सदियों का अपमान — श्रीराम जन्मभूमि का संघर्ष (1528–1992)-
6 दिसंबर की कहानी की जड़ें
6 दिसंबर 1992 की घटना किसी अचानक उपजी स्थिति का परिणाम नहीं थी। यह वह दिन था जिसने 464 वर्षों के निरंतर अपमान, संघर्ष और प्रतीक्षा को एक ऐतिहासिक निष्कर्ष तक पहुँचाया। जिस क्षण 6 दिसंबर आया, उसकी नींव 1528 से रखी जा रही थी—वह वर्ष जब श्रीराम जन्मभूमि पर पहला घाव लगाया गया।
1528: मंदिर का विध्वंस और घाव की शुरुआत
1528 में बाबर के सेनापति मीर बाक़ी ने अयोध्या पहुँकर उसी स्थान पर खड़े प्राचीन राम मंदिर को ध्वस्त किया, जहाँ भगवान श्रीराम के जन्म का विश्वास शताब्दियों से जीवित था। गर्भगृह अपवित्र किया गया, मूर्तियाँ हटाई गईं, और मंदिर के अवशेषों पर जबरन कब्ज़ा किया गया।
मुग़ल काल में यह घटना केवल धार्मिक परिवर्तन नहीं थी—यह हिंदू समाज के आत्मसम्मान पर सीधी चोट थी। इस क्षण के बाद सदियों तक हिंदुओं को अपनी ही जन्मभूमि को “विवादित स्थल” कहने के लिए मजबूर होना पड़ा।
तीन शासन-काल और एक निरंतर संघर्ष
अयोध्या का संघर्ष केवल मुग़ल शासन तक सीमित नहीं रहा। नवाबी शासन में भी मंदिर का पुनर्निर्माण रोका गया और स्थिति अस्पष्ट रखी गई। जब अंग्रेज आए, तब उन्होंने इस विवाद को प्रशासनिक बहानों और कानूनी जटिलताओं में फँसा दिया।
इसके बावजूद हिंदू समाज हर युग में अपने अधिकार के लिए खड़ा रहा।
1760 से लेकर 1850 तक कई प्रयास हुए, 1853 में बड़ा संघर्ष हुआ, और 1857 की क्रांति में भी “रामजन्मभूमि मुक्ति” का स्वर स्पष्ट सुनाई दिया। महंत रघुवर दास और अनेक संतों ने अपने जीवन को इसी संघर्ष को समर्पित किया, पर ढांचा उसी प्रकार खड़ा रहा और दर्द भी।
1949: रामलला का चमत्कारिक प्राकट्य
22/23 दिसंबर 1949 की रात, गर्भगृह में रामलला की मूर्तियों का प्राकट्य हुआ। यह घटना अयोध्या में नई आशा का संचार करने वाली थी। अगले ही दिन पूरा क्षेत्र “जय श्रीराम” के नारों से गूँज उठा।
लेकिन इसके तुरंत बाद प्रशासन ने गर्भगृह को ताले लगाकर बंद कर दिया। जनभावना फिर कैद हो गई, और मामला अदालतों की धीमी गति पर छोड़ दिया गया। संघर्ष रुका नहीं—बस लंबा होता गया।
1980–1990: आंदोलन की लौ फिर से तेज होती है
1980 के दशक में विश्व हिंदू परिषद, संत समाज और विभिन्न संगठनों ने आंदोलन को नए रूप में खड़ा किया। पूरे देश में सभाएँ हुईं, रामशिला पूजन और संकल्प कार्यक्रमों ने जनमानस को फिर जागरूक किया।
1986 में अदालत द्वारा ताले खुलवाए जाना संघर्ष का निर्णायक मोड़ था। यह वह क्षण था जिसने मंदिर आंदोलन को नई गति दी और उसे धार्मिक विषय से आगे बढ़ाकर राष्ट्रव्यापी चेतना का रूप दिया।
1990: रथयात्रा और राष्ट्रीय जनजागरण
1990 में लालकृष्ण आडवाणी की सोमनाथ से अयोध्या तक की रथयात्रा ने इस संघर्ष को जनजागरण बना दिया।
