आज, 4 अगस्त 2025 को, हम महान मराठा योद्धा सदाशिवराव भाऊ की जयंती मनाते हैं, जिनका जन्म 4 अगस्त 1730 को हुआ था। यह दिन मराठा शौर्य और हिंदू गौरव का प्रतीक है, जिन्होंने पानीपत की तीसरी लड़ाई (14 जनवरी 1761) में विधर्मरूपी अहमद शाह अब्दाली के खिलाफ धर्मयुद्ध लड़ा। सदाशिवराव भाऊ ने अपने प्राणों की आहुति देकर भारत की अखंडता और हिंदू धर्म की रक्षा के लिए अद्भुत पराक्रम दिखाया। इस लेख में हम उनके जीवन, वीरता, और बलिदान को याद करते हैं, जो हिंदू अस्मिता का अमर प्रतीक है।
प्रारंभिक जीवन: बहादुरी की विरासत
सदाशिवराव भाऊ का जन्म एक योद्धा परिवार में हुआ, जहाँ उन्हें बहादुरी और युद्ध कौशल विरासत में मिले। उनके चाचा पेशवा बाजीराव प्रथम और पिता चिमाजी आप्पा थे, जिन्होंने पश्चिमी घाट को पुर्तगालियों से मुक्त कर मराठा साम्राज्य को कोंकण तक विस्तारित किया था। दुर्भाग्यवश, कम उम्र में ही उनके माता-पिता का निधन हो गया, और उनकी परवरिश उनकी चाची काशीबाई ने की, जो उन्हें अपने बेटे की तरह पाल-पोसकर बड़ा किया। बचपन से ही भाऊ की वीरता झलकने लगी थी, जो बाद में उनके युद्ध कौशल में परिलक्षित हुई।
प्रारंभिक विजय: कर्नाटक से दक्कन तक
सदाशिवराव भाऊ की वीरता की पहली परीक्षा तब हुई जब बाबूजी नाईक और फतेह सिंह भोंसले कर्नाटक पर कब्जा करने में असफल रहे। मात्र 16 साल की उम्र में उन्हें कमान सौंपी गई। कोल्हापुर के दक्षिण में अजरा में उन्होंने सवनूर के नवाब का सामना किया और बहादुर भेंडा के किले पर कब्जा कर 36 परगने मराठा साम्राज्य में शामिल किए। इसके बाद उनका विजय अभियान अनवरत जारी रहा—कित्तूर, गोकक, बागलकोट, बादामी, बासवपटन, और नवलगुंड एक-एक कर उनके अधीन हुए। 1760 में उदगीर की लड़ाई में उन्होंने हैदराबाद के निजाम को पराजित कर अहमदनगर, दौलताबाद, और बीजापुर को मराठों के हवाले किया। दक्कन में मराठा झंडा गाड़ने वाले भाऊ ने अपनी वीरता से सारा देश गौरवान्वित किया।
पानीपत का धर्मयुद्ध: अब्दाली के खिलाफ संघर्ष
इसी बीच अहमद शाह अब्दाली की भारत पर आक्रमण की खबर मराठों तक पहुँची। अब्दाली का उद्देश्य भारत में विधर्म स्थापित करना और लूटपाट करना था, जो हिंदू धर्म और संस्कृति के लिए खतरा था। सरदार सेनापति सदाशिवराव भाऊ के नेतृत्व में मराठा सेना ने अब्दाली का मुकाबला करने का संकल्प लिया। 14 जनवरी 1761 को पानीपत के मैदान में यह निर्णायक युद्ध हुआ, जिसे इतिहास में पानीपत की तीसरी लड़ाई के नाम से जाना जाता है। प्रारंभ में मराठों का पलड़ा भारी था। भाऊ ने खुद अफगानों पर जोरदार हमला बोला, और जीत नजदीक दिख रही थी।
वीरगति का बलिदान
लेकिन युद्ध के दौरान एक दुखद घटना ने मराठों के भाग्य को बदल दिया। पेशवा के बेटे विश्वास राव को एक गोली लगी, जिससे उनका निधन हो गया। इस घटना ने मराठा सेना का हौसला तोड़ा। अफगानों ने इस अवसर का फायदा उठाते हुए मराठों पर आक्रमण तेज कर दिया। इब्राहिम खान गार्दी और जंकोजी सिंधिया के साथ भाऊ को अफगान सेना ने घेर लिया। भाऊ ने अपने भतीजे की मृत्यु देखकर हाथी से उतरकर युद्ध में कूद पड़े, लेकिन मराठा सेना को यह भ्रम हो गया कि भाऊ भी वीरगति को प्राप्त हो गए। इस भ्रम ने सेना को हतोत्साहित कर दिया, और युद्ध मराठों के लिए हार में बदल गया। भाऊ ने अंतिम सांस तक लड़ा और धर्म की रक्षा के लिए वीरगति पाई।
मराठा सेना का आधुनिकीकरण
सदाशिवराव भाऊ ने मराठा सेना को मजबूत करने में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने पारंपरिक “हमला करो और छिप जाओ” की युद्ध नीति को छोड़कर पैदल सेना और गोलाबारूद पर ध्यान दिया। इसके साथ ही उन्होंने यूरोपीय सैनिकों को भर्ती कर मराठा सेना को आधुनिक बनाया। उनकी इन रणनीतियों ने मराठा शक्ति को नई ऊँचाइयों पर पहुँचाया, लेकिन पानीपत की हार ने उनके योगदान को कम करके आंका गया।
इतिहास में अनदेखी: एक वीर का अपमान
इतिहास ने भाऊ के साथ इंसाफ नहीं किया। उनकी वीरता और बलिदान को अक्सर नजरअंदाज किया गया, क्योंकि पानीपत की हार पर अधिक ध्यान दिया गया। लेकिन सत्य यह है कि भाऊ ने हिंदू धर्म और भारत की अखंडता के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया। उनकी एक छोटी सी चूक को उनकी बड़ी उपलब्धियों पर हावी नहीं होने देना चाहिए। वह एक सच्चे नायक थे, जिन्होंने धर्मयुद्ध में अपने प्राण दिए।
वीरों को याद करें
आज, 4 अगस्त 2025 को, हम सदाशिवराव भाऊ की जयंती पर उनके शौर्य को सलाम करते हैं। उनका जीवन हमें सिखाता है कि धर्म और देश की रक्षा के लिए हर बलिदान उचित है। शंभाजीनगर (औरंगाबाद) जैसे स्थानों से उठने वाली आवाजें, जो वर्ग विशेष की ताकत की बात करती हैं, भूल जाती हैं कि यह धरती शिवाजी, भाऊ, और अन्य वीरों की थाती है। इन वीरों ने पूरे भारत में अपना डंका बजाया, न कि किसी एक क्षेत्र या वर्ग में। हमें उनके बलिदान को याद रखना चाहिए और आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाना चाहिए।
अमर शौर्य का प्रतीक
सदाशिवराव भाऊ का जीवन हिंदू शौर्य और मराठा वीरता का प्रतीक है। 4 अगस्त 1730 को जन्मे इस महायोद्धा ने पानीपत में विधर्मरूपी अब्दाली के खिलाफ धर्मयुद्ध लड़ा और वीरगति पाकर भी अमर हो गए। सुदर्शन परिवार उनके पावन जन्मदिवस पर उन्हें नमन, वंदन करता है और उनकी यशगाथा को अनंतकाल तक जीवित रखने का संकल्प लेता है। भाऊ का बलिदान हमें प्रेरणा देता है कि धर्म और देश के लिए हर कुर्बानी की कीमत है।