भारत को “माता” कहना केवल एक भावात्मक अभिव्यक्ति नहीं है—यह भारतीय संस्कृति का वह अनंत दर्शन है, जिसमें धरती को जीवित, चेतन और करुणामयी मानी गई है। जब भारतीय “भारत माता” कहते हैं, तो उनके मन में किसी भूभाग की आकृति नहीं उभरती, बल्कि एक ऐसी शक्ति की छवि आती है जो अपने सभी संतानों को समान स्नेह देती है। प्रेम, संरक्षण, दया और त्याग—माँ के यही गुण भारत माता के प्रतीक में समाहित हैं। जिन परंपराओं और मान्यताओं में मातृभूमि को देवत्व का रूप दिया गया हो, उन्हें सहज ही सम्मान का स्थान मिलता है। यही कारण है कि यह भावना न कभी मिट सकी, न कभी कमजोर हुई।
भारतीय इतिहास अनगिनत उतार-चढ़ावों से भरा है। आक्रमणों, संघर्षों और बदलावों के बीच कई संस्कृतियाँ विलुप्त हो गईं, लेकिन भारत की सांस्कृतिक जड़ें हर परीक्षा में और मजबूत होती चली गईं। यही सनातन परंपरा हमारे भीतर यह चेतना जगाती है कि हम केवल अपने लिए नहीं, बल्कि समाज और राष्ट्र के लिए भी उत्तरदायी हैं। अपनी उपलब्धियों को देश की देन मानना और अपने कर्मों से मातृभूमि का गौरव बढ़ाना भारतीय मानस की सहज प्रेरणा है।
इसी भाव को शब्दों का स्वर “वंदे मातरम” ने दिया।
एक गीत जिसने स्वतंत्रता की नींव में आग भरी
आज से डेढ़ सौ वर्ष पहले “वंदे मातरम” केवल एक कविता नहीं था—वह भारतीय चेतना की धड़कन बन चुका था।
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने 1876 में जब इस गीत को बंगाली और संस्कृत के मिश्रण में रचा, तब उन्होंने केवल सौंदर्य का वर्णन नहीं किया—उन्होंने भारत माता की छवि को उस रूप में चित्रित किया, जिससे हर भारतीय अपने भीतर गर्व, शक्ति और समर्पण महसूस करता है।
यद्यपि यह गीत 1882 के उपन्यास “आनंदमठ” के माध्यम से लोकप्रिय हुआ, किंतु इसके भाव उससे कहीं पहले जनमानस में फैलने लगे थे। 18वीं सदी के संन्यासी–फ़कीर विद्रोह से लेकर 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम तक, भारत की जनता किसी ऐसे स्वर की तलाश में थी जो उसे एकजुट कर सके—“वंदे मातरम” वही स्वर बना।
स्वतंत्रता आंदोलन का प्रेरक मंत्र
1886 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में रवींद्रनाथ टैगोर ने जब पहली बार इस गीत को स्वरबद्ध कर प्रस्तुत किया, तो यह पूरे देश में गूँज उठा। इसके बाद तो रैलियों, सभाओं, जुलूसों और क्रांतिकारी आंदोलनों में “वंदे मातरम” मानो भारत की साँस बन गया।
ब्रिटिश शासन के विरुद्ध जो भी आवाज़ उठती थी, उसकी पृष्ठभूमि में यही गीत बजता था। लाला लाजपत राय, बिपिन चंद्र पाल, बाल गंगाधर तिलक, अरबिंदो घोष जैसे महान नेताओं ने इसे लोगों का एकजुटता मंत्र बताया।
इस गीत की सबसे बड़ी शक्ति यही थी कि यह केवल विरोध का नारा नहीं था—यह लोगों को आशा देता था, साहस देता था और यह भाव जागता था कि मातृभूमि किसी आलंकारिक कल्पना का नाम नहीं, बल्कि एक जीवित शक्ति है जिसकी रक्षा करना हम सभी का कर्तव्य है।
स्वदेशी आंदोलन में “वंदे मातरम” की गर्जना
1905 में जब बंगाल विभाजन के खिलाफ देश खड़ा हुआ, तब स्वदेशी आंदोलन ने लाखों भारतीयों को आत्मनिर्भरता की राह पर लौटाया।
यही वह दौर था जब “वंदे मातरम” भारत के आर्थिक स्वतंत्रता अभियान का भी प्रतीक बन गया।
लोग विदेशी वस्तुएँ छोड़कर स्वदेशी उत्पादों का उपयोग कर रहे थे।
स्त्रियाँ चर्खा चलाकर सूत कात रही थीं, युवा बहिष्कार रैलियाँ निकाल रहे थे और बच्चे भी तख्तियों पर “वंदे मातरम” लिखकर चल रहे थे।
इस गीत की लोकप्रियता इतनी बढ़ी कि ब्रिटिश सरकार को इसे कई जगह प्रतिबंधित करना पड़ा।
पर इतिहास यह बताता है कि किसी भी विचार को रोकने से वह और तेज़ी से फैलता है—“वंदे मातरम” भी यही हुआ।
