स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती : जिन्होंने हिंदुत्व की ध्वजा विश्वभर में फहराई और वेदांत को जन-जन तक पहुँचाया

आज, 3 अगस्त 2025 को, हम स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती के निर्वाण दिवस पर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, जिन्होंने हिंदुत्व की ध्वजा विश्वभर में फहराई और वेदांत के गूढ़ ज्ञान को जन-जन तक पहुँचाया। 8 मई 1916 को केरल के एर्नाकुलम में जन्मे स्वामी जी भारत के प्रसिद्ध आध्यात्मिक चिंतक और वेदांत दर्शन के विश्वविख्यात विद्वान थे।

उनके मूल नाम बालकृष्ण मेनन थे, जिन्होंने सनातन धर्म की पुनर्जागरण की अलख जगाई। चिन्मय मिशन की स्थापना और गीता ज्ञान-यज्ञ के माध्यम से उन्होंने हिंदू गौरव को नई ऊँचाइयों पर पहुँचाया। आज उनके बलिदान और शौर्य को याद करते हुए, हम उनके योगदान को सलाम करते हैं।

प्रारंभिक जीवन: एक जिज्ञासु मन का सफर

बालकृष्ण मेनन का जन्म एक सुसंस्कृत परिवार में हुआ था। शिक्षा के लिए उन्होंने महाराजा कॉलेज में प्रवेश लिया, जहाँ वे विज्ञान के छात्र थे, जिसमें जीव विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, और रसायन शास्त्र उनके विषय थे। इंटर पास करने के बाद उनके पिता का तबादला त्रिचूर हो गया, जहाँ उन्होंने विज्ञान छोड़कर कला के विषय लिए।

1940 में लखनऊ विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा के लिए दाखिला लिया, जहाँ उन्होंने विधि और अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन किया। विविध रुचियों वाले बालकृष्ण विश्वविद्यालय स्तर पर पढ़ाई के साथ-साथ अन्य गतिविधियों में भी सक्रिय रहे। लेकिन इन सबके बीच उनका मन जीवन, मृत्यु, और आध्यात्मिकता के शाश्वत प्रश्नों से जूझ रहा था।

आजादी का आंदोलन और आध्यात्मिक खोज

1942 में बालकृष्ण मेनन ने आजादी के राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सा लिया और कई महीने जेल में रहे। स्नातक उपाधि के बाद उन्होंने नई दिल्ली के समाचार पत्र ‘नेशनल हेराल्ड’ में पत्रकार की नौकरी जॉइन की, जहाँ विभिन्न विषयों पर लेख लिखे। व्यावसायिक सफलता के बावजूद वे अपने जीवन से असंतुष्ट थे।

आध्यात्मिकता के अर्थ को समझने के लिए उन्होंने भारतीय और यूरोपीय दर्शनशास्त्र का गहन अध्ययन शुरू किया। स्वामी शिवानंद के लेखन से प्रभावित होकर 1949 में उन्होंने सांसारिक जीवन त्याग दिया और शिवानंद के आश्रम में प्रवेश लिया, जहाँ उनका नामकरण “स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती” हुआ, जिसका अर्थ है “पूर्ण चेतना के आनंद से परिपूर्ण व्यक्ति”।

वेदांत का मार्गदर्शन और गुरु तपोवन

अगले आठ वर्ष स्वामी चिन्मयानंद ने वेदांत गुरु स्वामी तपोवन के सान्निध्य में बिताए, जहाँ उन्होंने प्राचीन दार्शनिक साहित्य और अभिलेखों का अध्ययन किया। इस दौरान उन्हें अनुभूति हुई कि उनका जीवन का उद्देश्य वेदांत के संदेश का प्रसार और भारत में आध्यात्मिक पुनर्जागरण लाना है। उन्होंने देश में फैली धार्मिक भ्रांतियों को दूर करने का संकल्प लिया और इसके लिए एक अनोखी पहल शुरू की।

गीता ज्ञान-यज्ञ और चिन्मय मिशन की स्थापना

स्वामी चिन्मयानंद ने पुणे से प्रारंभ कर सभी मुख्य नगरों में ज्ञान-यज्ञ आयोजित किए। शुरू में पुरोहित वर्ग ने उपनिषदों और भगवद्गीता के ज्ञान के मुक्त प्रसार का विरोध किया, क्योंकि यह ब्राह्मणों के लिए सुरक्षित था। लेकिन स्वामी जी ने हर व्यक्ति तक पहुँच बनाई। वे सत्संगों में पुरुषों और महिलाओं से मिलते, आध्यात्मिक मार्गदर्शन देते, और वेदांत को दैनिक जीवन से जोड़ते।

उनका मानना था कि वेदांत का उद्देश्य मनुष्य को भीतर से संतुष्ट और सुखी बनाना है, जो स्वतः आध्यात्मिक जागरण की ओर ले जाता है। 1953 में उन्होंने ‘चिन्मय मिशन’ की स्थापना की, जो वेदांत के प्रसार और सांस्कृतिक, शैक्षिक, सामाजिक कार्यों के लिए समर्पित है। उनके प्रवचन तर्कसंगत और प्रेरणादायी थे, जिसके लिए बड़ी भीड़ जुटती थी।

वैश्विक हिंदुत्व का प्रचार

स्वामी चिन्मयानंद ने हिंदुत्व की पताका पूरी दुनिया में फैलाई। 1993 में शिकागो में विश्व धर्म संसद में उन्होंने हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व किया, जो एक शताब्दी पहले स्वामी विवेकानंद को मिला था। उनके प्रयासों से वेदांत का ज्ञान पश्चिमी देशों तक पहुँचा, और हिंदू संस्कृति का सम्मान बढ़ा। चिन्मय मिशन आज भी दुनिया भर में हिंदुत्व और वेदांत का संदेश फैला रहा है।

निर्वाण दिवस: 3 अगस्त 1993

आज, 3 अगस्त 1993 को कैलिफोर्निया के सैन डियागो में दिल का घातक दौरा पड़ने से स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती ने महासमाधि प्राप्त की और सांसारिक जीवन से मुक्त हो गए। जीवन पर्यंत वैदिक धर्म के प्रचार में समर्पित इस महान विभूति को उनके निर्वाण दिवस पर सुदर्शन न्यूज बारंबार नमन, वंदन, और अभिनंदन करता है। उनकी मृत्यु के बाद भी उनका मिशन जीवित है, जो हिंदू गौरव को आगे बढ़ा रहा है।

एक अमर विरासत

स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती ने हिंदुत्व की ध्वजा विश्वभर में फहराई और वेदांत को जन-जन तक पहुँचाया। उनके जीवन से हमें प्रेरणा मिलती है कि आध्यात्मिक शक्ति और देशभक्ति एक साथ मिलकर समाज को नई दिशा दे सकते हैं। नेहरू की तरह उनकी उपलब्धियों को नजरअंदाज करने की बजाय, हमें उनके योगदान को गर्व से याद करना चाहिए। आज, 3 अगस्त 2025 को, हम उनके बलिदान और शौर्य को सलाम करते हैं, जो हिंदू अस्मिता का अमर प्रतीक है।

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