नई दिल्ली | भारत और पाकिस्तान के बीच दुश्मनी की कहानियाँ तो हम सभी ने सुनी हैं, लेकिन इन दोनों देशों के बीच जासूसी की एक ऐसी कहानी है, जो रोंगटे खड़े कर देती है। यह कहानी है भारत के सबसे बड़े जासूसों में से एक, रविंदर कौशिक की, जिन्हें ‘ब्लैक टाइगर’ के नाम से जाना जाता है। रविंदर कौशिक ने अपनी जिंदगी को देश के लिए समर्पित कर दिया, पाकिस्तानी फौज में मेजर बनकर सैकड़ों भारतीय सैनिकों की जान बचाई, लेकिन बदले में उन्हें क्या मिला? मियाँवाली की जेल में अमानवीय यातनाएँ और एक ऐसी मौत, जिसके बाद भी उनकी शहादत गुमनाम ही रह गई। आइए, जानते हैं उनकी उस कहानी को, जो हर भारतीय को गर्व और दुख दोनों से भर देती है।
राजस्थान से रॉ तक का सफर
रविंदर कौशिक का जन्म 11 अप्रैल 1952 को राजस्थान के श्रीगंगानगर में एक साधारण पंजाबी परिवार में हुआ था। उनके पिता जे.एम. कौशिक भारतीय वायुसेना में कार्यरत थे, और माँ अमला देवी एक गृहिणी थीं। रविंदर को बचपन से ही थिएटर का शौक था। उनकी एक्टिंग इतनी शानदार थी कि वे अपने किरदारों में पूरी तरह ढल जाते थे।
यह प्रतिभा ही उनके जासूस बनने की वजह बनी। 1973 में बीकॉम की पढ़ाई पूरी करने के बाद, रविंदर दिल्ली चले गए। यहाँ उनकी मुलाकात भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ (रिसर्च एंड एनालिसिस विंग) के अधिकारियों से हुई। लखनऊ में एक नेशनल ड्रामा प्रोग्राम के दौरान रॉ के एक अधिकारी ने उनकी एक्टिंग देखी और उनकी लगन, हिम्मत, और चपलता को पहचान लिया। रॉ ने उन्हें भारत के लिए एक अंडरकवर जासूस बनने का प्रस्ताव दिया, जिसे रविंदर ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।
नई पहचान, नया मिशन
23 साल की उम्र में रविंदर को दिल्ली में दो साल की कठिन ट्रेनिंग दी गई। इस दौरान उन्हें उर्दू, इस्लाम की धार्मिक प्रथाओं, और पाकिस्तान के भूगोल की गहन जानकारी दी गई। श्रीगंगानगर से होने के कारण वे पंजाबी भाषा में माहिर थे, जो पाकिस्तान के कई हिस्सों में बोली जाती है। उनकी पहचान को पूरी तरह बदल दिया गया।
1975 में रॉ ने उनके सभी भारतीय रिकॉर्ड नष्ट कर दिए और उन्हें एक नया नाम दिया—नबी अहमद शाकिर। उनकी नई पहचान एक इस्लामाबाद निवासी की थी। यहाँ तक कि उनकी पहचान को और विश्वसनीय बनाने के लिए उनका खतना भी कराया गया। इसके बाद, उन्हें दुबई और अबू धाबी के रास्ते पाकिस्तान भेजा गया।
पाकिस्तान पहुँचकर रविंदर ने कराची यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया और वहाँ से एलएलबी की डिग्री हासिल की। पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने पाकिस्तानी सेना में भर्ती होने की परीक्षा दी और एक सिविलियन क्लर्क के रूप में सेना के एकाउंट्स विभाग में शामिल हो गए। उनकी मेहनत और लगन ने उन्हें जल्द ही मेजर के पद तक पहुँचा दिया।