भारत की सांस्कृतिक आत्मा के सबसे करीब
“वंदे मातरम” केवल स्वतंत्रता आंदोलन का गीत नहीं है—यह भारतीय संस्कृति का सौंदर्य और उसकी आध्यात्मिकता भी दर्शाता है।
नदियाँ, खेत, पर्वत, हरियाली और हवा तक, इस गीत में प्रकृति का हर रूप माँ के स्नेह की तरह महसूस होता है।
इसीलिए आधुनिक भारत में भी यह गीत पर्यावरण-जागरूकता का प्रतीक बनकर उभर रहा है।
नई पीढ़ी इसे केवल इतिहास नहीं, बल्कि प्रकृति से प्रेम और धरती के प्रति जिम्मेदारी के संकेत के रूप में देखती है।
भारत की विविधता—भाषाओं, धर्मों, परंपराओं, क्षेत्रों—के बावजूद यह गीत सबको एक सूत्र में जोड़ता है।
राष्ट्र के लिए एक साझा भाव पैदा करना ही इसकी सबसे बड़ी शक्ति है।
संगीत, साहित्य और कला पर अमिट छाप
रवींद्रनाथ टैगोर की धुन से लेकर शास्त्रीय, लोक और आधुनिक प्रस्तुतियों तक—“वंदे मातरम” हर युग में नई ऊर्जा के साथ उभरा है।
भारतीय कलाओं में इसकी गूँज इतनी गहरी है कि साहित्य, कविता, नाटक और संगीत किसी न किसी रूप में इसे सम्मान देते हैं।
कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के विद्वान इसे “स्वदेशी आंदोलन का सबसे स्थायी उपहार” तक कह चुके हैं।
2002 के बीबीसी पोल में यह विश्व का दूसरा सबसे प्रिय गीत घोषित किया गया था—यह इसकी अंतरराष्ट्रीय स्वीकार्यता और भावनात्मक शक्ति को दर्शाता है।
स्वतंत्रता सेनानियों का अंतिम स्वर
भारत के क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास इस गीत के बिना अधूरा है।
अनगिनत सेनानी—भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, खुदीराम बोस, रामप्रसाद बिस्मिल—अपनी अंतिम क्षणों तक “वंदे मातरम” का उद्घोष करते रहे।
क्रांतिकारी धधकते दिलों में यह गीत साहस की लौ बनकर जलता था।
यह उनके लिए केवल राष्ट्रभक्ति नहीं, बल्कि आत्मबल और संकल्प का मंत्र था।
शिरीष कुमार: एक बच्चे की अमर कहानी
महाराष्ट्र के नंदुरबार में जन्मे बालक शिरीष कुमार की कहानी आज भी भाव-विभोर कर देती है।
गांधीजी के निर्देशन में जब बच्चे भी जुलूसों में शामिल हो रहे थे, तब शिरीष अपनी टोली का नेतृत्व करते हुए ऊँची आवाज़ में “वंदे मातरम” गा रहे थे।
ब्रिटिश अधिकारी ने उन्हें धमकी दी—“आगे बढ़े तो गोली चल जाएगी।”
पर बालक शिरीष के कदम नहीं रुके।
अंततः गोली चली, परंतु उनके अंतिम शब्द थे—“वंदे मातरम…”
यह कथा दर्शाती है कि यह गीत केवल देशभक्ति नहीं, बल्कि जीवटता और आत्मबल की वह शक्ति है जो बड़े-बड़े अत्याचारों के सामने भी झुकने नहीं देती।
राष्ट्रगीत के रूप में वंदे मातरम का स्थान
1950 में संविधान सभा ने “वंदे मातरम” को भारत का राष्ट्रगीत घोषित किया।
राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि इसे राष्ट्रगान “जन गण मन” के समान ही सम्मान मिलना चाहिए—और आज भी यह भावना भारतीयों में जीवित है।
स्कूलों, समारोहों, राष्ट्रीय उत्सवों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में यह गीत भारतीय एकता का स्मरण कराता है।
150 वर्षों की यात्रा—एक अमर पुकार
“वंदे मातरम” का 150 वर्ष पूरा होना केवल साहित्यिक स्मरण नहीं—यह भारत की उस आत्मा का उत्सव है जिसने हमें स्वतंत्रता दी, एकता दी और संस्कृति का आधार दिया।
यह गीत आज भी हमें याद दिलाता है कि भारत माता केवल एक भौगोलिक इकाई नहीं—वह एक चेतन शक्ति है, जो हर भारतीय के भीतर धड़कती है।
जब भी यह गीत गूँजता है, हम सभी एक क्षण के लिए रुककर अपनी मातृभूमि को नमन करते हैं—
उसकी मिट्टी को, उसकी नदियों को, उसकी हवा को, उसके इतिहास को और उन असंख्य बलिदानों को जिन्होंने हमें आज़ादी दी।
वंदे मातरम — आज भी उतना ही जीवंत, उतना ही प्रेरक, उतना ही भारतीय।