भारत के ग्रामीण इलाकों से लेकर बड़े शहरों तक—जहाँ भी रथ पहुँचा, वहाँ हिंदू समाज अभूतपूर्व उत्साह के साथ जुटा।
यह यात्रा केवल राजनीतिक यात्रा नहीं थी, बल्कि एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण थी।
पहली बार हिंदू समाज इस स्तर पर एकजुट, संगठित और स्पष्ट संकल्प के साथ खड़ा दिखाई दिया।
1992: जब संघर्ष ज्वाला में बदल चुका था
1992 तक राम मंदिर आंदोलन अभूतपूर्व जनलहर बन चुका था। ग्रामीण, शहरी, युवा, वृद्ध—हर वर्ग में एक ही भावना थी कि श्रीराम जन्मभूमि का अपमान अब और नहीं सहा जाएगा। मंदिर निर्माण की माँग देश की व्यापक, स्वाभाविक और प्रबल आवाज़ बन चुकी थी।
इसी निरंतर उफनती जनभावना, 1528 का घाव, 1857 का संघर्ष, 1949 की आशा और 1980–90 का जागरण—इन सबका संगम 6 दिसंबर 1992 को एक बड़े ऐतिहासिक मोड़ की ओर बढ़ रहा था।
6 दिसंबर 1992 — वह दिन जिसने इतिहास मोड़ दिया
अयोध्या की सुबह: भक्ति का उमड़ा सागर
6 दिसंबर 1992 की सुबह अयोध्या किसी साधारण तीर्थ जैसा नहीं दिख रहा था, बल्कि एक जागृत चेतना की तरह था। सरयू के तट पर हजारों कारसेवक स्नान कर जन्मभूमि की ओर बढ़ रहे थे। भजन, मंत्रोच्चार, भगवा झंडे और “जय श्रीराम” की गूँज से वातावरण भक्ति में डूबा था। सुबह 7 बजे तक करीब दो लाख रामभक्त अयोध्या में उपस्थित हो चुके थे—बिना किसी राजनीतिक आदेश, केवल आस्था के बल पर।
मंच पर नेता—पर भीड़ अपनी संकल्प से चल रही थी
जन्मभूमि के निकट बनाए मंच पर लालकृष्ण आडवाणी, अशोक सिंघल, उमा भारती और साध्वी ऋतंभरा मौजूद थे, पर भीड़ का नियंत्रण किसी मंच के हाथ में नहीं था। बार-बार घोषणा होती रही कि कारसेवा शांतिपूर्ण होगी, पर जो भी आगे होने वाला था, वह जनभावना का स्वतःस्फूर्त उभार था, किसी आदेश का परिणाम नहीं।
11:55 — पहला कदम जिसने सब बदल दिया
करीब 11:55 बजे कुछ युवा कारसेवक सुरक्षा घेरा पार कर ढांचे की ओर दौड़े और देखते-ही-देखते गुम्बदों पर पहुँच गए। 12:05 पर पहली ईंट हटी और घटनाओं की धारा बदल गई। कुछ ही मिनटों में सैकड़ों कारसेवक ढांचे पर थे। पुलिस ने आंसू गैस और लाठीचार्ज से उन्हें रोकने की कोशिश की, लेकिन भीड़ उग्र नहीं हुई—उनकी दिशा केवल ढांचे की ओर थी, किसी अन्य चीज़ की ओर नहीं।
गुंबदों पर चढ़ी आस्था: दोपहर 1 से 3 बजे तक का निर्णायक समय
1:30 बजे तक कारसेवक तीनों गुम्बदों पर पहुँच चुके थे। ढांचों की कमजोर संरचना बढ़ते दबाव में हिलने लगी। रस्सियाँ बाँधी गईं, पत्थर उखाड़े गए और हर प्रहार पर “जय श्रीराम” की आवाज़ और तेज़ होती गई। लगभग 2:45 बजे पहला गुम्बद ढह गया। उस क्षण लोगों की आँखों से आँसू बह निकले—वह खुशी नहीं, 464 वर्षों के दर्द का बहाव था। कोई मिट्टी माथे पर लगा रहा था, कोई रोता हुआ नाच रहा था, कोई चुपचाप प्रार्थना कर रहा था।
4 से 5:40 — ढांचा धराशायी हुआ और इतिहास हल्का हुआ
