25 जून का वो काला दिन जब देश में लगी इमरजेंसी, इंदिरा गांधी के एक फैसले ने घोट दिया था लोकतंत्र का गला

25 जून का वो काला दिन जब देश में लगी इमरजेंसी, इंदिरा गांधी के एक फैसले ने घोट दिया था लोकतंत्र का गला

आजादी के 25 साल बाद ही देश में जो कुछ हुआ, उसे उस दौर के लोग भूल नहीं पाते. लोकतांत्रिक देश में भी ऐसा कुछ हो सकता है, यह किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था.

यह भी कि लोकतांत्रिक देश की संसद में किसी दल की मजबूती का बेजा इस्तेमाल की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता. जी, हम बात कर रहे हैं इमरजेंसी की… वही इमरजेंसी, जिसके बारे में नई पीढ़ी को उतना ही पता होगा, जितना उसने पढ़ा या किसी से सुना होगा.

25 जून 1975 की रात काफी डरावनी बन गई. उस आधी रात को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी थी. अगली सुबह यानी 26 जून 1975 को पौ फटने के पहले ही विपक्ष के कई बड़े नेता हिरासत में ले लिए गए. यहां तक कि कांग्रेस में अलग सुर अलापने वाले चंद्रशेखर भी हिरासत में लिए गए नेताओं की जमात में शामिल थे.

इमरजेंसी की पृष्ठभूमि यहां से बनी

दरअसल 1971 में पाकिस्तान से बांग्लादेश को अलग कराने में इंदिरा गांधी की महत्वपूर्ण भूमिका थी. बंटवारे के बाद से ही भारतीय लोगों के मन में पाकिस्तान के प्रति नफरत का भाव रहा है. पाकिस्तान ने भी समय-समय पर अपने आचरण से किसी भारतीय को उसके प्रति धारणा बदलने का मौका नहीं दिया है.

खैर, पूर्वी पाकिस्तान को बांग्लादेश बनाने में इंदिरा की भूमिका को देखते हुए 1971 के आम चुनाव में जनता ने दिल खोलकर उनका साथ दिया. दो तिहाई बहुमत से कांग्रेस की जीत हुई, यानी इंदिरा गांधी ताकतवर बन गईं. इंदिरा गांधी रायबरेली से निर्वाचित हुईं. उनके प्रतिद्वंद्वी समाजवादी नेता राजनारायण ने चुनाव के दौरान इंदिरा की एक गड़बड़ी पकड़ ली और उसे लेकर पहुंच गए इलाहाबाद हाईकोर्ट.

क्यों आई इमरजेंसी लगाने की नौबत

रायबरेली में इंदिरा गांधी के चुनाव प्रभारी यशपाल कपूर एक आईएएस अफसर थे. चुनाव की घोषणा के आसपास ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया था, पर चुनावी प्रक्रिया शुरू हो जाने के कारण उनका इस्तीफा मंजूर नहीं हो पाया था. उन्हें या इंदिरा गांधी को शायद इसका अंदाजा तब नहीं रहा होगा कि इसकी कितनी महंगी कीमत उन्हें चुकानी पड़ सकती है. सोशलिस्ट नेता राजनारायण ने इसी आधार पर इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका लगा दी.

उन्हें भी हाईकोर्ट के उतने सख्त फैसले का कोई अनुमान नहीं रहा होगा. हाईकोर्ट ने इसी आधार पर 12 जून 1975 को इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध ठहरा दिया. ऊपरी अदालत में अपील के लिए मिली मोहलत में इंदिरा सुप्रीम कोर्ट गईं तो उन्हें आंशिक राहत मिली. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अंतिम फैसला आने तक इंदिरा लोकसभा की सदस्य बनी रह सकती हैं. अलबत्ता उनका वोटिंग राइट नहीं रहेगा.

