अगस्त 1921 में जब केरल के मालाबार तट पर आग भड़की, तब किसी ने सोचा भी नहीं था कि स्थानीय किसानों का यह आंदोलन भारत के स्वतंत्रता संग्राम का सबसे दर्दनाक और भयानक अध्याय बन जाएगा। इसे मोपला विद्रोह, मालाबार विद्रोह या माप्पिला लहाला के नाम से जाना गया। शुरुआत में यह ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आंदोलन था, लेकिन जल्दी ही यह सांप्रदायिक हिंसा में बदल गया।
आज, सौ साल बाद भी सवाल वही है — क्या यह आज़ादी की लड़ाई थी, ज़मींदारी अन्याय के खिलाफ बगावत या धर्म के नाम पर हुआ खूनी नरसंहार?
यह लेख इतिहास, राजनीति और नैतिकता की नज़र से इस विद्रोह को समझने की कोशिश करता है — और खास तौर पर गांधीजी के खिलाफत आंदोलन से बने उस गठबंधन को देखता है, जिसे आज कई लोग दूरदर्शी सोच और दुखद भूल दोनों मानते हैं।
मालाबार: जमीन, किसान और विद्रोह
बीसवीं सदी की शुरुआत में केरल का मालाबार इलाका ब्रिटिश शासन के अधीन था। समाज की बनावट बेहद असमान थी — हिंदू जेनमी (मुख्यतः नंबूदरी ब्राह्मण और नायर) बड़े-बड़े ज़मींदार थे, जबकि माप्पिला मुसलमान, जो ज़्यादातर निचली जातियों से धर्मांतरित हुए थे, खेतों को किरायेदार की तरह जोतते थे।
टीपू सुल्तान (1782–1799) के शासन में किसानों को कुछ अधिकार मिले थे, लेकिन टीपू के पतन के बाद अंग्रेजों ने ज़मीन का मालिकाना हक फिर से जेनमियों को लौटा दिया। नतीजा यह हुआ कि किराया बढ़ा, बेदखली तेज़ हुई और किसान बेहाल हो गए। अदालतें भी ज़मींदारों के पक्ष में रहीं।
1836 से 1919 के बीच ब्रिटिश दस्तावेज़ों में 29 मोपला विद्रोहों का ज़िक्र मिलता है — जिन्हें अंग्रेज ‘कट्टरपंथी हिंसा’ कहते थे, लेकिन बहुत से इतिहासकार इन्हें कृषि न्याय की पुकार मानते हैं।
ऐसे तनावपूर्ण माहौल में दो बड़े आंदोलन आए — गांधीजी का असहयोग आंदोलन और खिलाफत आंदोलन, जो प्रथम विश्व युद्ध के बाद ओटोमन खलीफा की रक्षा के लिए शुरू हुआ था। जब अप्रैल 1920 में खिलाफत का असर मालाबार पहुँचा, तब धर्म, राष्ट्रवाद और किसान असंतोष एक साथ फटने को तैयार बारूद बन गए।
विद्रोह की आग: हिंदुओं पर हमला और आतंक
अगस्त 1921 में तिरुरंगड़ी की मस्जिद के कथित अपमान और खिलाफत नेताओं पर ब्रिटिश कार्रवाई ने पूरे मालाबार को आग की लपटों में झोंक दिया। जब पुलिस ने एक खिलाफत नेता को गिरफ्तार करने की कोशिश की, तो हज़ारों सशस्त्र माप्पिलों ने विद्रोह का बिगुल बजा दिया। कुछ ही दिनों में हिंसा एरनाड और वलुवनाड तक फैल गई।
शुरुआत में यह आंदोलन अंग्रेज़ों के खिलाफ़ एक औपनिवेशिक विद्रोह जैसा दिखा — थानों, रेलवे और सरकारी दफ्तरों पर हमले हुए, लेकिन जल्द ही इसका चेहरा बदल गया। वरियंकुन्नाथ कुंजहम्मद हाजी और अली मुसलियार जैसे नेताओं ने “मलयाला राज्य” यानी एक स्वतंत्र इस्लामी राज्य की घोषणा कर दी। यहाँ से धर्म का रंग राजनीति पर पूरी तरह हावी हो गया।
