नेताजी की आज़ाद हिन्द फ़ौज के पहले शहीद मेजर दुर्गा मल्ल, जिनका बलिदान आज़ादी की नींव बना

मेवाड़ के राणा प्रताप और लेफ्टिनेंट नवदीप सिंह की तरह, भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एक और नाम अमर है—मेजर दुर्गा मल्ल। वे वह वीर योद्धा थे, जिन्होंने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिन्द फ़ौज के पहले शहीद बनकर आज़ादी की नींव रखी। उनकी कहानी हिंदू शौर्य और देशभक्ति की एक ऐसी मिसाल है, जो हर भारतीय के दिल में गर्व और प्रेरणा का संचार करती है। यह लेख उनके जीवन, बलिदान, और उनकी अमर गाथा को सामने लाएगा, जो हल्दीघाटी की तरह ही स्वतंत्रता की धरती पर अंकित है।

जन्म और परवरिश: देशभक्ति की जड़ें

मेजर दुर्गा मल्ल का जन्म 1 जुलाई 1913 को उत्तराखंड के देहरादून जिले के डोईवाला गाँव में हुआ था। उनके पिता, गंगा राम मल्ल, गोरखा राइफल्स में नायब सूबेदार थे, और उनकी माँ, परवती देवी, एक साधारण गृहणी थीं। दुर्गा मल्ल चार भाइयों और तीन बहनों में सबसे बड़े थे। उनके परिवार की जड़ें 18वीं सदी से डोईवाला में थीं, जहाँ खेती और सैन्य सेवा उनकी परंपरा थी। बचपन से ही दुर्गा में एक अलग चमक थी—वे खेल, खासकर फुटबॉल, में माहिर थे और पढ़ाई में अव्वल रहते थे।

उनकी शिक्षा गोरखा मिलिट्री मिडिल स्कूल, देहरादून से शुरू हुई। वे रोजाना 8-9 मील पैदल चलकर स्कूल जाते थे, लेकिन थकान के बावजूद पढ़ाई में कभी कोताही नहीं बरती। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, महज 14-15 साल की उम्र में वे ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों में कूद पड़े। वे रात में गोरखा रेजीमेंट के क्वार्टरों में आज़ादी समर्थक पोस्टर चिपकाते थे और प्रदर्शनों में हिस्सा लेते थे। यह देशभक्ति की वह जड़ थी, जो उन्हें भविष्य में एक महान शहीद बनाएगी।

शौर्य का आरंभ: गोरखा राइफल्स से आज़ाद हिन्द फ़ौज तक

1931 में, 18 साल की उम्र में, दुर्गा मल्ल ने गोरखा राइफल्स की 2/1 बटालियन में भर्ती होकर सैन्य जीवन शुरू किया। उनकी मेहनत और बुद्धिमत्ता ने उन्हें जल्दी ही सिग्नल हवलदार के पद तक पहुँचाया। 1941 में, दूसरी विश्व युद्ध के दौरान, उनकी बटालियन मलाया भेजी गई। जब जापानी सेना ने ब्रिटिश बलों को हराया और भारतीय सैनिकों को युद्धबंदी बनाया, तो दुर्गा मल्ल ने एक बड़ा फैसला लिया—वे ब्रिटिश सेना छोड़कर आज़ाद हिन्द फ़ौज में शामिल हो गए।

1942 में, नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने आज़ाद हिन्द फ़ौज की स्थापना की, और दुर्गा मल्ल ने इसमें सक्रिय भूमिका निभाई। उन्हें initially सैनिकों की भर्ती का जिम्मा सौंपा गया, लेकिन उनकी वीरता और देशभक्ति ने उन्हें मेजर के पद तक पहुँचाया। वे गुप्तचर शाखा में शामिल हुए और रंगून में आज़ाद हिन्द फ़ौज के मुख्यालय को सूचनाएँ भेजते रहे, भले ही उन्हें आपूर्ति और हथियारों की कमी का सामना करना पड़ा। यह समय था जब उन्होंने अपने प्राणों को जोखिम में डालकर मेवाड़ के राणा प्रताप की तरह स्वतंत्रता की मशाल को जलाए रखा।

बलिदान का चरम: उखरूल में शहादत

27 मार्च 1944 को, मेजर दुर्गा मल्ल मणिपुर के उखरूल में गुप्त मिशन पर थे, जहाँ उन्होंने दुश्मन की गतिविधियों की जानकारी इकट्ठा की। इसी दौरान ब्रिटिश सैनिकों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। उन्हें दिल्ली के लाल किले में युद्धबंदी के रूप में रखा गया और सैन्य अदालत में मुकदमा चला। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें धारा 41 (भारतीय सेना कानून) और धारा 121 (भारतीय दंड संहिता) के तहत मौत की सजा सुनाई। 15 अगस्त 1944 को उन्हें दिल्ली सेंट्रल जेल लाया गया।

जेल में, ब्रिटिश अधिकारियों ने उनकी पत्नी, शारदा देवी, को अंतिम मुलाकात के लिए बुलाया, उम्मीद में कि वे अपनी सजा से बचने की भीख माँगेंगे। लेकिन दुर्गा मल्ल ने गीता का पाठ करते हुए कहा, “मैं माँ भारती की आज़ादी के लिए अपने प्राण दे रहा हूँ। दुखी मत हो, शारदा, करोड़ों हिंदुस्तानी तुम्हारे साथ हैं।” 25 अगस्त 1944 को, उन्होंने फाँसी के फंदे को गले में डाला और शहीद हो गए। उनकी शहादत ने आज़ाद हिन्द फ़ौज के पहले शहीद के रूप में उन्हें अमर बना दिया, और उनका बलिदान आज़ादी की नींव का आधार बना।

अमर गाथा और विरासत: देशभक्ति की मशाल

मेजर दुर्गा मल्ल का बलिदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक turning point था। उनकी शहादत ने भारतीय सैनिकों में ब्रिटिश शासन के खिलाफ बगावत की भावना जगा दी, जो 1946 की नौसैनिक विद्रोह का कारण बनी। उनकी वीरता ने यह साबित कर दिया कि हिंदू शौर्य और देशभक्ति कभी दब नहीं सकती। 17 जुलाई 2004 को, भारत सरकार ने उनकी स्मृति में संसद भवन में उनकी प्रतिमा स्थापित की, जो उनकी अमरता का प्रतीक है। हर साल 25 अगस्त को गोरखा समुदाय उनके बलिदान दिवस को मनाता है, जो उनकी विरासत को जीवित रखता है।

उनकी कहानी हमें सिखाती है कि स्वतंत्रता के लिए बलिदान देना ही सच्चा सम्मान है। उनकी पत्नी, शारदा देवी, और परिवार ने उनके बलिदान को गर्व से स्वीकार किया, जो हिंदू परिवारों की एकजुटता का उदाहरण है। मेजर दुर्गा मल्ल की मशाल आज भी जल रही है, जो हमें देशभक्ति और स्वाभिमान की राह दिखाती है।

शहीद को सलाम

हम मेजर दुर्गा मल्ल को नमन करते हैं, जिन्होंने नेताजी की आज़ाद हिन्द फ़ौज के पहले शहीद बनकर आज़ादी की नींव रखी। उनकी वीरता और बलिदान हिंदू गौरव का प्रतीक हैं। सुदर्शन परिवार इस वीर को सलाम करता है और उनके बलिदान को याद कर देशभक्ति का संकल्प दोहराता है। जय हिंद!

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