केरल की धरती पर एक वीर योद्धा ने इतिहास को नई दिशा दी, जिसका नाम है पझासी राजा। इस शेर ने इस्लामी आक्रांताओं की बर्बरता को ललकारा और अंग्रेजों की शक्ति को चुनौती दी। 1793 से 1805 तक उनके हिंदू शौर्य ने वायनाड की रक्षा की। उनकी तलवारों ने सनातन गौरव को बुलंद किया और बलिदान की गौरव गाथा लिखी। पझासी राजा की यह कहानी हिंदू स्वाभिमान की मिसाल है, जो हर भारतीय के दिल में देशभक्ति की ज्वाला जगाती है।
इस्लामी आक्रांताओं का खतरा और पझासी का संकल्प
1790 के दशक में हयदर अली और उसके बेटे टीपू सुल्तान ने दक्षिण भारत पर कब्जे की योजना बनाई। उनकी सेना ने मंदिरों को तोड़ा और हिंदू जनता पर अत्याचार किए। वायनाड, पझासी राजा का क्षेत्र, इन आक्रांताओं के निशाने पर था। टीपू की ज्यादतियों ने हिंदू समाज को झकझोर दिया। पझासी राजा ने इस अन्याय को सहन नहीं किया। उन्होंने अपने योद्धाओं को एकजुट किया और इस्लामी आक्रांताओं के खिलाफ जंग का बिगुल बजा दिया।
1793 में पझासी ने हयदर अली के उत्तराधिकारियों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध शुरू किया। जंगलों और पहाड़ों का सहारा लेकर उन्होंने दुश्मन को चौंका दिया। उनकी रणनीति इतनी चतुराई भरी थी कि टीपू की सेना बार-बार पराजित हुई। पझासी का लक्ष्य स्पष्ट था: सनातन धर्म और अपनी धरती की रक्षा। उनकी वीरता ने दिखाया कि हिंदू शक्ति किसी भी आक्रांता से टकराने को तैयार है।
अंग्रेजों से टक्कर: हिंदू स्वाभिमान की जंग
टीपू सुल्तान की हार के बाद 1797 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने केरल में दखल देना शुरू किया। उन्होंने पझासी राजा की आजादी छीनने की कोशिश की। पर पझासी झुके नहीं। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया। वायनाड के जंगलों में उनकी सेना ने ब्रिटिश सैनिकों को चारों ओर से घेरा।
1800 से 1805 तक पझासी ने गुरिल्ला हमले किए। रात के अंधेरे में उनकी सेना अंग्रेजी कैंपों पर टूट पड़ती। जंगलों का ज्ञान और स्थानीय लोगों का साथ ने उन्हें अजेय बनाया। 1805 में एक भीषण मुठभेड़ में पझासी राजा ने अपने प्राण न्योछावर कर दिए, पर उनकी सेना ने अंग्रेजों को भारी नुकसान पहुंचाया। उनकी शहादत ने हिंदू स्वाभिमान को अमर कर दिया। सोशल मीडिया पर लोग लिखते हैं, ‘पझासी राजा ने हिंदू गौरव के लिए जान दी।’
गुरिल्ला रणनीति और बलिदान
पझासी राजा की जीत का राज उनकी चतुराई थी। उन्होंने पारंपरिक सेना के बजाय छोटे-छोटे दस्ते बनाए। ये दस्ते जंगलों में छिपकर अंग्रेजों और इस्लामी आक्रांताओं पर हमला करते। नदियों और पहाड़ों का उपयोग उन्होंने अपनी रक्षा के लिए किया। स्थानीय जनजातियों ने भी उनका साथ दिया। यह एकता हिंदू समाज की ताकत थी।
1805 में माविलयर पहाड़ी पर अंतिम युद्ध हुआ। ब्रिटिश सेना ने पझासी को घेर लिया। खून से लथपथ होकर भी उन्होंने हथियार नहीं डाला। अंतिम सांस तक वे लड़े और ‘हिंदू ध्वज’ को ऊंचा रखा। उनकी शहादत ने केरल में स्वतंत्रता की अलख जगाई। यह बलिदान हिंदू शौर्य की अनुपम मिसाल बन गया।
इतिहास का दमन
वामपंथियों द्वारा इस इतिहास को छिपाया गया और दबाया गया, जिसने हिंदुओं की रक्षा और इस्लामी आक्रांताओं के खिलाफ काम किया। पझासी राजा की वीरता को जानबूझकर भुलाया गया ताकि हिंदू स्वाभिमान की कहानी दब जाए। उनकी जंग सनातन गौरव की रक्षा के लिए थी, पर वामपंथी इतिहासकारों ने इसे कम करके आंका। आज उनकी शहादत को उजागर करने का समय है ताकि नई पीढ़ी को प्रेरणा मिले।
पझासी राजा की अमर विरासत
पझासी राजा की गौरव गाथा आज भी केरल की धरती पर गूंजती है। वायनाड में उनकी स्मृति में मंदिर और स्मारक बने हैं। हर साल उनकी वीरता को याद करने के लिए मेले लगते हैं। उनकी कहानी हर हिंदू को प्रेरित करती है कि सच्चा योद्धा वही है जो अपने धर्म और देश के लिए सब कुछ कुर्बान कर दे।
सनातन गौरव की इस जंग ने दिखाया कि हिंदू शक्ति कभी नहीं झुकती। पझासी राजा ने इस्लामी आक्रांताओं और अंग्रेजों दोनों को चुनौती दी। उनकी वीरता ने सिखाया कि बलिदान से ही स्वतंत्रता की राह बनती है। आज हम उनके बलिदान को नमन करते हैं और हिंदू स्वाभिमान को जीवित रखने का संकल्प लेते हैं।