1979 से 1983 तक उन्होंने पाकिस्तानी सेना में रहकर भारत के लिए कई महत्वपूर्ण जानकारियाँ भेजीं। उनकी सूचनाओं की वजह से भारत कई बार पाकिस्तान की साजिशों को नाकाम करने में सफल रहा। कहा जाता है कि उन्होंने करीब 20,000 भारतीय सैनिकों की जान बचाई। उनकी इस बहादुरी के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें ‘ब्लैक टाइगर’ का खिताब दिया।
प्यार और बलिदान
पाकिस्तान में रहते हुए रविंदर ने पूरी तरह से एक पाकिस्तानी नागरिक की जिंदगी जी। इस दौरान उनकी मुलाकात अमानत नाम की एक लड़की से हुई, जो एक आर्मी यूनिट में दर्जी की बेटी थी। दोनों को प्यार हो गया और उन्होंने शादी कर ली। उनकी एक बेटी भी हुई। लेकिन रविंदर ने कभी भी अमानत को अपनी असली पहचान नहीं बताई। वे एक तरफ अपने परिवार की जिम्मेदारियाँ निभा रहे थे, तो दूसरी तरफ भारत के लिए खुफिया जानकारी भेज रहे थे। इस दौरान वे 1981 में अपने छोटे भाई की शादी में शामिल होने के लिए चुपके से भारत आए। उन्होंने परिवार को बताया कि उन्होंने दुबई में शादी कर ली है, लेकिन अपनी जासूसी का राज किसी से नहीं खोला।
राज खुला, जिंदगी नरक बन गई
रविंदर की जिंदगी तब तक सही चल रही थी, जब तक 1983 में रॉ ने एक और जासूस, इनायत मसीह, को उनसे संपर्क करने के लिए पाकिस्तान नहीं भेजा। इनायत को कराची के जिन्ना गार्डन में रविंदर से मिलना था, लेकिन वह पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी के हत्थे चढ़ गया। पूछताछ के दौरान इनायत टूट गया और उसने रविंदर की असली पहचान उजागर कर दी। पाकिस्तानी सेना ने इनायत को रविंदर से मिलने के लिए कहा, और जब रविंदर वहाँ पहुँचे, तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उस समय उनकी उम्र महज 29 साल थी।
गिरफ्तारी के बाद रविंदर को भयानक यातनाओं का सामना करना पड़ा। उन्हें सियालकोट, कोट लखपत, और मियाँवाली जैसी जेलों में रखा गया। 1985 में उन्हें जासूसी के आरोप में मौत की सजा सुनाई गई, लेकिन बाद में पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने इसे उम्रकैद में बदल दिया। अगले 16 सालों तक उन्होंने जेल की कालकोठरी में अमानवीय हालातों का सामना किया। इस दौरान उन्हें टीबी और हृदय रोग हो गया। 21 नवंबर 2001 को मियाँवाली जेल में दिल का दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु हो गई। अपनी मृत्यु से पहले उन्होंने एक चिट्ठी में लिखा था, “क्या भारत जैसे बड़े देश के लिए कुर्बानी देने वालों को यही मिलता है?”
भारत सरकार की चुप्पी पर सवाल
रविंदर की गिरफ्तारी के बाद भारत सरकार पर उनकी अनदेखी करने का आरोप लगा। कहा जाता है कि उन्होंने भारत से मदद माँगी थी, लेकिन सरकार ने उन्हें स्वदेश लाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। रविंदर के परिवार ने भी कई बार कहा कि सरकार ने उनकी सुध नहीं ली। उनकी माँ अमला देवी की 2006 में मृत्यु हो गई, और परिवार को कभी यह नहीं बताया गया कि रविंदर का अंतिम संस्कार कहाँ हुआ। रविंदर की शहादत ने कई सवाल खड़े किए। क्या भारत अपने जासूसों की कुर्बानी को सम्मान देता है? क्या ऐसे जांबाजों को गुमनामी में मरने के लिए छोड़ देना उचित है?