विद्रोही भीड़ ने हिंदू ज़मींदारों और आम नागरिकों पर हमला बोल दिया। ब्रिटिश और स्थानीय दस्तावेज़ों में हत्या, लूट, जबरन धर्मांतरण और मंदिरों की तोड़फोड़ के भयानक विवरण दर्ज हैं। अनुमान है कि 2,000 से लेकर 10,000 से अधिक हिंदू मारे गए। 1923 में दीवान बहादुर सी. गोपालन नायर ने थुवूर नरसंहार का वर्णन करते हुए लिखा कि कैसे दर्जनों हिंदुओं के सिर काटकर कुओं में फेंक दिए गए — यह उस दौर की सबसे भयावह घटनाओं में से एक थी।
ब्रिटिश दमन और हिंदुओं पर त्रासदी
अंग्रेज़ों ने विद्रोह का जवाब बेरहमी से दिया। मार्शल लॉ लागू किया गया और गोरखा रेजिमेंट तथा मालाबार स्पेशल पुलिस ने गाँव-गाँव जाकर विद्रोह को कुचल डाला।
दिसंबर 1921 तक यह आंदोलन समाप्त हो गया। लेकिन इसके बीच हुई ‘वैगन त्रासदी’ (10 नवंबर 1921) आज भी मालाबार की यादों में दर्ज है — जब 64 माप्पिला बंदी एक ट्रेन के डिब्बे में दम घुटने से मर गए।
गांधी का विरोधाभास: एकता की भारी कीमत
महात्मा गांधी, जो उस समय स्वतंत्रता आंदोलन का नैतिक चेहरा थे, इस त्रासदी में सीधे या परोक्ष रूप से शामिल हो गए क्योंकि उन्होंने खिलाफत आंदोलन के साथ गठबंधन किया था।
1919 में उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता के नाम पर खिलाफत का समर्थन किया — एक उदार लेकिन खतरनाक प्रयोग, जो मालाबार की ज़मीन पर जाकर कट्टरता और हिंसा से टकरा गया।
महात्मा गांधी ने कलकत्ता और मद्रास के भाषणों में कहा था:
“अगर मुसलमान खिलाफत के लिए असहयोग करते हैं, तो हर हिंदू का कर्तव्य है उनका साथ देना।”
लेकिन जब मालाबार से नरसंहार की ख़बरें आईं — जले हुए घर, मारी गई औरतें, धर्मांतरण और मंदिरों का विध्वंस — तब गांधी का रवैया गहरी आलोचना का कारण बना। उन्होंने मोपलाओं की हिंसा को “पागलपन” कहा, लेकिन दोष अंग्रेजों को दिया। विद्रोहियों को ‘साहसी, ईश्वर-भक्त लोग’ कहा जो “अपने धर्म के लिए लड़ रहे थे।
यहाँ तक कि उन्होंने हिंदू पीड़ितों से कहा:
“अगर तुम्हारे घर जल जाएँ और तुम्हारी स्त्रियाँ अपमानित हों, तब भी हिंदू-मुस्लिम एकता मत छोड़ो।”
इस बयान ने कई राष्ट्रवादियों को झकझोर दिया।
डॉ. भीमराव आंबेडकर ने इसे ‘रोंगटे खड़े करने वाली नैतिक विफलता’ कहा और गांधी पर ‘नैतिक अंधता’ का आरोप लगाया। एनी बेसेंट ने अपनी रिपोर्टों में गर्भवती महिलाओं की हत्या और मंदिरों की तोड़फोड़ के प्रमाण देकर गांधी की ‘निर्दयी चुप्पी’ की निंदा की। आधुनिक इतिहासकार आनंद रंगनाथन इसे “भारतीय राजनीति का पहला नैतिक सापेक्षतावाद” कहते हैं — जब एकता को न्याय से ऊपर रख दिया गया।
परिणाम: आज़ादी और विखंडन के बीच
सरकारी आंकड़ों के अनुसार 43 ब्रिटिश अधिकारी, 2,339 विद्रोही मारे गए और 45,000 से अधिक बंदी बनाए गए,लेकिन असल संख्या इससे कहीं ज़्यादा थी — हज़ारों हिंदुओं की हत्या या धर्मांतरण हुआ। 1922 तक गांधी का असहयोग आंदोलन भी धराशायी हो गया — पहले मालाबार की हिंसा और फिर चौरी-चौरा कांड के बाद। मालाबार की इस त्रासदी ने हिंदू समाज के भीतर गहरी चोटें छोड़ीं।
इन्हीं ज़ख्मों और असुरक्षा की भावना ने आगे चलकर राष्ट्रीय पुनर्जागरण और संगठन की नई धारा को जन्म दिया —और 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की स्थापना के पीछे यह एक प्रमुख प्रेरणा बनी।
