1990 का कश्मीरी पंडित पलायन: एक राष्ट्र द्वारा भुलाया गया जनसंहार

साल 1990 की सर्दियों में कश्मीर की वादियाँ बर्फ से नहीं, खून और डर से लाल थीं। जहाँ कभी मंदिरों में घंटियाँ बजती थीं, जहाँ झेलम के घाटों पर पूजा-पाठ होता था — वहीं मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से नारे गूंज रहे थे: “रालिव, गालिव या चालिव — धर्म बदलो, मर जाओ या भाग जाओ।”

यहीं से शुरू हुआ भारत के इतिहास का एक काला अध्याय — कश्मीरी पंडितों का पलायन, जो अपने ही घरों से डर, हिंसा और अपमान के कारण भागने पर मजबूर हुए।

जनवरी से मार्च 1990 के बीच, करीब पाँच लाख कश्मीरी पंडित — पुरुष, महिलाएँ, बच्चे और बुजुर्ग — रात के अँधेरे में अपने घर छोड़कर भाग गए। वे अपने मंदिर, घर और यादें पीछे छोड़ आए। पर जो चीज़ वे नहीं छोड़ पाए, वो थी डर और अपने खोए हुए अपनों की यादें।

जब कश्मीर ने अपने ही लोगों को ठुकरा दिया यह सिर्फ एक ‘पलायन’ नहीं था, यह एक योजनाबद्ध हिंसा थी। पाकिस्तान की आईएसआई के समर्थन से आतंकियों ने “आजादी” के आंदोलन को “जिहाद” में बदल दिया। उन्होंने कश्मीरी पंडितों को ‘काफ़िर’ और ‘भारत के समर्थक’ मानकर निशाना बनाया।

हत्याएँ चुन-चुनकर की गईं — ताकि पूरा समाज डर जाए और भागे।

  • 14 सितंबर 1989: टीका लाल टपलू, पंडित वकील और भाजपा नेता, को उनके घर के बाहर गोली मार दी गई — यह पहला संकेत था।
  • 4 नवंबर 1989: जस्टिस नीलकंठ गंजू, जिन्होंने मकबूल भट को सजा दी थी, को दिनदहाड़े मारा गया।
  • दिसंबर 1989: चार वायुसेना अधिकारियों का अपहरण कर हत्या कर दी गई।

जनवरी 1990 तक मस्जिदों से खुलेआम धमकियाँ दी जा रही थीं —

“पंडितों, कश्मीर छोड़ दो, वरना मारे जाओगे।”

उस सर्दी में मौत हर पंडित के दरवाजे तक पहुँच चुकी थी।

19 जनवरी 1990: जब पूरी घाटी अंधेरे में डूब गई

यह रात आज भी ‘निर्वासन दिवस’ के नाम से याद की जाती है। उस रात घाटी की हर मस्जिद से नफरत भरे नारे गूंजे। सड़कों पर भीड़ “हम चाहते हैं निजाम-ए-मुस्तफ़ा” के नारे लगा रही थी। बंदूकधारी लोग पंडितों के घरों पर गोलियाँ चला रहे थे, दीवारों पर महिलाओं के नाम लिखे जा रहे थे, मंदिर तोड़े जा रहे थे।

परिवारों ने जल्दी-जल्दी कुछ ज़रूरी चीज़ें समेटीं — भगवान की मूर्तियाँ, तस्वीरें, और राख —और उन ट्रकों में बैठकर भाग निकले,
जिन्हें वही प्रशासन चला रहा था जिसे उनकी रक्षा करनी थी।

राज्यपाल जगमोहन की सरकार बस देखती रह गई — यह असमर्थता थी या मिलीभगत, आज तक कोई तय नहीं कर पाया। सुबह होते-होते पंडित चले गए, और कश्मीर अपनी आत्मा खो बैठा।

वह क्रूरता, जिस पर सब चुप रहे

हर आँकड़े के पीछे एक दर्द है। दुनिया आज भी बहस करती है — कितने मरे, 200 या 400 — पर जिनके अपने गए, उनके लिए हर संख्या एक ज़िंदगी थी।

