महाराजा रणजीत सिंह: शेर-ए-पंजाब, जिन्होंने 13 की उम्र में हशमत खाँ को हराया और पंजाब का गौरव बढ़ाया

27 जून को हम उस महावीर को नमन करते हैं, जिन्होंने पंजाब की धरती को अजेय बनाया और सनातन संस्कृति की शान बढ़ाई। महाराजा रणजीत सिंह, जिन्हें शेर-ए-पंजाब कहा जाता है, ने मात्र 13 साल की उम्र में हशमत खाँ जैसे दुश्मन को धूल चटाई और पेशावर तक सिख साम्राज्य का परचम लहराया। उनकी पुण्यतिथि पर उनकी गाथा हर हिंदुस्तानी के दिल में गर्व जगाती है।

चेचक की बीमारी, एक आँख खोना, और बचपन में पिता की मृत्यु जैसे कठिन हालातों को हराकर उन्होंने पंजाब को एक शक्तिशाली साम्राज्य बनाया। हरमंदिर साहिब को स्वर्णिम चमक देकर और प्रजा की रक्षा करके उन्होंने सिख और हिंदू गौरव को अमर किया। यह लेख उनकी वीरता, उदारता, और पंजाब के स्वर्णिम इतिहास को श्रद्धांजलि है।

शुरुआती जीवन: नन्हा योद्धा

महाराजा रणजीत सिंह का जन्म 13 नवंबर 1780 को पंजाब के गुजराँवाला में हुआ। उनके पिता महा सिंह सुकरचकिया मिसल के मुखिया थे, और माँ राज कौर ने उन्हें वीरता की कहानियाँ सुनाकर देशभक्ति सिखाई। बचपन में रणजीत सिंह चेचक की बीमारी से जूझे, जिसके चलते उनकी बायीं आँख की रोशनी चली गई। लेकिन इस कमजोरी को उन्होंने कभी रास्ते में नहीं आने दिया। 10 साल की उम्र में ही वे घुड़सवारी, तलवारबाज़ी और युद्ध कौशल में माहिर हो गए। अपने पिता के साथ सैन्य अभियानों में जाकर उन्होंने युद्ध की बारीकियाँ सीखीं।

12 साल की उम्र में 1792 में पिता की मृत्यु के बाद नन्हे रणजीत सिंह को सुकरचकिया मिसल का सरदार बनाया गया। खेलने-कूदने की उम्र में इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी संभालना आसान नहीं था, लेकिन रणजीत सिंह ने हिम्मत और बुद्धिमानी से मिसल को मज़बूत किया। 13 साल की उम्र में जब हशमत खाँ ने उन पर जानलेवा हमला किया, तो किशोर रणजीत ने तलवार उठाकर उसे मार गिराया। इस वीरता ने उन्हें “शेर-ए-पंजाब” की उपाधि दिलाई।

पंजाब का एकीकरण: शेर की दहाड़

रणजीत सिंह ने 1799 में 19 साल की उम्र में लाहौर पर कब्ज़ा किया और 1801 में खुद को महाराजा घोषित किया। उन्होंने पंजाब की बिखरी हुई मिसलों को एकजुट कर एक शक्तिशाली सिख साम्राज्य बनाया। उनकी सेना, खालसा फौज, में हिंदू, सिख और मुस्लिम सैनिक शामिल थे, जो उनकी उदारता और समावेशी सोच को दिखाता है। 1818 में उन्होंने मुल्तान और 1819 में कश्मीर पर विजय हासिल की। 1834 में पेशावर को जीतकर उन्होंने सिख साम्राज्य को उत्तर-पश्चिमी भारत तक फैलाया, जो अफगान आक्रमणकारियों के लिए चुनौती बन गया।

रणजीत सिंह की रणनीति और युद्ध कौशल बेजोड़ थे। उनकी खालसा फौज में आधुनिक तोपें और प्रशिक्षित सैनिक थे, जिन्हें उन्होंने यूरोपीय सैन्य तकनीकों से मज़बूत किया। फिर भी, वे ज़मीन पर अपने सैनिकों के साथ बैठते और उनकी बात सुनते थे। उनकी सादगी और प्रजा के प्रति प्रेम ने उन्हें हर दिल में जगह दी।

सनातन संस्कृति की रक्षा: हरमंदिर साहिब का स्वर्णिम युग

महाराजा रणजीत सिंह ने सनातन और सिख संस्कृति को बढ़ावा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने अमृतसर के हरमंदिर साहिब (गोल्डन टेम्पल) का जीर्णोद्धार करवाया और इसे सोने की परतों से सजवाया, जिससे यह सिख धर्म का सबसे पवित्र प्रतीक बना। मंदिरों और गुरुद्वारों की रक्षा के लिए उन्होंने खुलकर दान दिया। उनकी उदारता ऐसी थी कि उन्होंने सभी धर्मों के लोगों को सम्मान दिया, लेकिन सनातन धर्म और सिख परंपराओं को हमेशा प्राथमिकता दी।