आज का विवाद और गांधी की विरासत- आज़ादी के बाद इस घटना को नए अर्थ दिए गए। 1971 में केरल सरकार ने कई मोपला विद्रोहियों को ‘स्वतंत्रता सेनानी’ का दर्जा दिया — कुछ लोगों ने इसे इतिहास का ‘औपनिवेशिक अन्याय सुधारना’ कहा, जबकि दूसरों ने इसे ‘सांप्रदायिक हिंसा को महिमामंडित करने’ की कोशिश बताया। 2021 में भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद (ICHR) ने सुझाव दिया कि ऐसे नामों को शहीद सूची से हटाया जाए जिनका हिंसा से सीधा संबंध था और बहस फिर से भड़क उठी।
गांधी की विरासत पर भी सवाल कायम हैं।
कुछ लोग कहते हैं कि महात्मा गांधी ने विद्रोह को ‘किसान असंतोष’ माना जो बाद में कट्टरपंथियों के हाथों चला गया, जबकि आलोचक कहते हैं कि उन्होंने आक्रमणकारियों को महिमामंडित किया और हिंदू पीड़ितों को भुला दिया।
गांधी के भाषणों में उन्होंने कहा था कि मोपला हिंसा “खिलाफत के खिलाफ पाप” थी —न कि हिंदुओं के खिलाफ अपराध। उन्होंने पीड़ितों से कहा कि वे ‘बिना क्रोध के सहन करें।’ कुछ लोगों को यह महात्मा का धैर्य लगा, लेकिन कईयों को यह न्याय से पलायन लगा।
एक न भरने वाला घाव: इतिहास की चेतावनी
सौ साल बाद भी मोपला विद्रोह एक चेतावनी और दर्पण दोनों है। यह दिखाता है कि धार्मिक जोश और राजनीतिक आंदोलन जब मिल जाते हैं, तो न्याय और मानवता सबसे पहले कुचल जाती हैं।
ब्रिटिशों के लिए यह दमन का बहाना बना, कांग्रेस के लिए एकता का पतन, मालाबार के हिंदुओं के लिए दुःस्वप्नऔर गांधी के लिए एक नैतिक परीक्षा — जिसे वह शायद कभी पास नहीं कर पाए।
आज जब कुछ लोग इन विद्रोहियों को “स्वतंत्रता सेनानी” बताकर सम्मानित करते हैं, तो भारत को यह याद रखना चाहिए कि इतिहास मिटाने से नहीं, सच स्वीकारने से सुधरता है।
मोपला विद्रोह न तो केवल “जिहाद” था, न ही सिर्फ “किसान आंदोलन” — यह था आस्था, हिंसा और राजनीति की त्रासदी, जो हमें याद दिलाती है कि जब धर्म और सत्ता मिलते हैं, तो न्याय और करुणा सबसे पहले मरती हैं।
डॉ. आंबेडकर के शब्दों में:
“मालाबार में आज़ादी खून की लहर पर सवार होकर आई थी।”
यह वाक्य आज भी गूंजता है — हमें याद दिलाने के लिए कि भारत को यह भी याद रखना चाहिए कि कौन लड़ा — और कौन मारा गया।
1921 का मोपला विद्रोह: वे सच जो इतिहास के पन्नों में दबे रह गए
मालाबार की मिट्टी में भड़की 1921 की आग ने इतिहास की दिशा ही बदल दी। यहाँ कुछ ऐसे तथ्य हैं, जो इस उथल-पुथल भरे अध्याय की अनकही सच्चाइयों को उजागर करते हैं — वो पहलू, जिनसे यह कहानी और भी गहरी हो जाती है।
1. ‘मालाबार’ शब्द की जड़ें – मेल और मिलन की कहानी
‘मालाबार’ नाम ही इस भूमि के सांस्कृतिक संगम का प्रतीक है। यह दो शब्दों से बना है — “मला” (मलयालम में पहाड़) और अरबी शब्द “बर्र” (भूमि या अच्छाई का स्रोत)। यह नाम उस पुरानी साझी परंपरा की याद दिलाता है, जब अरब व्यापारी, स्थानीय हिंदू और परिवर्तित मुसलमान सदियों तक साथ रहते थे।
