जब भी भारत के वीरों की बात होती है, तो उत्तर की धरती पर जन्मे एक ऐसे महान योद्धा का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाता है जिसने न केवल अपने साहस से, बल्कि अपने न्यायप्रिय और दूरदर्शी शासन से भी इतिहास रचा। वह थे — महाराजा रणजीत सिंह, जिन्हें इतिहास में “शेर-ए-पंजाब” कहा गया। उनका जन्म 13 नवंबर 1780 को गुजरांवाला (अब पाकिस्तान में) में हुआ था। 18वीं सदी का वह दौर था जब भारत पर आक्रमणों और आंतरिक कलह की गहरी छाया थी। मुग़ल साम्राज्य का पतन हो चुका था, अफ़ग़ान और मराठे सत्ता के लिए संघर्ष कर रहे थे, और पंजाब छोटे-छोटे मिसलों (सिख संघों) में बंटा हुआ था। ऐसे समय में, एक युवक उठा जिसने पंजाब को एकजुट किया और एक शक्तिशाली सिख साम्राज्य की स्थापना की। महाराजा रणजीत सिंह ने न केवल पंजाब को अफगान आक्रांताओं से मुक्त कराया, बल्कि लाहौर, अमृतसर, पेशावर, मुल्तान, और कश्मीर तक अपनी विजय पताका फहराई। उनकी सेना आधुनिक हथियारों से सुसज्जित थी, और उनका शासन धर्मनिरपेक्ष, न्यायपूर्ण और प्रजाहितकारी था।
प्रारंभिक जीवन — कठिन परिस्थितियों में जन्मा एक वीर
महाराजा रणजीत सिंह का जन्म सुक्करचकिया मिसल के सरदार महां सिंह और माता राज कौर के घर हुआ। जब वे मात्र पाँच वर्ष के थे, तो चेचक की बीमारी से उनका चेहरा स्थायी रूप से प्रभावित हो गया और एक आँख की दृष्टि चली गई। लेकिन इस कमजोरी ने उनके साहस और नेतृत्व को कभी नहीं रोका। बाल्यकाल से ही रणजीत सिंह में अद्भुत नेतृत्व क्षमता और सैन्य कौशल दिखाई देने लगा। 12 वर्ष की उम्र में उन्होंने अपना पहला युद्ध लड़ा और विजय प्राप्त की। उनके पिता महां सिंह की मृत्यु के बाद, मात्र 12 वर्ष की आयु में ही वे सुक्करचकिया मिसल के नेता बन गए। रणजीत सिंह ने अपनी माँ के मार्गदर्शन में युद्धनीति, राजनीति और धर्म की गहन समझ प्राप्त की। उनकी शिक्षा औपचारिक नहीं थी, परंतु अनुभव और बुद्धिमत्ता में वे उस युग के किसी भी शासक से कम नहीं थे।
सिख साम्राज्य की नींव — पंजाब को एक सूत्र में पिरोना
18वीं सदी के उत्तरार्ध में पंजाब में 12 प्रमुख सिख मिसलें (संघ) थीं। हर मिसल का अपना स्वतंत्र क्षेत्र और सेना थी। इनकी आपसी असंगति के कारण बाहरी आक्रमणकारी पंजाब को बार-बार लूटते थे। रणजीत सिंह ने इस विभाजन को समाप्त करने का संकल्प लिया। 1799 में, उन्होंने अपनी सेना के साथ लाहौर पर चढ़ाई की, जहाँ हशमत खां नामक अफ़ग़ान शासक का शासन था। रणजीत सिंह ने बड़ी रणनीति से लाहौर को घेर लिया और निर्णायक युद्ध में हशमत खां को पराजित कर दिया। लाहौर पर विजय प्राप्त करने के बाद उन्होंने वहीं की प्रजा की इच्छा से शासन संभाला — और यहीं से सिख साम्राज्य की स्थापना हुई। लाहौर को उन्होंने अपना राजधानी बनाया, और जल्द ही उनकी शक्ति का विस्तार पूरे पंजाब में फैल गया।
लाहौर विजय — रणनीति, साहस और धर्मनिष्ठा का संगम
लाहौर की विजय केवल एक युद्ध नहीं, बल्कि पंजाब की आत्मा की पुनर्स्थापना थी। अफ़ग़ान शासन के अधीन पंजाब में अत्याचार और अस्थिरता का माहौल था। रणजीत सिंह ने अपने युद्ध कौशल, रणनीति और संगठन शक्ति के बल पर यह विजय प्राप्त की। उनकी सेना में न केवल सिख, बल्कि हिंदू और मुसलमान सैनिक भी शामिल थे। उन्होंने किसी भी धर्म या जाति के आधार पर भेदभाव नहीं किया। उनका आदेश स्पष्ट था — “जो भारत माता का सपूत है, वह मेरा भाई है; धर्म उसका आभूषण है, विभाजन नहीं।” 1799 की यह विजय उनके जीवन की दिशा तय कर गई। उन्होंने लाहौर को सिख गौरव का प्रतीक बना दिया और अफगानों को पंजाब की सीमा से बाहर खदेड़ दिया।
महाराजा का राज्याभिषेक और शासन व्यवस्था