गिरिजा टिक्कू — बांदीपोरा की एक युवा महिला। उसे एक पुराने सहकर्मी ने कहा कि अब लौट आओ, सब सुरक्षित है। वह वेतन लेने लौटी, पर वापस कभी नहीं आई। उसे अगवा किया गया, उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया, और फिर लकड़ी की आरी से जिंदा काट दिया गया।

उसकी लाश देखकर लोग भी काँप उठे। उसके हत्यारे कभी सजा नहीं पाए गए। सरला भट, एक नर्स — जिनके साथ अस्पताल में ही अत्याचार हुआ और हत्या की गई। प्रेम नाथ भट, जिन्हें सिर्फ सच बोलने की वजह से मारा गया।

1989 से 1991 के बीच, करीब 400–600 पंडित मारे गए, सैकड़ों महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ और 50 से अधिक मंदिर नष्ट किए गए। संख्या चाहे जो भी रही हो — उद्देश्य एक ही था: पूरा समुदाय खत्म करना।

एक संस्कृति का विस्थापन

1990 का यह पलायन सिर्फ लोगों का नहीं, बल्कि एक सभ्यता का टूटना था। कश्मीरी पंडित, जो हज़ारों सालों से ज्ञान, संस्कृति और पूजा के प्रतीक थे, अब अपने ही देश में शरणार्थी बन गए।

वे जम्मू, दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों में टेंटों में रहने को मजबूर हुए। उनके पास न घर रहे, न मंदिर, न पहचान। दशकों बाद भी उनका दर्द वही है। सरकारों ने कई बार पुनर्वास के वादे किए, पर ज़मीन पर ज़्यादा कुछ नहीं बदला।
2008 में मनमोहन सिंह सरकार की राहत योजना और 2019 में अनुच्छेद 370 हटने के बाद की उम्मीदें — दोनों अधूरी रह गईं।

कुछ सौ परिवार लौटे भी, तो कड़ी सुरक्षा में, पुराने मोहल्लों में नहीं बल्कि अलग कॉलोनियों में।

गिरिजा टिक्कू: एक नाम जो आज भी झकझोरता है गिरिजा टिक्कू की कहानी सिर्फ एक महिला की नहीं, बल्कि पूरे समुदाय की पीड़ा की प्रतीक बन चुकी है। वह सरकारी लैब में सहायक थी। आतंक के बढ़ते हालातों में वह अपने परिवार के साथ जम्मू चली गई थी।

पर जून 1990 में एक कॉल आई — कहा गया कि अब हालात सामान्य हैं, वेतन लेने लौट आओ। वह लौटी — और फिर कभी वापस नहीं आई। उसे अगवा किया गया, प्रताड़ित किया गया और जिंदा आरी से काट डाला गया।

सालों बाद उनकी भतीजी सिधि रैना ने सोशल मीडिया पर लिखा —

“मेरी बुआ गिरिजा टिक्कू वेतन लेने लौटी थीं। उन्होंने सोचा, अब खतरा नहीं है। लेकिन जिन लोगों पर भरोसा किया, वही उन्हें मारने वाले निकले।”

यह पोस्ट पूरे देश को हिला गई।
The Kashmir Files (2022) फ़िल्म में इस घटना को दिखाया गया — एक सच्चाई जिसे लंबे समय तक छिपाया गया था।

आज तक गिरिजा टिक्कू के हत्यारों को सजा नहीं मिली। वह नाम आज भी न्याय की प्रतीक्षा में है —

भारत के अंतर्मन की एक पुकार:

“जब तक न्याय नहीं होगा, कश्मीर की बर्फ फिर सफेद नहीं होगी।”

वह सन्नाटा जो बाकी रह गया

जो हुआ, उससे भी ज्यादा डरावना था उस पर पड़ा सन्नाटा। दुनिया ने मुँह फेर लिया। मीडिया ने इसे “पलायन” कहा — जैसे लोग स्वेच्छा से जा रहे हों, न कि मौत से बचने के लिए।