1921 से पहले मालाबार के गाँवों में धर्म नहीं, दोस्ती का शासन था — हिंदू ‘नेरचा’ त्योहारों में मुसलमान शामिल होते और मुसलमान मंदिरों के ‘उत्सवों’ में भाग लेते। 1921 की त्रासदी की सबसे बड़ी विफलता यही थी — सदियों की उस सांप्रदायिक एकता का टूटना।
2. अली मुसलियार – संत, विद्रोही और ‘मालाबार के उप्पप्पा’
मोपला विद्रोह के नेताओं में अली मुसलियार सबसे अलग थे। अंग्रेज़ों के लिए वे ‘फैनैटिक’ यानी कट्टरपंथी थे, जिन्हें व्यंग्य में ‘किंग ऑफ मालाबार’ कहा गया, लेकिन स्थानीय लोगों के लिए वे ‘मुसलियार उप्पप्पा’ — यानी “मालाबार के दादा” थे। वे सत्ता के भूखे नहीं थे, बल्कि धार्मिक आस्था और विनम्रता से जनता के दिलों में जगह बनाई।
लोग उन्हें गरीबों का रक्षक, मजलूमों की आवाज़ और कुरान हाथ में लेकर अन्याय के खिलाफ़ खड़े होने वाले संत के रूप में देखते थे।
उनका राज्य राजनीतिक नहीं, बल्कि नैतिक था — मालाबार की आत्मा का प्रतीक।
3. हिंदू सहयोगी जिन्हें इतिहास ने भुला दिया
अक्सर मोपला विद्रोह को केवल मुस्लिम आंदोलन बताया जाता है, लेकिन शुरुआत में कई हिंदू किसान भी इस संघर्ष में शामिल हुए — खासकर वलुवनाड क्षेत्र में। उन्होंने ब्रिटिश कार्यालयों और ज़मींदारों की जायदादों पर हमले किए।
ब्रिटिश अधिकारी आर.एन. हिचकॉक ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि ‘प्रारंभिक चरण में हिंदू और मुसलमान साथ थे — उन्हें जोड़ने वाली चीज़ धर्म नहीं, बल्कि अन्याय के खिलाफ़ गुस्सा था।’
यह दिखाता है कि विद्रोह की शुरुआत किसान न्याय की लड़ाई के रूप में हुई थी, जिसे बाद में सांप्रदायिक हिंसा ने निगल लिया।
4. भूला हुआ देशभक्त – एम.पी. नारायण मेनन
एम.पी. नारायण मेनन एक हिंदू वकील और खिलाफत समर्थक थे, जिन्होंने सांप्रदायिक दीवारों को तोड़ने की कोशिश की। उन्होंने माप्पिलाओं की तरह लुंगी पहनी, उनके साथ खेतों में काम किया और उनकी भूमि अधिकार की लड़ाई लड़ी। अपने समाज से बहिष्कृत होने के बावजूद, उन्होंने गांधीजी को चेताया कि ‘अशिक्षित किसानों से अहिंसा की उम्मीद करना खतरनाक भ्रम है। उनकी यह भविष्यवाणी सही साबित हुई।
उन्हें गिरफ्तार कर 14 साल की सज़ा दी गई और अंडमान भेजा गया —जहाँ वे भूले गए, यहाँ तक कि कांग्रेस ने भी उनका साथ छोड़ दिया। उनका जीवन उस भूले हुए आदर्शवाद की याद दिलाता है, जो हिंसा की आँधी में खो गया।
5. ब्रह्मदत्तन नंबूदरी – वह ब्राह्मण जिसने जाति से ऊपर जनता को चुना
ब्रह्मदत्तन नंबूदरी एक परंपरावादी ब्राह्मण थे, जिन्होंने खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया और मंदिर प्रांगण में मिश्रित जनसभा को संबोधित किया। इसके बाद उन्हें समाज से बहिष्कृत कर दिया गया — पूजा, प्रतिष्ठा और पहचान सब छीन ली गई।
उनकी आत्मकथा ‘खिलाफत स्मरणकल’ में जेल की रातों, टूटते मानसिक संतुलन और अपने ही लोगों द्वारा ‘देशद्रोही’ कहलाने का दर्द झलकता है। उनकी कहानी यह दिखाती है कि यह विद्रोह केवल इतिहास नहीं, बल्कि गहरी मानवीय पीड़ा भी था।
6. एलया नायर – अपने ही वर्ग के खिलाफ़ खड़ा ज़मींदार
