असहनीय दर्द, बहता खून, और अटूट जज़्बा… इन शब्दों में समाया है लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर (A. B. Tarapore) का अनुपम साहस। 1965 का भारत-पाक युद्ध टैंकों की ताकत पर लड़ा गया एक भीषण युद्ध था, जिसमें पाकिस्तान के पास अमेरिकी पैटन टैंक थे।
इन टैंकों के दम पर जीत का सपना देखने वाले पाकिस्तान के नापाक इरादों को भारतीय सेना के जांबाज़ों ने ध्वस्त कर दिया। इस युद्ध का ज़िक्र आते ही सबसे पहले याद आता है लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोर का नाम, जिन्होंने 16 सितंबर को देश के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान दिया। यह लेख उनके साहस, नेतृत्व, और युद्ध के मैदान में दिखाए गए अदम्य जज़्बे को समर्पित है, जो हर भारतीय के लिए गर्व का स्रोत है।
1965 के युद्ध का पृष्ठभूमि
1965 का भारत-पाक युद्ध 5 अगस्त 1965 से 23 सितंबर 1965 तक चला, जब पाकिस्तान ने कश्मीर पर कब्जे के लिए ऑपरेशन जिब्राल्टर शुरू किया। यह युद्ध टैंकों और भारी तोपखाने के बीच लड़ा गया, जिसमें दोनों देशों की सेनाओं ने अपनी ताकत दिखाई। पाकिस्तान के पास अमेरिका से प्राप्त एम-48 पैटन टैंक थे, जो उस समय की सबसे उन्नत मशीनें मानी जाती थीं। इसके विपरीत, भारतीय सेना के पास पुराने सेंचुरियन और शेरमैन टैंक थे। लेकिन भारतीय सैनिकों का जज़्बा और रणनीति ने इस अंतर को पाट दिया। सियालकोट सेक्टर में हुई लड़ाइयों ने इस युद्ध को ऐतिहासिक बना दिया, और लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोर ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोर: प्रारंभिक जीवन
अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर का जन्म 18 अगस्त 1923 को मुंबई में एक पारसी परिवार में हुआ। उनके पिता, एक रेलवे अधिकारी, ने उन्हें अनुशासन और कर्तव्य की भावना सिखाई। तारापोर ने अपनी शिक्षा मुंबई और देहरादून में पूरी की और 1942 में भारतीय सेना में शामिल हुए। वे पूना हॉर्स रेजिमेंट (17 हॉर्स) का हिस्सा बने, जो बाद में उनके साहस का गवाह बना। उनकी सैन्य प्रशिक्षण और नेतृत्व क्षमता ने उन्हें युद्ध के मैदान में एक असाधारण कमांडर बनाया। यह प्रारंभिक जीवन उनकी शहादत की नींव बना।
सियालकोट सेक्टर: युद्ध की शुरुआत
11 सितंबर 1965 को भारतीय सेना ने सियालकोट सेक्टर में आक्रमण शुरू किया, जिसका लक्ष्य पाकिस्तानी रक्षा रेखा को तोड़ना और फिलोरा पर कब्जा करना था। लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोर को पूना हॉर्स रेजिमेंट की 17 हॉर्स का कमांडिंग ऑफिसर नियुक्त किया गया। उनके सामने चुनौती थी दुश्मन के पैटन टैंकों का सामना करना, जो संख्या और तकनीक में बेहतर थे। लेकिन तारापोर के साहस और रणनीति ने इस असमान लड़ाई को ऐतिहासिक बना दिया। यह युद्ध केवल टैंकों का टकराव नहीं था, बल्कि एक देशभक्त का अपने कर्तव्य के प्रति समर्पण था।
फिलोरा की लड़ाई: 60 टैंकों की कब्र