सरकार ने राहत कार्ड दिए, पर न्याय नहीं दिया। दशकों तक पंडित टेंटों में रहे, उनका दर्द आँकड़ों और रिपोर्टों में खो गया। आज भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे “Genocide” नहीं माना गया। कभी “Ethnic Cleansing” कहा गया, पर शब्द बदलने से सच्चाई नहीं बदलती।

संयुक्त राष्ट्र ने कोई जांच नहीं की, मानवाधिकार संस्थाओं ने रिपोर्ट लिखीं, पर फिर भूल गए। घाटी आगे बढ़ गई, लेकिन पीड़ित वहीं रह गए।

एक सभ्यता निर्वासन में

35 साल बाद भी, कश्मीरी पंडित अपने ही देश में बेघर हैं। कभी जहाँ करीब 1.7 लाख पंडित रहते थे, अब मुश्किल से 3 से 5 हजार ही बचे हैं — वो भी सैनिक सुरक्षा के बीच, मानो किसी स्मारक का हिस्सा हों।

उनके मंदिर खंडहर हैं, घर दूसरों के कब्ज़े में हैं, भाषा, ललदेद के भजन, शारदा लिपि — सब धीरे-धीरे खो गए हैं।

एक विश्वासघात की कहानी

यह कोई अचानक हुई घटना नहीं थी। यह एक सोची-समझी साजिश थी — जो सरकार की आँखों के सामने हुई। कश्मीरी पंडित इस हिंसा के “शिकार” नहीं थे, वे पहला निशाना थे।

लेकिन न कोई जांच हुई, न कोई अपराधी सजा पाया। कुछ हत्यारे नेता बन गए, कुछ कार्यकर्ता। दुनिया में हर जगह मानवाधिकारों की बात होती है, पर कश्मीरी पंडितों के आँसू आज भी अनसुने हैं।

अधूरा न्याय

आज “The Kashmir Files” जैसी फ़िल्मों ने इस दर्द को फिर सामने लाया है। लेकिन न्याय अब भी अधूरा है। गिरिजा टिक्कू का केस अब भी अदालत में नहीं पहुँचा, पुनर्वास अब भी अधूरा है और 19 जनवरी 1990 की रात — आज भी एक खुला ज़ख्म है।

जैसा एक बचे हुए पंडित ने कहा था —

“हमने अपना घर एक बार खोया और अपनी आवाज़ हर दिन ।”

अधूरा न्याय

1990 में कश्मीर में जो हुआ, वह सिर्फ एक समुदाय का विस्थापन नहीं था — वह भारत की आत्मा की मौत थी। एक सभ्यता उजाड़ दी गई, एक संस्कृति मिटा दी गई और पूरी दुनिया चुप रही।

आज सवाल यह नहीं है कि “क्यों हुआ?” बल्कि यह है कि “क्यों किसी को फर्क नहीं पड़ा कि हुआ?” जब तक सच को स्वीकार नहीं किया जाता, जब तक न्याय नहीं मिलता, और जब तक कश्मीरी पंडितों के गीत फिर से उस घाटी में नहीं गूंजते जहाँ वे जन्मे थे — तब तक कश्मीर की बर्फ़ सफेद नहीं होगी। वह शर्म और सन्नाटे से दागी रहेगी।

भारतीय सरकार की विफलता पर आलोचनाएँ

1990 में कश्मीरी पंडितों के साथ जो हुआ — हत्या, बलात्कार और लाखों लोगों का विस्थापन — वह भारत के इतिहास का सबसे दुखद और उपेक्षित अध्याय है। कई लोग इसे ‘जनसंहार’ या ‘सांप्रदायिक सफाया’ कहते हैं।

करीब पाँच लाख कश्मीरी पंडित अपने ही वतन से भागने पर मजबूर हुए, आतंकवाद और सरकार की निष्क्रियता के बीच।

