रेज़ांग ला: जहाँ धरती ने वीरता को जन्म दिया
18 नवंबर 1962… यह तारीख भारतीय इतिहास का वह अध्याय है जिसे पढ़कर आज भी रोमांच खड़ा हो जाता है। यह दिन केवल एक युद्ध की कहानी नहीं, बल्कि 124 भारतीय वीरों की उस अमर गाथा का स्मरण है जिसने पूरी दुनिया को दिखा दिया कि भारतीय सैनिक संख्या नहीं, साहस से युद्ध जीतते हैं। रेज़ांग ला की लड़ाई भारत–चीन युद्ध का सबसे महान और असाधारण अध्याय थी, जिसमें 13 कुमाऊँ रेजीमेंट की “सी कंपनी” ने इतिहास रच दिया। इनके कमांडर थे—परमवीर मेजर शैतान सिंह भाटी, एक ऐसे योद्धा, जिनका नाम भारतीय सेना की वीरता का पर्याय बन चुका है।
हाड़ जमा देने वाली ठंड में खड़ा भारत का शूरवीर
रेज़ांग ला—लद्दाख की वह बर्फीली घाटी जहाँ तापमान –30°C से नीचे चला जाता है। साँस लेना भी कठिन हो जाता है। दुश्मन सामने नहीं दिखता क्योंकि पूरा क्षेत्र बर्फ की सफेद चादर में छिपा रहता है। ऐसे कठोर वातावरण में चीन की सेना भारी हथियारों, मशीनगनों और कई हजार सैनिकों के साथ अचानक हमला करती है।
लेकिन भारत की ओर से खड़े थे— केवल 124 सैनिक, साधारण हथियारों के साथ, दुश्मन से घिरे हुए, लेकिन मन में अटूट संकल्प के साथ।
युद्ध से पहले मेजर शैतान सिंह के शब्द—आज भी गूंजते हैं
मेजर शैतान सिंह ने अपने सैनिकों को केवल एक ही बात कही—
“पीछे हटना नहीं है। चाहे आखिरी साँस तक लड़ना पड़े, पर धरती का यह टुकड़ा दुश्मन के हाथ नहीं जाना चाहिए।”
यही वाक्य आगे चलकर अमर बलिदान का मंत्र बन गया। जवानों की आँखों में विश्वास और चेहरे पर दृढ़ता थी। वे जानते थे कि यह लड़ाई आसान नहीं, लेकिन असंभव भी नहीं।
चीन की पहली लहर — भारतीय गोलियों की वर्षा
18 नवंबर की सुबह चीन ने तीन दिशाओं से हमला शुरू किया। पहली लहर में लगभग 300 चीनी सैनिक चढ़ाई करते हुए भारतीय पोस्टों की ओर बढ़े। लेकिन भारतीय बंदूकों की गर्जना ने उन्हें रोक दिया।
सिर्फ कुछ ही मिनटों में चीन की पहली टुकड़ी ढेर हो गई। दुश्मन को समझ आ गया कि सामने सामान्य सैनिक नहीं— हिंदुस्तान के शेर खड़े हैं।
दूसरी लहर — खून से लाल हुई बर्फ
गिरते तापमान और तेज हवाओं के बीच चीन की दूसरी लहर आई, इस बार लगभग 500 सैनिकों के साथ। वे मशीनगनें और मोर्टार लेकर आगे बढ़े। भारतीय जवान गोलियों की बौछार के साथ डटे रहे।
मेजर शैतान सिंह हर पोस्ट पर खुद पहुंचते— जवानों की हिम्मत बढ़ाते, रणनीति समझाते और खुद मशीनगन पर खड़े होकर गोलियाँ चलाते।
दूसरी लहर भी भारतीय शौर्य के आगे ढह गई। बर्फ का मैदान खून से लाल हो चुका था— लेकिन भारतीय मोर्चे एक इंच भी नहीं डोले।
तीसरी लहर — संख्या बनाम साहस का सबसे बड़ा युद्ध
चीन की तीसरी लहर सबसे भीषण थी— इस बार लगभग 600–700 सैनिक तीनों दिशाओं से भारतीय पोस्टों पर टूट पड़े।
भारतीय जवानों के पास गोलियाँ कम थीं, बंदूकें जम रही थीं, पर मनोबल लौह-दीवार की तरह खड़ा था। जब गोलियाँ कम पड़ने लगीं, जवानों ने पत्थरों से, बंकरों की रेत से और हाथों से मुकाबला किया। यह वह क्षण था जब दुनिया ने पहली बार देखा— साहस संख्या को हरा सकता है।
मेजर शैतान सिंह — शेरों का वह शेर
गोली लगने के बाद भी मेजर बोले— “मुझे मत हटाओ… मैं लड़ाई नहीं छोड़ सकता।” उनकी वर्दी खून से लाल थी, लेकिन उनका संकल्प हिमालय की चोटियों जैसा अडिग।
जवानों ने बार-बार कहा कि वे उन्हें पीछे ले जाएँ, लेकिन मेजर का आदेश था— “पहले लड़ाई, फिर मेरी चिंता।” उनके नेतृत्व ने 124 वीरों को अशक्य को शक्य करने का साहस दिया।
रेज़ांग ला की जंग — जब 124 जांबाज़ों ने असंभव को संभव बना दिया
बर्फ़ीली सुबह और मौत से भरा मोर्चा
