भारत के इतिहास में कुछ ऐसे क्षण हैं जो सिर्फ किताबों में दर्ज नहीं होते, बल्कि पीढ़ियों के दिलों पर हमेशा के लिए उकेर दिए जाते हैं। 1 दिसंबर का दिन ऐसा ही एक दिन है—एक ऐसी तारीख, जो साहस, बलिदान और अदम्य देशभक्ति की पहचान बन चुकी है। इस दिन हम याद करते हैं मेजर शैतान सिंह भाटी को, जिन्होंने 1962 के भारत-चीन युद्ध में रेज़ांग ला की जंग को अमर बना दिया। यह सिर्फ एक लड़ाई नहीं थी, बल्कि असम्भव परिस्थितियों में लड़ी गई एक ऐसी कहानी थी जहाँ शरीर टूट गया, खून बहता रहा—लेकिन हौसला नहीं टूटा।
आज भी भारत के सैनिकों की हर पीढ़ी यह कहानी सुनकर गर्व से भर जाती है कि कैसे एक मेजर, जिसका पेट फट चुका था, आँतें बाहर आ चुकी थीं, फिर भी आख़िरी सांस तक अपने देश, अपनी टुकड़ी, और अपनी मातृभूमि के सम्मान के लिए लड़ता रहा।
लद्दाख की जमा देने वाली घाटी, और सामने दुश्मन की उठती लहर
1962 का नवंबर-दिसंबर।
लद्दाख का रेज़ांग ला—17,000 फीट की ऊँचाई पर जमा देने वाली ठंड, जहाँ हवा इतनी पतली थी कि सांस लेना भी मुश्किल। तापमान माइनस 20 से नीचे। शरीर सुन्न, हथियार जम जाते, उंगलियाँ काम करना बंद कर देतीं।
लेकिन इसी बर्फ़ीली मृत्यु-भूमि में तैनात थे कुमाऊँ रेजिमेंट की ‘C’ कंपनी, जिसे कमांड कर रहे थे मेजर शैतान सिंह।
उनके सामने चीन की सेना थी—संख्या में दस गुना से भी ज़्यादा।
लेकिन भारतीय सैनिकों का मनोबल ऊँचा था, क्योंकि वे जानते थे कि उनका हर संघर्ष भारत की आख़िरी रक्षा पंक्ति था।
दुश्मनों का हमला—गोलियों की बारिश, और भारतीय सैनिकों की दीवार
1 दिसंबर की सुबह, जैसे ही धुंध हटनी शुरू हुई, पता चला कि चीन की सेना आगे बढ़ रही है। वे चारों तरफ़ से हमला करने की तैयारी में थे। भारी मशीनगनें, मोर्टार, और अंतहीन सैनिकों की भीड़—लेकिन भारतीय जवान अपने मोर्चे पर अडिग खड़े रहे।
लड़ाई शुरू होते ही चीन ने सबसे पहले मशीनगन पोस्ट को निशाना बनाया। गोलियाँ बरसती रहीं, पर भारतीय जवान पीछे नहीं हटे। हर जवान ने दुश्मन के दस-बीस सैनिक गिराए। कई मोर्चों पर तो हाथापाई की नौबत आ गई।
मेजर शैतान सिंह हर पोस्ट पर पहुँचकर सैनिकों का हौसला बढ़ाते रहे।
वे कहते—
“रेज़ांग ला से कोई पीछे नहीं हटेगा। यह मोर्चा भारत की इज़्ज़त है। हम इसे आख़िरी सांस तक बचाएँगे।”
जब मेजर का शरीर छलनी हो गया—और फिर भी वे लड़ते रहे
लड़ाई घंटों चलती रही। मेजर शैतान सिंह एक पोस्ट से दूसरी पोस्ट तक दौड़ते रहे, फायर का निर्देशन करते रहे, घायल सैनिकों को संभालते रहे। दुश्मन लगातार आगे बढ़ रहा था, लेकिन भारतीय सैनिक अपनी जगह से हिले बिना लड़ते रहे।
इसी दौरान एक मोर्चे पर भारी फायरिंग में मेजर शैतान सिंह गंभीर रूप से घायल हो गए।
एक गोली उनके पेट में लगी—घाव इतना गहरा कि उनका पेट फट गया, आँतें बाहर आने लगीं।
एक आम इंसान उस दर्द से चीख भी न पाए, सांस भी न ले पाए। लेकिन वे?