खैर, इंदिरा ने मन से या बेटे के दबाव में, 25 जून 1975 की आधी रात को इमरजेंसी लगा दी. कैबिनेट से इसकी मंजूरी 26 जून की सुबह ली गई. कायदे से पहले कैबिनेट से इसे मंजूरी मिलनी चाहिए थी, फिर सरकार अधिसूचना जारी करती. 25 जून 1975 की आधी रात से शुरू हुई इमरजेंसी की त्रासदी देशभर के लोगों ने झेली. 21 महीने बाद 23 मार्च 1977 को इससे मुक्ति मिल पाई थी, जब देश में जनता पार्टी की सरकार बनी

इंदिरा गांधी की सरकार के खिलाफ मोर्चा खोले विपक्षी नेताओं से जेलें भरने लगीं. जयप्रकाश नारायण तो इंदिरा के खिलाफ आंदोलन के अगुआ ही बने थे. पहले दिन गिरफ्तार नेताओं में वे प्रमुख थे. जयप्रकाश नारायण समेत तकरीबन एक लाख राजनीतिक विरोधियों को देश की विभिन्न जेलों में डाल दिया गया था. पत्रकार भी जेल जाने से नहीं बचे. कुलदीप नैय्यर समेत लगभग 250 पत्रकार जेल में डाल दिए गए.

इमरजेंसी लगाने की एक और बड़ी वजह

इमरजेंसी की मूल वजह 25 जून 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में जयप्रकाश नारायण का वह कार्यक्रम था, जिसमें तिल रखने की भी जगह नहीं बची थी. इंदिरा को अदालती फैसले से अधिक भय जेपी के आंदोलन से था. बिहार से शुरू होकर जेपी मूवमेंट देशभर में फैलने लगा था. इंदिरा उसी से घबराई हुई थीं.

पहले तो बहुमत का बेजा लाभ उठाते हुए उन्होंने लोकसभा का कार्यकाल साल भर बढ़ाने का संशोधन संविधान में किया. ऊपर से इमरजेंसी में लोगों के मौलिक अधिकार तक छीन लिए गए थे. इमरजेंसी लगाने वाले संविधान के संशोधन में एक प्रावधान जन प्रतिनिधित्व कानून में परिवर्तन का भी था. प्रावधान किया गया कि सरकारी कर्मी का इस्तीफा सरकारी गजट में प्रकाशित हो जाने से ही काम चल जाएगा. इस्तीफा मंजूर करवाना जरूरी नहीं. शायद यह प्रावधान यशपाल कपूर के कारण उत्पन्न हुई स्थिति से बचने के लिए किया गया.

जानिए इमरजेंसी की कुछ त्रासद कहानियां

देश में आपातकाल लागू होने के बाद कई त्रासद घटनाएं हुईं. दिल्ली का तुर्कमान गेट कांड भी इनमें एक था. मुस्लिम बहुल उस इलाके को संजय गांधी ने दिल्ली के सौंदर्यीकरण के नाम पर खाली करा दिया. यह काम लोगों की सहमति से नहीं, बल्कि जबरन किया गया गया. बुल्डोजर से लोगों के घर ढहाए गए. जिन्होंने विरोध किया, उन्हें जेलों में ठूंस दिया गया. विरोध के दौरान पुलिस ने लाठियां बरसाईं और आंसू गैस के गोले छोड़े. पुलिस ने गोलियां भी चलाईं. चार लोगों की जान चली गई.

संजय गांधी ने तब तक परिवार नियोजन का अभियान छेड़ दिया था. तुर्कमान गेट के इलाके में बसे लोगों की मदद के लिए संजय गांधी की करीबी रुखसाना सुल्ताना ने आश्वासन तो दिया, लेकिन इसके लिए बंध्याकरण के रोजाना तीन सौ केस लाने की शर्त रखी. फिर सड़क से भिखारियों, झोपड़पट्टी के लोगों और राहगीरों को पकड़ कर जबरन नसबंदी के टार्गेट पूरे किए जाने लगे.

ऐसा तो अंग्रेजों के राज में भी नहीं था. विलायती शासन में भी कम से कम जनता को कोर्ट में जाने की छूट तो मिली हुई थी. बहरहाल, इंदिरा गांधी ने तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक 21 महीने की अवधि के लिए हर छह महीने बाद अवधि विस्तार के प्रावधान के साथ आपातकाल लगाया था. यानी 21 महीने तक जनता को इमरजेंसी की त्रासदी झेलनी पड़ी.

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top