आरएसएस का संकल्प: 1947 में कैसे बचाई हिंदू परिवारों की जान, अनसुनी गाथा

1947 का साल भारत के इतिहास में एक ऐसा दर्दनाक अध्याय है, जिसे याद करके आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। देश का बंटवारा सिर्फ़ ज़मीन का नहीं, बल्कि दिलों का भी बंटवारा था। उस वक़्त लाखों लोग अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर भाग रहे थे। हिंदू और सिख परिवारों पर हमले हो रहे थे, और चारों तरफ़ खून-खराबा मचा था।

लेकिन इस अंधेरे में भी कुछ लोग ऐसे थे, जिन्होंने उम्मीद की किरण जलाए रखी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के स्वयंसेवकों ने उस वक़्त अपनी जान की परवाह न करते हुए हिंदू परिवारों की रक्षा की। यह कहानी उन अनसुनी गाथाओं में से एक है, जो हमें गर्व से भर देती है। आइए, जानते हैं कि कैसे आरएसएस ने 1947 में अपने संकल्प से हिंदू परिवारों को नई ज़िंदगी दी।

बंटवारे का मंज़र: खून की होली

1947 में जब भारत और पाकिस्तान का बंटवारा हुआ, तो दोनों तरफ़ हिंसा का तांडव शुरू हो गया। पंजाब, बंगाल, और सिंध जैसे इलाकों में हालात सबसे ज़्यादा खराब थे। हिंदू और सिख परिवार अपने घर-बार छोड़कर भारत की तरफ़ भाग रहे थे। लेकिन रास्ते में उन पर हमले हो रहे थे। ट्रेनें लाशों से भर दी गईं, और गाँव के गाँव जला दिए गए। उस वक़्त सरकार भी पूरी तरह से हालात को संभाल नहीं पा रही थी। ऐसे में आरएसएस के स्वयंसेवकों ने आगे आकर हिंदू और सिख परिवारों की रक्षा का बीड़ा उठाया।

आरएसएस उस समय एक सामाजिक संगठन था, जिसकी स्थापना 1925 में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने की थी। इसका मकसद हिंदू समाज को संगठित करना और देशभक्ति की भावना को बढ़ाना था। लेकिन 1947 में जब बंटवारे की आग भड़की, तो आरएसएस ने अपनी शाखाओं को राहत और रक्षा केंद्रों में बदल दिया। स्वयंसेवक दिन-रात सड़कों पर निकल पड़े और उन परिवारों को बचाने में जुट गए, जो हिंसा का शिकार हो रहे थे।

स्वयंसेवकों की वीरता: जान पर खेलकर बचाई जान

1947 में पंजाब के कई इलाकों में हालात बहुत खराब थे। लाहौर, अमृतसर, और जालंधर जैसे शहरों में हिंदू और सिख परिवारों पर हमले हो रहे थे। उस वक़्त आरएसएस के स्वयंसेवकों ने अपनी जान की परवाह न करते हुए इन परिवारों को सुरक्षित भारत पहुँचाने का काम शुरू किया। एक ऐसी ही कहानी है लाहौर की, जहाँ स्वयंसेवकों ने एक काफिले को बचाया।

लाहौर में रहने वाले एक हिंदू परिवार ने बताया कि उनके घर पर भीड़ ने हमला कर दिया था। उनके पास भागने का कोई रास्ता नहीं था। तभी कुछ आरएसएस स्वयंसेवक उनके घर पहुँचे। इन स्वयंसेवकों ने अपनी जान जोखिम में डालकर उस परिवार को सुरक्षित निकाला और भारत की सीमा तक पहुँचाया। ऐसे हज़ारों परिवार थे, जिन्हें आरएसएस ने अपनी शाखाओं में शरण दी और उन्हें खाना, कपड़े, और दवाइयाँ मुहैया कराईं।

आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक गुरुजी (माधव सदाशिव गोलवलकर) ने स्वयंसेवकों को निर्देश दिया था कि हर हाल में हिंदू और सिख परिवारों की रक्षा करनी है। गुरुजी ने खुद कई राहत शिविरों का दौरा किया और स्वयंसेवकों का हौसला बढ़ाया। दिल्ली, अमृतसर, और कराची जैसे शहरों में आरएसएस ने राहत शिविर लगाए, जहाँ हज़ारों लोगों को शरण दी गई।