उन्होंने घाव पर अपनी बंदूक की पट्टी कस ली और फिर उठकर दुबारा गोलीबारी का निर्देशन करने लगे।
उनके साथी सैनिक लगातार कह रहे थे—
“साहब, आप पीछे हट जाइए!”
लेकिन मेजर ने साफ कहा—
“मैं किसी सैनिक की पीठ देखकर नहीं लड़ता। मैं सामने रहूँगा।”
अंतिम क्षण—जब शरीर हार रहा था, पर मन नहीं
खून लगातार बह रहा था। दर्द असहनीय था। लेकिन मेजर शैतान सिंह लड़ाई नहीं छोड़ना चाहते थे। वे बार-बार सैनिकों को निर्देश देते—
“मोरचा मत छोड़ना। एक इंच भी पीछे मत हटना।”
जैसे-जैसे उनके साथी गिरते गए, दुश्मन की लहरें कई पोस्ट पर कब्जा करने लगीं। लेकिन भारतीय सैनिकों ने एक-एक मोर्चा आख़िरी आदमी तक पकड़े रखा।
अंत में जब मेजर की हालत बिल्कुल खराब हो गई, उनके जवानों ने उन्हें पीछे ले जाने का फैसला किया। उन्हें एक बड़े पत्थर के पीछे लिटाया गया ताकि वे दुश्मन की नज़रों में न आएँ।
वहां, माइनस 20 की ठंड में, पेट बुरी तरह फटा हुआ, खून बहता हुआ—पर चेहरे पर अद्भुत शांति।
उन्होंने आख़िरी निर्देश दिए—
“मेरी चिंता मत करो। रेज़ांग ला मत छोड़ना… बस यही मेरे देश की जीत है।”
कुछ ही देर बाद, वे शहीद हो गए।
लड़ाई का अंत—123 में से 114 जवान वीरगति प्राप्त
रेज़ांग ला की यह लड़ाई सैन्य इतिहास की सबसे साहसी लड़ाइयों में गिनी जाती है।
कुल 123 भारतीय सैनिकों में से 114 शहीद हुए, लेकिन उन्होंने चीन के सैकड़ों सैनिक ढेर कर दिए।
यह ऐसी लड़ाई थी, जहाँ गिनती महत्त्वहीन थी—साहस ही सब कुछ था।
सालों बाद जब बर्फ पिघली—तो मिली एक अमर कहानी
कुछ महीने बाद जब बर्फ पिघली, खोज दल वहाँ पहुँचा।
उन्होंने देखा—
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सैनिक अपने हथियारों के साथ जमे हुए थे।
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कई जवान अपनी-अपनी पोस्ट पर मृत पाए गए, लेकिन ट्रिगर अब भी उनकी उँगलियों में अटका था।
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और मेजर शैतान सिंह—पत्थर के पीछे उसी मुद्रा में मिले, जहाँ उन्होंने आख़िरी आदेश दिया था।
उनका शरीर बताता था कि वे किस दर्द में भी लड़ते रहे थे।
उनका साहस बताता था कि भारत की मिट्टी कितने वीरों को जन्म देती है।
मेजर शैतान सिंह को मिला सर्वोच्च सम्मान
उनकी अदम्य वीरता के लिए उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया—भारत का सर्वोच्च सैन्य सम्मान।
आज भी भारतीय सेना उनकी गाथा नई पीढ़ियों को बताती है।
उनकी कहानी सिर्फ युद्ध की नहीं—बल्कि कर्तव्य, साहस, और देश के लिए अंतिम सांस तक लड़ने की भावना की कहानी है।
क्यों याद रखना ज़रूरी है 1 दिसंबर को?
क्योंकि यह हमें बताता है—
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कि भारत की सीमाएँ सिर्फ नक्शों से नहीं बनतीं।
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सैनिकों के रक्त से बनती हैं।
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कि वीरता दर्द से बड़ी होती है।
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और देश का सम्मान जीवन से भी बड़ा होता है।
मेजर शैतान सिंह इस बात का सबसे चमकता उदाहरण हैं।
