25 जून 2025 को कैप्टन मनोज पांडेय की 50वीं जयंती पर हम कारगिल के इस वीर को सलाम करते हैं। 1999 के कारगिल युद्ध में इस परमवीर चक्र विजेता ने खालूबार चोटी पर गजब का साहस दिखाया।
सिर्फ 24 साल की उम्र में गोली लगने के बाद भी खून बहते हुए वे रेंगकर पाकिस्तान का चौथा बंकर तोड़ने गए और देश के लिए अपनी जान दे दी। बटालिक के हीरो मनोज की कहानी हर भारतीय के दिल में देशभक्ति की लौ जलाती है। उनकी डायरी में लिखा – अगर कर्तव्य के रास्ते में मौत आए तो मैं उसे भी हरा दूंगा – उनके मजबूत इरादे को दिखाता है। यह लेख उनके जन्मदिन पर उनकी बहादुरी, बलिदान और सनातन संस्कृति से भरी देशभक्ति को श्रद्धांजलि है।
बचपन और सपने: परमवीर चक्र का जुनून
मनोज पांडेय का जन्म 25 जून 1975 को उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले के रूढ़ा गाँव में हुआ। उनके पिता गोपीचंद्र पांडेय छोटे व्यापारी थे और माँ मोहिनी पांडेय ने उन्हें वीरों की कहानियाँ सुनाकर देशभक्ति सिखाई। बचपन में मनोज को बांसुरी बजाना मुक्केबाजी और तंदुरुस्ती का शौक था। उन्होंने लखनऊ सैनिक स्कूल और रानी लक्ष्मी बाई स्कूल में पढ़ाई की जहाँ वे अनुशासित और नन्हा योद्धा बने।
12वीं के बाद इंजीनियरिंग या डॉक्टरी छोड़कर मनोज ने सेना को चुना। राष्ट्रीय रक्षा अकादमी के इंटरव्यू में पूछा गया कि आप सेना क्यों चुन रहे हैं। उनका जवाब था – परमवीर चक्र जीतने के लिए। यह सुनकर सभी हैरान हुए पर मनोज ने अपने सपने को हकीकत बनाया। 1995 में वे 1/11 गोरखा राइफल्स में अफसर बने। उनकी पहली पोस्टिंग श्रीनगर में हुई फिर दुनिया के सबसे मुश्किल युद्धक्षेत्र सियाचिन में।
कारगिल युद्ध: खालूबार की यादगार लड़ाई
1999 में पाकिस्तानी घुसपैठियों ने कारगिल की चोटियों पर कब्जा कर लिया। भारतीय सेना को ऑपरेशन विजय के तहत उन्हें भगाने का जिम्मा मिला। मनोज की बटालियन सियाचिन में तीन महीने की कठिन ड्यूटी के बाद लौट रही थी तभी उन्हें कारगिल भेजा गया। खालूबार चोटी 19350 फीट ऊँची बहुत जरूरी थी क्योंकि इसके पास पाकिस्तान का हेलीपैड था। इसे जीतना युद्ध का टर्निंग पॉइंट था।
2-3 जुलाई 1999 की रात मनोज की अल्फा कंपनी को कर्नल ललित राय के साथ खालूबार जीतने का आदेश मिला। पहले लगा कि वहाँ चार बंकर हैं पर मनोज ने बताया कि छह बंकर हैं। हर बंकर में दो मशीन गनें थीं। पाकिस्तानी सैनिकों ने भारी गोलीबारी शुरू की जिसमें रॉकेट लॉन्चर और मोर्टार भी थे। इलाका खतरनाक पहाड़ियों से भरा था।
बेमिसाल साहस: चौथा बंकर तोड़ा
मनोज ने अपनी टुकड़ी को दो हिस्सों में बांटा और खुद एक हिस्से की अगुआई की। जय महाकाली आयो गोरखाली चिल्लाते हुए वे गोलियों की परवाह न करते हुए आगे बढ़े। पहले बंकर पर ग्रेनेड फेंका और खुखरी से चार पाकिस्तानी सैनिकों को खत्म कर दिया। दूसरा और तीसरा बंकर भी उन्होंने ग्रेनेड और गोलियों से तोड़ा। इस दौरान उनके कंधे और घुटने में गोलियाँ लगीं और खून बह रहा था।
तीसरे बंकर के बाद मनोज बुरी तरह घायल थे। उनके साथी हवलदार भानु ने कहा कि साहब आप रुकें हम चौथा बंकर तोड़ देंगे। मनोज बोले कि यह मेरा फर्ज है मैं ही पूरा करूँगा। खून बहते हुए रेंगकर वे चौथे बंकर तक पहुँचे। ग्रेनेड फेंकने को खड़े हुए तभी पाकिस्तानी मशीन गन ने उनके माथे पर चार गोलियाँ मारीं। उनका हेलमेट टूट गया और सिर बुरी तरह जख्मी हुआ।
