कलकत्ता से जेएनयू तक: शिक्षा के मंदिरों में कैसे फैला वामपंथी ज़हर?

शिक्षा को हमेशा ज्ञान, संस्कृति और चरित्र निर्माण का मंदिर माना गया है। लेकिन भारत में, खासकर कलकत्ता से लेकर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) तक, यह मंदिर धीरे-धीरे वामपंथी विचारधारा के “ज़हर” से ग्रस्त हो गया है। यह ज़हर न केवल छात्रों के मन को प्रदूषित कर रहा है, बल्कि राष्ट्रवाद और हिंदू गौरव के खिलाफ जहर उगल रहा है।

वामपंथी विचारधारा, जो मूल रूप से विदेशी मिट्टी से उगाई गई, ने भारतीय शिक्षा प्रणाली में गहरी पैठ बनाई है। इस लेख में हम इस प्रसार के इतिहास, इसके स्रोत, और इसके प्रभावों की पड़ताल करेंगे, साथ ही इस “ज़हर” को खत्म करने के लिए उठ रही आवाज़ों को भी सामने लाएंगे।

वामपंथी विचारधारा का जन्म: विदेशी जड़ें

वामपंथी विचारधारा की शुरुआत पश्चिमी देशों, खासकर कार्ल मार्क्स और लेनिन के सिद्धांतों से हुई, जो हिंसा और क्रांति पर आधारित थी। भारत में इसका प्रवेश 20वीं शताब्दी की शुरुआत में हुआ, जब कलकत्ता जैसे शहरों में बुद्धिजीवियों ने इस विचारधारा को अपनाया।

1930 और 1940 के दशक में, जब भारत आजादी की लड़ाई लड़ रहा था, वामपंथी नेताओं ने इसे एक राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया। वे ब्रिटिश शासकों के खिलाफ लड़ने के बजाय अपने ही देशवासियों के खिलाफ खड़े हो गए। कलकत्ता, जो उस समय भारत की सांस्कृतिक और बौद्धिक राजधानी था, वामपंथी आंदोलन का केंद्र बन गया। यहाँ की यूनिवर्सिटीज, जैसे प्रेसिडेंसी कॉलेज और जादवपुर यूनिवर्सिटी, इस विचारधारा के प्रचार-प्रसार के अड्डे बन गए।

कलकत्ता से दिल्ली तक: प्रसार का सफर

दूसरे विश्व युद्ध के बाद और आजादी के बाद, वामपंथी विचारधारा ने धीरे-धीरे पूरे भारत में अपनी जड़ें फैलाईं। कलकत्ता से शुरू हुआ यह प्रभाव दिल्ली, बनारस, और अन्य शहरों की यूनिवर्सिटीज तक पहुँचा। 1970 के दशक में, जब जेएनयू की स्थापना हुई, यहाँ वामपंथी संगठनों ने कैंपस को अपने नियंत्रण में ले लिया।

जेएनयू को एक ऐसी प्रयोगशाला बना दिया गया, जहाँ राष्ट्रविरोधी नारे, जातिवाद, और वर्ग संघर्ष को बढ़ावा दिया गया। यहाँ के छात्रों को पढ़ाई से ज्यादा राजनीति सिखाई गई, और धीरे-धीरे यह विश्वविद्यालय वामपंथी प्रचार का केंद्र बन गया। कलकत्ता की तरह, जेएनयू में भी बुद्धिजीवियों ने इस “ज़हर” को फैलाने में अहम भूमिका निभाई।

शिक्षा में वामपंथी हस्तक्षेप: पाठ्यक्रम का अपमान

वामपंथी विचारधारा ने भारतीय शिक्षा प्रणाली के पाठ्यक्रम को भी नहीं बख्शा। इतिहास, समाजशास्त्र, और राजनीति विज्ञान जैसे विषयों में हिंदू संस्कृति और राष्ट्रवाद को कमजोर करने वाली सामग्री को शामिल किया गया। उदाहरण के लिए, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को ब्रिटिश शासकों के खिलाफ लड़ाई के बजाय वर्ग संघर्ष के रूप में प्रस्तुत किया गया। हिंदू राजाओं और संतों को क्रूर और दमनकारी दिखाया गया, जबकि मुगल और विदेशी शासकों को महिमामंडित किया गया। यह सब जानबूझकर किया गया ताकि युवा पीढ़ी अपनी जड़ों से कट जाए और वामपंथी एजेंडे को स्वीकार करे। यह “ज़हर” छात्रों के दिमाग में इतना गहरा पैठ गया कि वे अपने ही देश और संस्कृति के खिलाफ बोलने लगे।