पहले गुम्बद के बाद दूसरा और तीसरा गुम्बद भी लगातार प्रहारों के बाद गिरते गए। 4 बजे दूसरा, और 4:45 बजे तीसरा गुम्बद ढह गया। 5:40 बजे तक पूरा ढांचा समाप्त हो चुका था। जिस स्थान पर सदियों से अपमान खड़ा था, वह स्थान अब मुक्त और स्वच्छंद था। उड़ती धूल केवल मलबे की नहीं थी—वह इतिहास के बोझ के उतरने का संकेत थी।
संध्या: रामलला का पुनः विराजमान होना
शाम होते-होते वहीं तिरपाल का एक अस्थायी मंदिर खड़ा कर दिया गया। रामलला की मूर्ति को पुनः सम्मानपूर्वक स्थापित किया गया। अयोध्या में दीप प्रज्वलित होने लगे, मिठाइयाँ बाँटी जाने लगीं और शहर उत्सव के रंग में रंग गया। सबसे उल्लेखनीय यह था कि—न लूटपाट हुई, न दंगे हुए, न सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचा—पूरा वातावरण भक्ति और संतोष से भरा हुआ था।
घटना के बाद प्रशासनिक हलचल और राजनीतिक परिणाम
ढांचा ध्वस्त होते ही अयोध्या में कर्फ्यू लगा। उत्तर प्रदेश की कल्याण सिंह सरकार बर्खास्त कर दी गई। केंद्र सरकार ने जांच आयोग बनाया और विदेशी मीडिया ने इसे अपने दृष्टिकोण से नकारात्मक रूप दिया। लेकिन हिंदू समाज के भीतर एक ही भावना थी—वह अपमान मिट चुका था जो सदियों से चुभ रहा था।
6 दिसंबर का वास्तविक संदेश
6 दिसंबर 1992 का अर्थ किसी आन्दोलन की उग्रता नहीं, बल्कि एक समाज के आत्मसम्मान की वापसी है। उस दिन हिंदू समाज ने दिखाया कि उसकी आस्था को अनदेखा नहीं किया जा सकता। यह वह दिन था जब करोड़ों लोगों ने महसूस किया कि इतिहास केवल किताबों से नहीं बदलता—कभी-कभी जनभावना उसे पलट देती है।
6 दिसंबर के बाद का सफर — न्याय, मंदिर और पुनःस्थापित सम्मान
न्याय की ओर बढ़ता संघर्ष
6 दिसंबर 1992 के बाद जन्मभूमि केवल धार्मिक मुद्दा नहीं रही, बल्कि यह राष्ट्र के आत्मसम्मान और न्याय का प्रश्न बन गई। ढांचा गिरने के बाद भी कानूनी लड़ाई लंबी चली, पर अब हिंदू समाज पहले की तरह विभाजित या कमजोर नहीं था। आंदोलनकारियों, संतों और समाज की एकजुटता ने यह स्पष्ट कर दिया था कि इस बार आधी बात नहीं चलेगी—पूर्ण न्याय ही स्वीकार होगा। इसी संकल्प की शक्ति अदालतों तक पहुँची और वर्षों से लंबित मामला धीरे-धीरे निर्णायक दिशा लेने लगा।
2010 का हाईकोर्ट निर्णय: पहला बड़ा मोड़
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 2010 में यह मान लिया कि यह स्थल श्रीराम जन्मस्थल है। पुरातत्व विभाग की रिपोर्टें, इतिहास का दस्तावेजी प्रमाण और आस्था का प्रवाह—सबने मिलकर यह सिद्ध कर दिया कि यहाँ सदियों पहले मंदिर था और ढांचा बाद में खड़ा किया गया। अदालत ने जमीन तीन हिस्सों में बाँटने का निर्णय दिया, जिसमें मुख्य स्थान रामलला के हिस्से में आया। यह निर्णय आंदोलन की कानूनी यात्रा का पहला औपचारिक पड़ाव था, परंतु हिंदू समाज के लिए अभी भी यह अंतिम सत्य नहीं था—उन्हें सम्पूर्ण जन्मभूमि चाहिए थी, आधी या बाँटी हुई नहीं।