रणजीत सिंह ने अपने शासन में किसी को मृत्युदंड नहीं दिया, जो उनकी दयालुता को दिखाता है। जीते हुए राज्यों के शासकों को जागीर देकर उन्होंने दुश्मनों को भी सम्मान दिया। उनकी प्रजा की आर्थिक समृद्धि और सुरक्षा उनका धर्म था। उनके शासन में पंजाब इतना शक्तिशाली था कि कोई आक्रमणकारी उनकी ओर आँख उठाने की हिम्मत नहीं करता था।

हशमत खाँ से युद्ध: 13 साल के शेर की वीरता

13 साल की उम्र में रणजीत सिंह ने जो वीरता दिखाई, वह उनकी गाथा का सबसे चमकदार हिस्सा है। 1793 में हशमत खाँ ने उनके काफिले पर हमला किया, लेकिन नन्हे रणजीत ने न डरते हुए तलवार उठाई और उसे मार गिराया। यह घटना उनकी निर्भीकता का प्रतीक बन गई। चेचक से एक आँख खोने, पिता की मृत्यु और हमले जैसे कठिन हालातों ने उन्हें फौलाद की तरह मज़बूत बनाया। इस जीत ने सिख मिसलों में उनके नाम को अमर कर दिया।

उदार शासक और व्यक्तिगत जीवन

16 साल की उम्र में रणजीत सिंह का विवाह महताब कौर से हुआ। उनकी सास सदा कौर ने उन्हें सैन्य और राजनैतिक सलाह दी। हालाँकि, 1796 में रामगढ़िया मिसल के खिलाफ युद्ध में वे सफल नहीं हुए, लेकिन इस हार ने उन्हें और मज़बूत किया। रणजीत सिंह अपने दरबारियों के साथ ज़मीन पर बैठते थे और प्रजा की समस्याएँ सुनते थे। उनकी न्यायप्रियता और सादगी ने उन्हें एक आदर्श शासक बनाया।

उनके शासन के 40 साल (1799-1839) में पंजाब ने समृद्धि और शक्ति की ऊँचाइयाँ देखीं। उन्होंने शिक्षा, व्यापार और बुनियादी ढाँचे को बढ़ावा दिया। उनकी सेना में फ्रांसीसी और इतालवी सैन्य विशेषज्ञों को शामिल कर उन्होंने खालसा फौज को आधुनिक बनाया।

कुछ वामपंथी इतिहासकार रणजीत सिंह की गाथा को सिर्फ़ क्षेत्रीय शासक की कहानी बताकर छोटा करते हैं। वे उनके सनातन संस्कृति और सिख धर्म के लिए योगदान को नज़रअंदाज़ करते हैं। लेकिन हिंदू और सिख समाज जानता है कि रणजीत सिंह ने औरंगज़ेब जैसे कट्टर शासकों के वारिसों को चुनौती दी और पंजाब को अजेय बनाया। सोशल मीडिया पर लोग लिखते हैं कि रणजीत सिंह शेर-ए-हिंदुस्तान थे, जिन्होंने सनातन और सिख गौरव को नई ऊँचाइयाँ दीं। उनकी पुण्यतिथि पर यह चुप्पी वामपंथी सेक्युलरिज़्म की नाकामी दिखाती है।

27 जून 1839 को महाराजा रणजीत सिंह इस दुनिया से चले गए, लेकिन उनकी वीरता और पंजाब का गौरव आज भी ज़िंदा है। 13 साल की उम्र में हशमत खाँ को हराने वाला नन्हा शेर बड़ा होकर पंजाब का परचम लहराने वाला महाराजा बना। हरमंदिर साहिब को स्वर्णिम चमक देकर और पेशावर तक सिख साम्राज्य को फैलाकर उन्होंने हिंदुस्तान के इतिहास में सुनहरा अध्याय लिखा। उनकी उदारता, न्यायप्रियता और सनातन संस्कृति की रक्षा की गाथा हर भारतीय को प्रेरित करती है।

आज उनकी पुण्यतिथि पर हम शेर-ए-पंजाब को नमन करते हैं और संकल्प लेते हैं कि उनकी यशगाथा को हमेशा अमर रखेंगे। महाराजा रणजीत सिंह अमर रहें, पंजाब का गौरव अमर रहे!

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