उनका ग्रेनेड बंकर में फटा और कई दुश्मन मरे। बाकी भागने लगे तो मनोज के आखिरी शब्द थे – ना छोड़नूं। उनके जवानों ने खुखरी से बचे दुश्मनों को खत्म किया। दूसरी तरफ हवलदार दीवान सिंह ने दो और बंकर तोड़े पर वे भी शहीद हो गए। सुबह खालूबार चोटी पर तिरंगा फहरा रहा था।
शहादत और परमवीर चक्र
3 जुलाई 1999 को 24 साल 7 दिन की उम्र में कैप्टन मनोज पांडेय शहीद हो गए। उनकी बहादुरी ने खालूबार की जीत पक्की की जिसने कारगिल युद्ध का रुख बदला। उनके साहस के लिए उन्हें शहादत के बाद परमवीर चक्र दिया गया। इस मिशन में कर्नल ललित राय भी घायल हुए और उन्हें वीर चक्र मिला।
मनोज की शहादत के बाद उनका शव लखनऊ लाया गया। उनके साथ उनकी ढाई साल की उम्र में खरीदी बांसुरी थी जो उनकी सांस्कृतिक जड़ों को दिखाती थी। उनकी डायरी में लिखा था कि कुछ लक्ष्य इतने बड़े होते हैं कि उन्हें न पाना भी सम्मान की बात है। उनकी याद में लखनऊ का उत्तर प्रदेश सैनिक स्कूल अब कैप्टन मनोज कुमार पांडेय यूपी सैनिक स्कूल कहलाता है।
सनातन संस्कृति और देशभक्ति की मिसाल
राइट विंग नजरिए से मनोज की कहानी सनातन संस्कृति की ताकत दिखाती है जो देश के लिए सब कुछ कुर्बान कर देती है। उनकी डायरी की पंक्ति – मैं मौत को भी हरा दूंगा – भगवद्गीता के कर्मयोग और फर्ज की भावना को दर्शाती है। आरएसएस और बीजेपी समर्थक उनकी शहादत को हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की मिसाल मानते हैं।
सोशल मीडिया पर एक यूजर ने लिखा कि मनोज पांडेय जैसे वीरों ने सनातन संस्कृति की रक्षा के लिए जान दी। यह हिंदुत्व की ताकत है। वामपंथी सोच जो सैनिकों के बलिदान को सिर्फ ड्यूटी कहती है मनोज की आध्यात्मिक प्रेरणा को नजरअंदाज करती है। उनका जय महाकाली युद्धघोष और गोरखा रेजिमेंट की परंपराएँ सनातन संस्कृति की गहरी जड़ें दिखाती हैं।
कारगिल का सबक और मनोज की विरासत
कारगिल युद्ध में 527 सैनिक शहीद हुए जिनमें कैप्टन विक्रम बत्रा लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया और कैप्टन विजयंत थापर शामिल थे। मनोज की शहादत ने खालूबार जीतकर पाकिस्तान की रणनीति को बर्बाद किया। 26 जुलाई कारगिल विजय दिवस हमें इन बलिदानों की याद दिलाता है।
खालूबार की लड़ाई के बाद सैनिकों ने बर्फ में जमे शव देखे। उनकी राइफलें दुश्मन की ओर थीं उंगलियाँ ट्रिगर पर और मैगजीन खाली। यह भारत के सैनिकों का जज्बा दिखाता है। मनोज की बहादुरी आज भी नौजवानों को सेना में भर्ती होने और देश के लिए कुछ करने की प्रेरणा देती है। उनकी डायरी में लिखा था कि जिंदगी का मोल तभी है जब वह देश के लिए जी जाए।
आज 25 जून 2025 को कैप्टन मनोज पांडेय के जन्मदिन पर हम उनकी शहादत को नमन करते हैं। गोली लगने पर रेंगते हुए चौथा बंकर तोड़ने वाला यह परमवीर चक्र विजेता हर भारतीय के लिए प्रेरणा है। उनके आखिरी शब्द – ना छोड़नूं – गोरखा रेजिमेंट के साहस और भारत की अटूट भावना को हमेशा जिंदा रखते हैं। मनोज पांडेय की शहादत सनातन संस्कृति देशभक्ति और फर्ज की अमर कहानी है। उनके बलिदान को कभी नहीं भूलेंगे। जय हिंद जय भारत।