मन्नारघाट कोचुन्नी एलया नायर एक जमींदार थे जिन्होंने अपने वर्ग की अन्यायपूर्ण परंपरा को ठुकरा दिया। उन्होंने माप्पिला नेताओं सीथी कोया थंगल के साथ मिलकर हथियारों के लिए धन जुटाया, ज़मींदारी रेकॉर्ड जलाए और ब्रिटिश समर्थक व्यापारियों पर हमले किए।
बाद में उन्हें झूठे आरोपों में फँसाकर उनके ही विरोधियों ने धोखा दिया — यह दिखाता है कि इस आंदोलन में स्थानीय राजनीति और निजी दुश्मनी भी गहराई से जुड़ी थी।
7. अनदेखे पीड़ित – निचली जाति के हिंदू
इतिहास अक्सर मोपला विद्रोह को “उच्च हिंदू बनाम मुस्लिम किसान” के रूप में पेश करता है, लेकिन असली मार झेली अवर्ण हिंदुओं (थिय्या, पुलया, दलित) ने। कई मारे गए, कई जबरन धर्मांतरित हुए और कुछ ने जाति उत्पीड़न से बचने के लिए खुद धर्म बदला,
पर अंत में फिर हिंसा का ही शिकार बने। यह बताता है कि इस विद्रोह में धर्म के साथ-साथ जाति और वर्ग की त्रासदी भी शामिल थी।
8. राजनीतिक असर – कांग्रेस से कम्युनिज़्म तक
मोपला विद्रोह के बाद गांधी की चुप्पी और कांग्रेस की कमजोरी ने मालाबार के मुसलमानों को निराश कर दिया। 1930 के दशक तक कम्युनिस्ट आंदोलन और मुस्लिम लीग ने उस खालीपन को भर दिया। यही दौर आगे चलकर केरल में वामपंथी राजनीति की जड़ें बना —
और मोपला विद्रोह इसका बीज साबित हुआ।
9. साझा संघर्ष की भूली हुई विरासत
1921 से पहले भी मालाबार ने देखा था कि हिंदू और मुसलमान मिलकर विदेशी ताकतों का विरोध करते थे। 18वीं सदी में ज़मोरिन के नेतृत्व में दोनों समुदायों ने पुर्तगाली और ब्रिटिश हमलों के खिलाफ़ मिलकर न्याय की रक्षा के लिए लड़ाई लड़ी थी — यह “धार्मिक युद्ध” नहीं, बल्कि साझा स्वतंत्रता का संघर्ष था। 1921 की हिंसा ने उसी परंपरा को कलंकित कर दिया।
10. केरल में याद, बाकी देश के हिस्सों में भुला दिया गया
इतनी बड़ी ऐतिहासिक घटना के बावजूद, मोपला विद्रोह को केरल के बाहर बहुत कम लोग जानते हैं। कुछ इसे दक्षिण भारत का पहला बड़ा राष्ट्रीयतावादी आंदोलन मानते हैं, तो कुछ इसे सांप्रदायिक नरसंहार कहते हैं। 1971 में केरल सरकार ने कई माप्पिलाओं को “स्वतंत्रता सेनानी” का दर्जा दिया, पर 2021 में ICHR ने सुझाव दिया कि हिंसा में शामिल नामों को “शहीद सूची” से हटाया जाए।
यह बहस आज भी जारी है — क्योंकि इस विद्रोह की पहचान आज भी दोहरी है — किसी के लिए प्रतिरोध का प्रतीक, तो किसी के लिए भय का स्मारक।
मालाबार की अधूरी कहानी
1921 का मोपला विद्रोह किसी एक नारे या वर्ग में सीमित नहीं था। यह आस्था और आक्रोश, आदर्श और पहचान — सबका मिश्रण था। कई लोग, चाहे हिंदू हों या मुसलमान, अमीर हों या गरीब — अपने-अपने ढंग से “न्याय” के लिए लड़े।
सौ साल बाद भी यह विद्रोह भारत के सामने वही सवाल रखता है — एकता कैसे बनी रहे बिना सच्चाई छुपाए और आज़ादी कैसे मिले बिना इंसानियत खोए। जैसा कि के. माधवन नायर ने लिखा था:
“इतिहास सिर्फ़ वो नहीं जो हुआ, बल्कि वो भी है जो हम याद रखना चुनते हैं।”
मोपला विद्रोह आज भी ज़िंदा है — अब तलवारों से नहीं, बल्कि हमारी सामूहिक स्मृति में।