12 अप्रैल 1801 को अमृतसर के हरमंदिर साहिब में रणजीत सिंह का राज्याभिषेक किया गया। यह दिन पंजाब के इतिहास का स्वर्णिम अध्याय बन गया। वे “महाराजा रणजीत सिंह बहादुर” कहलाए। उन्होंने “खालसा राज” की स्थापना की, जहाँ न्याय, समानता और सेवा सर्वोच्च थे। उनकी मुद्रा पर “अकाल सहाय” अंकित किया गया। महाराजा ने अपने शासन में प्रशासनिक एकता, आर्थिक सुधार और सैन्य आधुनिकीकरण को प्राथमिकता दी। उन्होंने यूरोपीय सेनानायकों — फ्रांसीसी जनरल वेंटुरा, इतालवी एवेरी और ब्रिटिश एलीसन को सेना प्रशिक्षण हेतु बुलाया। उनकी सेना भारत की पहली ऐसी संगठित सेना थी जिसमें घुड़सवार, तोपखाना और पैदल सेना आधुनिक हथियारों से लैस थे।
धर्मनिरपेक्षता और समानता — महाराजा की नीति
महाराजा रणजीत सिंह का शासन इस बात का जीवंत उदाहरण है कि भारत की आत्मा धर्म में नहीं, बल्कि मानवता में बसती है। उन्होंने कभी किसी धर्म को विशेषाधिकार नहीं दिया। उनके दरबार में मुसलमान, हिंदू और सिख अधिकारी समान रूप से सम्मानित थे। उनके वित्त मंत्री हिंदू थे, सेनाध्यक्ष सिख और खुफिया प्रमुख मुसलमान। उन्होंने मस्जिदों, मंदिरों और गुरुद्वारों को समान संरक्षण दिया। स्वर्ण मंदिर का स्वर्ण मंडप भी उन्हीं के काल में मढ़वाया गया। वे कहते थे — “ईश्वर एक है, पर उसके मार्ग अनेक हैं।”
रणनीतिक दृष्टि — अफगानों और अंग्रेज़ों के बीच संतुलन
रणजीत सिंह एक दूरदर्शी शासक थे। उन्होंने समझ लिया था कि अंग्रेज़ भारत में अपना प्रभाव बढ़ा रहे हैं। इसलिए उन्होंने अपनी विदेश नीति अत्यंत संतुलित रखी। उन्होंने अफ़ग़ानों को उत्तर-पश्चिम से खदेड़कर सीमाएँ सुरक्षित कीं और अंग्रेज़ों के साथ अमृतसर संधि (1809) की। इस संधि ने पंजाब को चार दशकों तक सुरक्षित रखा।
कश्मीर, पेशावर और मुल्तान की विजय
महाराजा रणजीत सिंह का साम्राज्य निरंतर विस्तार करता गया।
1819 में — कश्मीर विजय
1820 में — मुल्तान विजय
1823 में — पेशावर विजय
कश्मीर की विजय के बाद उन्होंने वहाँ न्यायपूर्ण कर नीति लागू की, मंदिरों का पुनर्निर्माण कराया और जनता में सुरक्षा का भाव पैदा किया।
शासन का स्वर्ण युग — न्याय, धर्म और समृद्धि
रणजीत सिंह का शासन भारत के इतिहास का स्वर्ण युग कहा जाता है। उनके समय में पंजाब समृद्ध, सुरक्षित और संगठित था। अपराध लगभग समाप्त थे। उन्होंने किसानों के कर घटाए, सिंचाई सुधार की, व्यापार बढ़ाया और सड़कों का विकास किया। उनका दरबार कला, संस्कृति और साहित्य का केंद्र था। वे कहते थे — “राज वही टिकता है जहाँ धर्म और न्याय का वास हो।”
व्यक्तित्व और नेतृत्व शैली
महाराजा रणजीत सिंह चेचक के निशानों और एक आँख से भले अंधे थे, पर उनका व्यक्तित्व सिंह जैसा तेजस्वी था। वे विलासिता से दूर रहते, न मांस खाते, न शराब। सादगी उनका आभूषण थी। वे सैनिकों के साथ भोजन करते, जनता की समस्याएँ सुनते और अपनी सेना को परिवार मानते थे।
महिलाओं और धर्मस्थलों के प्रति सम्मान
महाराजा महिलाओं के सम्मान को सर्वोच्च मानते थे। उन्होंने स्त्री उत्पीड़न, बलात्कार और जबरन विवाह पर कठोर दंड निर्धारित किए। उन्होंने काशी विश्वनाथ मंदिर, गुरुद्वारों और मस्जिदों की मरम्मत व सेवाओं के लिए दान भेजा। उनका शासन पूर्ण न्याय और धार्मिक समरसता का उदाहरण था।
मृत्यु और विरासत
27 जून 1839 को महाराजा रणजीत सिंह ने लाहौर में देह त्याग दी। पूरा पंजाब शोक में डूब गया। उनकी समाधि आज भी लाहौर में स्थित है। उनके बाद का शासन अस्थिर रहा, लेकिन उनकी छवि आज भी सिख गौरव और भारतीय स्वाभिमान की प्रेरणा है। भारत सरकार ने उनकी स्मृति में डाक टिकट और कई स्मारक जारी किए।
निष्कर्ष — शेर-ए-पंजाब की अमर गाथा
महाराजा रणजीत सिंह केवल एक योद्धा नहीं, बल्कि एक युग निर्माता थे। उन्होंने पंजाब को एकता दी, न्याय दिया, धर्मनिरपेक्षता दी और भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाई। उनकी कहानी आज भी प्रेरित करती है कि जब साहस, धर्म और राष्ट्रभक्ति एक साथ खड़े होते हैं, तो कोई भी शक्ति भारत को झुका नहीं सकती।
शेर-ए-पंजाब अमर रहें। जय महाराजा रणजीत सिंह। जय भारत।