गांधीजी ने भी की थी तारीफ़

1947 में बंटवारे की हिंसा को देखकर महात्मा गांधी भी बहुत दुखी थे। लेकिन जब उन्हें आरएसएस के स्वयंसेवकों के काम के बारे में पता चला, तो उन्होंने इसकी तारीफ़ की। गांधीजी ने कहा था, “आरएसएस के स्वयंसेवकों ने जिस तरह से हिंदू और सिख परिवारों की रक्षा की, वह काबिल-ए-तारीफ़ है।” गांधीजी ने यह भी कहा कि अगर आरएसएस जैसे संगठन न होते, तो शायद और ज़्यादा जानें चली जातीं।

आरएसएस के स्वयंसेवकों ने न केवल हिंदू और सिख परिवारों को बचाया, बल्कि कई मुस्लिम परिवारों की भी मदद की। दिल्ली के एक राहत शिविर में एक मुस्लिम परिवार ने बताया कि जब उनके गाँव में दंगे हुए, तो आरएसएस के स्वयंसेवकों ने उन्हें भी सुरक्षित निकाला। यह दिखाता है कि उस वक़्त आरएसएस का मकसद सिर्फ़ हिंदुओं की रक्षा करना नहीं था, बल्कि इंसानियत को बचाना था।

स्वयंसेवकों का बलिदान: कई ने गंवाई जान

आरएसएस के स्वयंसेवकों ने हिंदू परिवारों को बचाने के लिए बहुत बड़ा बलिदान दिया। कई स्वयंसेवक इस दौरान शहीद हो गए। पंजाब के एक गाँव में स्वयंसेवकों का एक समूह हिंदू परिवारों को बचाने के लिए गया था। लेकिन रास्ते में उन पर हमला हो गया। उस हमले में कई स्वयंसेवक मारे गए, लेकिन उन्होंने हिंदू परिवारों को सुरक्षित निकाल लिया।

एक और कहानी है कराची की, जहाँ आरएसएस के स्वयंसेवक एक ट्रेन को बचाने के लिए गए। यह ट्रेन हिंदू और सिख शरणार्थियों से भरी थी। लेकिन रास्ते में दंगाइयों ने ट्रेन पर हमला कर दिया। स्वयंसेवकों ने अपनी जान की परवाह न करते हुए दंगाइयों का मुकाबला किया और ट्रेन को सुरक्षित भारत की सीमा तक पहुँचाया। इस दौरान कई स्वयंसेवकों ने अपनी जान गंवा दी।

आज भी प्रासंगिक है यह गाथा

1947 में आरएसएस के स्वयंसेवकों ने जो काम किया, वह आज भी हमें प्रेरणा देता है। उस वक़्त उन्होंने दिखाया कि मुश्किल हालातों में भी हिम्मत और एकता से किसी भी संकट का सामना किया जा सकता है। आज जब हम बंटवारे की उन दर्दनाक यादों को याद करते हैं, तो हमें उन गुमनाम नायकों को भी याद करना चाहिए, जिन्होंने अपनी जान देकर दूसरों को बचाया।

आरएसएस की यह अनसुनी गाथा हमें सिखाती है कि देश और समाज की सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं होता। उस वक़्त स्वयंसेवकों ने जो संकल्प लिया था, वह आज भी आरएसएस के कामों में दिखता है। चाहे प्राकृतिक आपदा हो या सामाजिक संकट, आरएसएस के स्वयंसेवक हमेशा सबसे आगे रहते हैं।

एक सबक, एक प्रेरणा

1947 की यह गाथा न केवल इतिहास का हिस्सा है, बल्कि एक प्रेरणा भी है। यह हमें सिखाती है कि मुश्किल वक़्त में भी हमें एक-दूसरे का साथ देना चाहिए। आरएसएस के स्वयंसेवकों ने उस वक़्त जो बलिदान दिया, वह हमें एकता और देशभक्ति का पाठ पढ़ाता है। आज हम उन वीरों को सलाम करते हैं, जिन्होंने 1947 में हिंदू परिवारों को नई ज़िंदगी दी। उनकी यह कहानी हमेशा हमारे दिलों में जिंदा रहेगी।

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