलिदान हो गया। उनकी शहादत ने सनातन धर्म और स्वराज के लिए लड़ने वालों को नया जोश दिया।
चापेकर बंधुओं की प्रेरणा: सनातन संस्कृति की रक्षा
दामोदर चापेकर और उनके भाइयों का जीवन सनातन संस्कृति के प्रति अटूट निष्ठा का प्रतीक है। उन्होंने शिवाजी और तिलक जैसे महानायकों से प्रेरणा ली और हिंदू समाज को संगठित करने का सपना देखा। उनके घर में ‘केसरी’ समाचार पत्र की गूंज थी, जो स्वराज और सुधार की बात करता था। दामोदर को गायन, काव्य और व्यायाम का शौक था, जो उनकी सांस्कृतिक जड़ों से गहरा जुड़ाव दर्शाता है।
उनका यह बलिदान राइट विंग विचारकों के लिए एक मशाल है, जो हिंदुत्व, स्वाभिमान और राष्ट्रभक्ति को सर्वोपरि मानते हैं। वामपंथी विचारधारा, जो पश्चिमी विचारों को थोपकर भारतीय संस्कृति को कमजोर करना चाहती है, के खिलाफ चापेकर बंधुओं की गाथा एक जवाब है।
24 जून, दामोदर हरि चापेकर की जयंती, हमें उस क्रांतिकारी की याद दिलाती है, जिन्होंने अंग्रेजी गुलामी की बेड़ियां तोड़कर स्वतंत्रता की मशाल जलाई। रेंड का अंत कर उन्होंने सनातन संस्कृति और हिंदुस्तान की अस्मिता की रक्षा की।
वामपंथी इतिहासकारों ने उनकी गाथा को दबाने की कोशिश की, लेकिन सच्चाई कभी दबती नहीं। चापेकर बंधुओं का बलिदान हर देशभक्त के लिए प्रेरणा है कि सनातन धर्म और स्वराज के लिए हर कीमत चुकाई जा सकती है। दामोदर चापेकर की यह दास्तां भारत के गौरवशाली इतिहास का स्वर्णिम पन्ना है। उन्हें कोटि-कोटि नमन!