2019 का सुप्रीम कोर्ट फैसला: संघर्ष को न्याय मिला
9 नवंबर 2019 का दिन इतिहास के उन दुर्लभ पलों में से एक बन गया जब सर्वोच्च न्यायालय ने सर्वसम्मति से यह घोषित कर दिया कि पूरा विवादित स्थल राम जन्मभूमि है और उसी स्थान पर मंदिर बनेगा। यह केवल अदालत का निर्णय नहीं था—यह सदियों की आस्था, संतों की तपस्या, कारसेवकों के बलिदान और समाज की निरंतर प्रयत्नशीलता का सम्मान था। देशभर में भावनाओं की लहर दौड़ गई, क्योंकि 6 दिसंबर 1992 से शुरू हुई दिशा अब विधि के हस्ताक्षर के साथ पूर्ण हो चुकी थी।
भूमिपूजन और निर्माण: एक नए युग की शुरुआत
5 अगस्त 2020 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राम मंदिर के भूमिपूजन में भाग लिया। वह क्षण सिर्फ एक धार्मिक विधि नहीं था—वह भारतीय सांस्कृतिक चेतना का पुनरुत्थान था। जिस स्थल पर सदियों तक अपमान का ढांचा खड़ा रहा, वहीं अब पुनर्निर्माण की पवित्र शुरुआत हो चुकी थी। इसके बाद मंदिर निर्माण युद्ध-स्तर पर आगे बढ़ा, और कारीगरों, शिल्पियों, इंजीनियरों एवं विशेषज्ञों ने इसे आधुनिक भारत के सबसे भव्य धार्मिक स्थलों में बदलने की जिम्मेदारी निभाई।
22 जनवरी 2024: रामलला का भव्य प्राण-प्रतिष्ठा
22 जनवरी 2024 को गर्भगृह में रामलला की प्रतिमा स्थापित हुई। यह केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं था—यह भावनाओं का वह ज्वार था जिसे शब्दों में बांधा नहीं जा सकता। कारसेवकों का त्याग, संघर्ष में शहीद हुए संतों की तपस्या और करोड़ों हिंदुओं की मनोकामना—सब इस एक क्षण में साकार हो गई। अयोध्या उस दिन केवल एक शहर नहीं थी, वह करोड़ों हृदयों की धड़कन बन चुकी थी।
क्यों 6 दिसंबर सदैव अमर रहेगा
6 दिसंबर केवल ढांचा गिरने की तारीख मात्र नहीं है। यह वह दिन है जब हिंदू समाज ने 464 वर्षों के अपमान, छल, दमन और धैर्य का उत्तर दिया। यह वह क्षण है जिसने दिखाया कि संस्कृति के सम्मान के लिए समाज एकजुट हो जाए तो इतिहास भी झुक जाता है। आज जब अयोध्या में भव्य राम मंदिर खड़ा है, जब पूरे विश्व से भक्त वहाँ पहुँच रहे हैं, जब हर दीवाली पर लाखों दीपक उस पवित्र स्थान को रोशन करते हैं—तो यह स्पष्ट दिखता है कि 6 दिसंबर ने सिर्फ एक ढांचा नहीं गिराया, बल्कि हिंदू समाज के आत्मसम्मान को पुनः खड़ा किया।
निष्कर्ष: शौर्य दिवस का संदेश
हर वर्ष 6 दिसंबर को हम उन कारसेवकों को नमन करते हैं जिन्होंने लाठियाँ खाईं, गोलियाँ झेलीं, अदालतों में केस लड़े, आलोचनाएँ सहीं—पर पीछे नहीं हटे। आज रामलला अपने भव्य मंदिर में विराजमान हैं क्योंकि हिंदू समाज ने एक स्वर में, एक रुख के साथ यह घोषित किया था कि उसकी आस्था अडिग है और उसका संकल्प अटल। इसी कारण 6 दिसंबर को इतिहास सदैव एक शौर्य दिवस के रूप में याद करेगा—वह दिन जब सत्य और आत्मसम्मान ने विजय पाई।