रेज़ांग ला का युद्ध 18 नवंबर 1962 की वह सुबह थी जब बर्फ़ीली हवाओं, जमा देने वाली ठंड और शून्य से भी नीचे गिरती तापमान के बीच भारत की ‘सी’ कंपनी, जो केवल 124 सैनिकों की थी, ने 1,300 से अधिक चीनी सैनिकों का सामना किया। यह लड़ाई किसी साधारण युद्ध जैसी नहीं थी; यह साहस, कर्तव्य और देशभक्ति की चरम सीमा का प्रमाण थी। चारों ओर बर्फ, गोलियों की बारिश और चीनी सेना की लगातार बढ़ती टुकड़ियाँ — फिर भी ‘सी’ कंपनी पीछे हटने का नाम नहीं ले रही थी। उनकी आँखों में केवल एक ही लक्ष्य था — मातृभूमि की रक्षा।
कैप्टन शैतान सिंह — साहस का जीवित रूप
कैप्टन शैतान सिंह पूरी कंपनी की आत्मा की तरह युद्धक्षेत्र में घूम रहे थे। वे कभी मोर्चे पर पहुँचे जवानों की हिम्मत बढ़ाते, कभी घायल सैनिकों को संभालते, तो कभी मशीनगनों की पोज़ीशन खुद ठीक करवाते। गोला-बारूद कम था, संचार टूट चुका था, लेकिन उनका संकल्प अडिग था। चीनी सेना लहरों में हमला कर रही थी, पर हर लहर भारतीय वीरों से टकराकर टूट रही थी। भारतीय जवानों ने आखिरी सांस तक लड़ने की कसम खा ली थी और वे उसी कसम के साथ गोलियों और बर्फ़ के बीच डटे रहे।
दस गुना दुश्मन, सौ गुना साहस
चीनी सैनिकों का संख्या बल दस गुना था, पर भारतीय सैनिकों का साहस सौ गुना। कोई पीछे नहीं हट रहा था। कोई डर नहीं था। हर जवान एक दीवार की तरह लड़ रहा था — ऐसा लगता था मानो पूरा रेज़ांग ला देवभूमि बन गया हो, जहाँ हर सैनिक शिव की तरह वीरता का रूप लेकर खड़ा था। जब गोला-बारूद लगभग समाप्त हो गया, तब भी जवान आगे बढ़कर हाथों से, राइफल की बटों से और पत्थरों तक से लड़ते रहे।
नेतृत्व जो जीवन से भी ऊपर था
मेजर शैतान सिंह ने कई मोर्चों पर स्वयं जाकर नेतृत्व किया। वे बार-बार अपनी जान जोखिम में डालकर सैनिकों तक पहुँचते और उन्हें निर्देश देते रहे। एक निर्णायक क्षण में, जब चीनी गोलियों ने उन्हें घायल कर दिया, तब साथियों ने उन्हें सुरक्षित स्थान पर ले जाने की कोशिश की। लेकिन उन्होंने कहा कि उन्हें नीचे ले जाना पूरी टुकड़ी को खतरे में डाल देगा। उन्होंने साथियों को आदेश दिया कि वे उन्हें एक चट्टान के पीछे छोड़ दें और बाकी सैनिकों को बचाने के लिए वापस जाएँ। यह आदेश उस त्याग का प्रतीक था जो केवल वही व्यक्ति दे सकता है जिसके लिए देश सबसे ऊपर होता है।
वीरगति — जहाँ जवान खड़े-खड़े अमर हो गए
124 में से 114 सैनिक वहीं वीरगति को प्राप्त हुए। और शेष भी गंभीर रूप से घायल थे। लेकिन युद्धभूमि पर भारतीय सैनिकों की अंतिम स्थिति देखकर चीनी कमांडर खुद हैरान रह गए। भारतीय सेना के जवान गोलियों के बीच जहां खड़े थे, वहीं खड़े-खड़े शहीद हुए थे। उनकी उंगलियाँ ट्रिगर पर थीं और चेहरा दुश्मन की दिशा में। यह दृश्य आज भी दुनिया में दुर्लभ है — ऐसी शौर्य गाथा किसी भी सेना के इतिहास में बहुत कम मिलती है।
इतिहास में दर्ज अमर साहस
इस युद्ध का परिणाम भले ही रणनीतिक रूप से किसी मानचित्र पर न दिखे, लेकिन नैतिक और सैन्य इतिहास में इसकी गूंज आज भी सुनाई देती है। भारत ने दुनिया को दिखा दिया कि संख्या से नहीं, साहस से युद्ध जीते जाते हैं। रेज़ांग ला ने साबित कर दिया कि भारतीय सैनिक किसी भी परिस्थिति में पीछे नहीं हटते, चाहे सामने कितना भी बड़ा तूफ़ान क्यों न हो।
जब बर्फ पिघली और दुनिया स्तब्ध रह गई
युद्ध के बाद जब बर्फ पिघली और शहीद जवानों के शव मिले, तो दुनिया स्तब्ध रह गई। वे अपने हथियार पकड़े हुए थे, उसी मुद्रा में जैसे लड़ाई के दौरान खड़े थे। यह दृश्य मानव इतिहास की सबसे वीरतापूर्ण तस्वीरों में से एक है। और इस तस्वीर के केंद्र में था — मेजर शैतान सिंह का अटूट नेतृत्व।
परम वीर — जो युगों तक प्रेरणा देंगे
उनकी इसी अद्वितीय वीरता के लिए उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र, भारत का सर्वोच्च सैन्य सम्मान, प्रदान किया गया। उनका नाम आज भी भारतीय सेना की हर रेजिमेंट में गर्व से लिया जाता है। और रेज़ांग ला का यह युद्ध दुनिया के हर सैन्य इतिहास में सर्वोच्च बलिदान का प्रतीक बन चुका है।
