हिंदू धर्म में भक्ति की कई कहानियाँ हैं, लेकिन कन्नप्पा नयनार की गाथा अपने आप में अनोखी है। वे एक शिकारी से संत बने भक्त थे, जिन्होंने भगवान शिव के प्रति अपने समर्पण को साबित करने के लिए अपनी आँखें तक अर्पित कर दीं। 6वीं-7वीं सदी के इस महान शिवभक्त की कहानी न केवल आस्था का प्रतीक है, बल्कि हिंदू संस्कृति की गहराई को भी दर्शाती है।
उनकी भक्ति इतनी दुर्लभ और प्रेरणादायक है कि यह इतिहास में कम ही देखने को मिलती है। कन्नप्पा नयनार ने अपने बलिदान से साबित किया कि सच्ची श्रद्धा किसी भी सीमा को लाँघ सकती है, और यही कारण है कि वे हिंदू हृदय में आज भी जीवित हैं।
शुरुआती जीवन: शिकारी से भक्त तक का सफर
कन्नप्पा नयनार का जन्म दक्षिण भारत के आंध्र प्रदेश क्षेत्र में हुआ, जहाँ वे मूल रूप से एक कुट्टू नामक शिकारी थे। उनका असली नाम तिन्नन था, और वे कालिंगा वंश से संबंधित थे। उनका जीवन जंगलों में शिकार और प्राकृतिक जीवन से भरा था, लेकिन उनके भीतर एक गहरी आध्यात्मिकता छिपी थी। कहानी के अनुसार, एक दिन वे जंगल में शिकार के दौरान श्रीकालहस्ती के शिवलिंग के पास पहुँचे। वहाँ उन्होंने देखा कि शिवलिंग से खून बह रहा है, जो उन्हें अंदर तक हिला गया। इस घटना ने उनके मन में भगवान शिव के प्रति प्रेम जगा दिया, और वे एक साधारण शिकारी से भक्त बन गए।
उनका जीवन कठिनाइयों से भरा था, लेकिन उनकी सरलता और निष्ठा ने उन्हें शिव की कृपा का पात्र बनाया। वे अपने शिकार से प्राप्त मांस और पानी को शिवलिंग को चढ़ाते थे, जो उनकी भक्ति का पहला कदम था। यहाँ तक कि वे अपने पैरों से शिवलिंग को धोते थे, क्योंकि उनके पास कोई अन्य साधन नहीं था। उनकी यह अटूट श्रद्धा धीरे-धीरे उन्हें एक महान संत की ओर ले गई।
भक्ति का चमत्कार: आँखों का बलिदान
कन्नप्पा नयनार की सबसे प्रसिद्ध कहानी तब शुरू होती है जब उन्होंने शिवलिंग पर खून बहते देखा। उन्होंने सोचा कि कोई शत्रु शिव को नुकसान पहुँचा रहा है। अपनी तलवार से वे जंगल में शत्रु की तलाश में निकले, लेकिन जब उन्हें कोई नहीं मिला, तो उन्होंने अपने हृदय को परखने का फैसला किया। उन्होंने अपनी एक आँख निकालकर शिवलिंग पर चढ़ा दी, क्योंकि वे मानते थे कि यह उनके प्रभु की रक्षा का एकमात्र तरीका है। चमत्कारिक रूप से खून रुक गया, लेकिन थोड़ी देर बाद फिर से बहने लगा।
इस बार कन्नप्पा ने अपनी दूसरी आँख निकालने के लिए कदम बढ़ाया, वातावरण में एक अलौकिक प्रकाश फैल गया, मानो शिव की कृपा स्वयं उतर आई हो। उनके समर्पण ने जंगल को पवित्र कर दिया और स्थानीय लोग इसे एक चमत्कार के रूप में याद करते हैं, जहाँ उनकी भक्ति ने हिंदू धर्म की शक्ति को सिद्ध किया। यह क्षण सनातन अस्मिता का प्रतीक बन गया, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व
कन्नप्पा नयनार की कहानी तमिल साहित्य और 63 नायनार संतों की परंपरा में विशेष स्थान रखती है। उनकी कथा “पेरिया पुराणम” में विस्तार से लिखी गई है, जो उनकी भक्ति और समर्पण को अमर करती है। वे उन लोगों के लिए प्रेरणा हैं, जो मानते हैं कि भक्ति का रास्ता जन्म या जाति से नहीं, बल्कि हृदय से तय होता है। उनके बलिदान ने हिंदू धर्म में यह संदेश दिया कि सच्चा प्रेम और श्रद्धा किसी भी बाधा को पार कर सकती है।
उनकी पूजा आज भी श्रीकालहस्ती मंदिर में होती है, जहाँ उनकी मूर्ति स्थापित है। यह मंदिर भक्तों के लिए तीर्थस्थल बन गया है, जहाँ लोग उनकी भक्ति से प्रेरणा लेते हैं। उनकी कहानी हमें सिखाती है कि सनातन धर्म में हर व्यक्ति को भगवान के करीब आने का अवसर है, चाहे उसका पेशा या जीवनशैली कुछ भी हो।
चुनौतियाँ और विरोध
कन्नप्पा नयनार का सफर आसान नहीं था। उनके शिकारी जीवन और कुछ लोगों ने पवित्रता के खिलाफ माना। लेकिन उनकी निष्ठा और शिव की कृपा ने इन आलोचनाओं को खारिज कर दिया। यह दर्शाता है कि हिंदू धर्म में भक्ति का मापदंड कर्मकांड नहीं, बल्कि हृदय की शुद्धता है। उनकी कहानी उन लोगों के लिए एक करारा जवाब है जो धर्म को संकीर्ण नियमों में बाँधना चाहते हैं।
विरासत और प्रभाव
कन्नप्पा नयनार की मृत्यु के बाद भी उनकी भक्ति की गाथाएँ तमिलनाडु और दक्षिण भारत में गाई जाती हैं। उनकी कहानी लोकगीतों, नाटकों, और धार्मिक कथाओं में जीवित है। वे उन संतों में से हैं जिन्होंने साबित किया कि भक्ति का रास्ता हर किसी के लिए खुला है। उनकी वीरता—अपनी आँखों का त्याग—हिंदू संस्कृति में एक ऐसा प्रतीक बन गई है, जो पीढ़ियों को प्रेरित करता है।
भक्ति की अनुपम मिसाल
कन्नप्पा नयनार की कहानी हमें सिखाती है कि सच्ची भक्ति में कोई सीमा नहीं होती। एक शिकारी से संत बने इस भक्त ने अपनी आँखें अर्पित कर शिवलिंग की रक्षा की, और यह बलिदान इतिहास में दुर्लभ है। उनकी श्रद्धा ने न केवल उन्हें अमर कर दिया, बल्कि हिंदू गौरव को भी नई ऊँचाई दी। उनकी याद हमें प्रेरित करती है कि असली समर्पण हृदय से निकलता है, और यही सनातन धर्म की आत्मा है।