11 सितंबर को शुरू हुई फिलोरा की लड़ाई में लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोर ने अपनी रेजिमेंट को नेतृत्व दिया। उनके पास पुराने शेरमैन टैंक थे, लेकिन उनके जज़्बे ने दुश्मन को पस्त कर दिया। उन्होंने व्यक्तिगत रूप से मोर्चा संभाला और अपने टैंक से दुश्मन की रक्षा रेखा में सेंध मारी। इस लड़ाई में उन्होंने 60 से अधिक पैटन टैंकों को नष्ट किया, जो पाकिस्तान की रीढ़ थी। उनके साहस से प्रेरित होकर उनकी टुकड़ी ने दिन-रात लड़ाई लड़ी, और 13 सितंबर को फिलोरा पर कब्जा कर लिया। यह जीत भारतीय सेना के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ थी, और तारापोर का नाम इतिहास में दर्ज हो गया।
वजीराली पर विजय
फिलोरा की जीत के बाद तारापोर का अगला लक्ष्य वजीराली पर कब्जा करना था। 14 सितंबर को उन्होंने अपनी रेजिमेंट को फिर से मोर्चे पर उतारा। इस दौरान वे गंभीर रूप से घायल हो गए, लेकिन अपने सैनिकों को प्रेरित करते रहे। उनके नेतृत्व में भारतीय सेना ने वजीराली पर कब्जा कर लिया और तिरंगा लहराया। इस लड़ाई में उनके टैंक को कई हिट्स लगीं, और वे असहनीय दर्द के बावजूद मोर्चा संभाले रहे। उनका खून बहता रहा, लेकिन उनका जज़्बा अडिग था। यह विजय उनकी वीरता का प्रतीक बनी।
शहादत: 16 सितंबर का बलिदान
16 सितंबर 1965 को लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोर ने अपनी अंतिम सांस ली। वजीराली की लड़ाई में गंभीर घावों के बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी। उनके टैंक को दुश्मन की गोलीबारी से नष्ट कर दिया गया, और वे शहीद हो गए। उनकी शहादत ने पूरे देश को झकझोर दिया और सैनिकों में नया जोश भर दिया। उनकी बहादुरी के लिए उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया, जो भारत के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार है। यह बलिदान उनकी देशभक्ति का अमर प्रमाण है।
युद्ध का प्रभाव और तारापोर की विरासत
1965 का युद्ध भारत के लिए एक बड़ी जीत थी, और लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोर का योगदान इसमें महत्वपूर्ण था। उनकी रेजिमेंट ने दुश्मन के 60 टैंकों को नष्ट कर पाकिस्तान की रक्षा को कमजोर किया। इस युद्ध ने भारत की सैन्य शक्ति को साबित किया और तारापोर को एक राष्ट्रीय नायक बनाया। उनकी विरासत आज भी सैनिक अकादमियों और स्कूलों में प्रेरणा का स्रोत है। उनके नाम पर स्मारक और सड़कें बनाई गईं, जो उनके बलिदान को याद दिलाती हैं।
देशभक्ति का प्रतीक
तारापोर का जीवन देशभक्ति का प्रतीक है। उनके साहस ने दिखाया कि तकनीक से ज्यादा जज़्बा मायने रखता है। उनकी कहानी हर भारतीय को प्रेरित करती है कि कर्तव्य पथ पर चलते हुए हर बाधा को पार किया जा सकता है। उनके परिवार ने भी उनका गर्व बांटा, और उनकी शहादत को राष्ट्र के लिए समर्पण का उदाहरण माना गया।
हर साल 16 सितंबर को लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोर की शहादत को याद किया जाता है। सेना के कार्यक्रमों में उनकी वीरता को सलाम किया जाता है, और स्कूलों में उनके जीवन पर चर्चा होती है। यह दिन युवाओं को साहस और बलिदान की सीख देता है, जो उनकी अमरता को दर्शाता है।
1965 के भारत-पाक युद्ध में लेफ्टिनेंट कर्नल ए. बी. तारापोर ने असहनीय दर्द और बहते खून के बीच पाकिस्तान में 60 टैंकों की कब्र खोद दी। उनका बलिदान और जज़्बा कश्मीर एकीकरण और हिंदू गौरव की तरह भारत की एकता का प्रतीक है। उनकी याद में हम उनके मार्ग पर चलने का संकल्प लेते हैं। जय हिंद!