जेएनयू: वामपंथी गढ़ का प्रतीक

जेएनयू आज वामपंथी विचारधारा का सबसे बड़ा प्रतीक बन गया है। यहाँ के छात्र संगठन, जैसे ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन (एआईएसएफ) और स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई), कैंपस में अपनी सत्ता कायम रखते हैं। यहाँ राष्ट्रविरोधी नारे, जैसे “भारत तेरे टुकड़े होंगे” और “अफजल हम तुम्हारे साथ हैं”, बिना किसी रोक-टोक के लगाए गए। यह “ज़हर” इतना गहरा हो गया कि छात्रों ने आतंकवादियों और देशद्रोहियों को हीरो बना दिया। जेएनयू में पढ़ाई से ज्यादा राजनीतिक रैलियाँ और प्रदर्शन होते हैं, जहाँ हिंदू धर्म और राष्ट्रवाद को निशाना बनाया जाता है। यह स्थिति न केवल शिक्षा के मंदिर को अपवित्र करती है, बल्कि देश की एकता और अखंडता को भी खतरे में डालती है।

वामपंथी प्रभाव का सामाजिक असर

वामपंथी विचारधारा ने समाज में भी गहरा असर डाला है। यहाँ के छात्र, जो कल के नेता बनने वाले हैं, को जाति और वर्ग के आधार पर बांटने का काम करती है। यह “ज़हर” युवाओं के मन में असंतोष और विद्रोह की भावना पैदा करता है, जो देश के लिए खतरनाक है। इसके अलावा, वामपंथी संगठन गरीबों और आदिवासियों को अपने एजेंडे के लिए इस्तेमाल करते हैं, उन्हें हिंसा और नक्सलवाद की ओर धकेलते हैं। यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि शिक्षा के मंदिरों में राष्ट्रवाद और संस्कृति की जगह वामपंथी प्रचार ने ले ली है।

इस “ज़हर” के पीछे के खिलाड़ी

वामपंथी विचारधारा के प्रसार में बुद्धिजीवियों, शिक्षकों, और एनजीओ का बड़ा हाथ रहा है। कई प्रोफेसर, जो खुद वामपंथी विचारधारा से प्रभावित हैं, छात्रों को इसी दिशा में ले जाते हैं। इनमें से कुछ नाम आज भी चर्चा में हैं, जो जेएनयू और अन्य यूनिवर्सिटीज में इस “ज़हर” को फैलाने में सक्रिय रहे हैं। इसके अलावा, विदेशी फंडिंग और संगठनों ने भी इस प्रचार को बढ़ावा दिया है। ये ताकतें भारत की एकता और संस्कृति को कमजोर करने के लिए काम कर रही हैं, और शिक्षा के मंदिर इन्हें साधन बन गए हैं।

प्रतिरोध की आवाज़: राष्ट्रवाद का उदय

हालांकि, इस “ज़हर” के खिलाफ अब प्रतिरोध की आवाज़ भी उठ रही है। युवा पीढ़ी, खासकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) जैसे संगठनों के जरिए, वामपंथी प्रभाव को चुनौती दे रही है। जेएनयू में भी राष्ट्रवादी छात्रों ने वामपंथी संगठनों का मुकाबला किया है। सरकार ने भी शिक्षा प्रणाली में सुधार के लिए कदम उठाए हैं, जैसे नई शिक्षा नीति (2020), जो भारतीय संस्कृति और मूल्यों को बढ़ावा देती है। यह बदलाव इस “ज़हर” को खत्म करने की दिशा में एक सकारात्मक कदम है।

शिक्षा को मुक्त करें

कलकत्ता से जेएनयू तक, वामपंथी “ज़हर” ने शिक्षा के मंदिरों को प्रदूषित कर दिया है। यह न केवल छात्रों के दिमाग को खराब कर रहा है, बल्कि देश की एकता और संस्कृति को भी नुकसान पहुँचा रहा है। लेकिन आशा की किरण यह है कि राष्ट्रवाद और हिंदू गौरव की भावना अब जाग रही है।

हमें इस “ज़हर” को खत्म करने के लिए शिक्षा प्रणाली को पुनर्जनन करना होगा, जहाँ भारतीय संस्कृति और राष्ट्रवाद को प्राथमिकता दी जाए। यह लड़ाई केवल शिक्षा के लिए नहीं, बल्कि हमारे देश के भविष्य के लिए है। सुदर्शन परिवार इस संकल्प के साथ खड़ा है कि शिक्षा के मंदिरों को फिर से ज्ञान और गौरव का केंद्र बनाया जाए।

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