तीन दशक बाद भी देश और दुनिया के कई नेता, मानवाधिकार संगठन और कार्यकर्ता यह कहते हैं कि भारत की सरकारें — चाहे कोई भी रही हों — तीन चीज़ों में असफल रहीं:

  • हिंसा रोकने में
  •  न्याय देने में
  • विस्थापितों को वापस बसाने में

नीचे कुछ प्रमुख आवाज़ें हैं जिन्होंने इस असफलता पर खुलकर बोलने की हिम्मत की —

1. बॉब ब्लैकमैन (ब्रिटिश सांसद) — विश्व स्तर पर न्याय की माँग

ब्रिटेन के सांसद बॉब ब्लैकमैन, जो ऑल पार्टी पार्लियामेंट्री ग्रुप फॉर ब्रिटिश हिंदूज़ के अध्यक्ष हैं, कश्मीरी पंडितों के न्याय की माँग करने वाली सबसे मुखर विदेशी आवाज़ों में से हैं।

उन्होंने ब्रिटिश संसद में एक प्रस्ताव रखा, जिसमें 1990 की घटनाओं को ‘जनसंहार’ कहा गया। उन्होंने भारत और अंतरराष्ट्रीय समुदाय से इसे आधिकारिक रूप से मान्यता देने की अपील की। ब्लैकमैन ने कहा कि भारत की लगातार सरकारें ‘अपने नागरिकों के दर्द को नज़रअंदाज़ करती रही हैं’ और तीन दशक बाद भी न न्याय मिला, न पुनर्वास।

उन्होंने भारत से Genocide Prevention Law (जनसंहार निवारण कानून) लाने की माँग की। उन्होंने The Kashmir Files (2022) फिल्म की सराहना की कि उसने दुनिया का ध्यान इस मुद्दे पर खींचा, लेकिन दुख जताया कि “नीति नहीं, एक फिल्म” ने सच्चाई सामने रखी।

2. Genocide Watch — अंतरराष्ट्रीय आरोप

अमेरिका स्थित संगठन Genocide Watch, जिसे प्रसिद्ध विद्वान डॉ. ग्रेगरी स्टैंटन ने स्थापित किया, ने कश्मीरी पंडितों की त्रासदी को ‘उत्पीड़न और विस्थापन के ज़रिए किया गया जनसंहार’ बताया है।

2023 की रिपोर्ट में संगठन ने कहा कि भारत सरकार की उस समय की चुप्पी और आज तक की निष्क्रियता ‘राज्य की मिलीभगत से हुआ जातीय सफाया’ दर्शाती है।

रिपोर्ट में कहा गया कि न तो कोई सत्य एवं मेल-मिलाप आयोग बना, न ही किसी अपराधी को सज़ा मिली — इससे सच्चाई को दबाने का माहौल बना। Genocide Watch ने भारत से स्वतंत्र जांच आयोग बनाने और Genocide Prevention Act लागू करने की माँग की, यह कहते हुए —

“कोई भी लोकतंत्र तब तक नैतिक नेतृत्व का दावा नहीं कर सकता, जब तक वह अपने विस्थापित नागरिकों को न्याय नहीं देता।”

3. अरुंधति रॉय — अलग लेकिन तीखी आलोचना

लेखिका और कार्यकर्ता अरुंधति रॉय ने कहा कि भारत सरकार ने न केवल 1990 में पंडितों की रक्षा करने में असफलता दिखाई, बल्कि बाद में उनके दर्द को राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल भी किया। उन्होंने अपने लेखों (The Nation और Al Jazeera आदि) में लिखा कि जिस घटना में कांग्रेस की सरकार ने ‘त्याग’ किया, बाद की भाजपा सरकार ने उसी घटना को ‘राजनीतिक हथियार’ बना लिया।

‘पंडितों को पहले छोड़ा गया, फिर उनके दर्द को राजनीति का औज़ार बना दिया गया,”  वह लिखती हैं। “उनका दुख याद तो किया गया, पर सच्चे अर्थों में समझा नहीं गया।”

4. ह्यूमन राइट्स वॉच और एमनेस्टी इंटरनेशनल — जवाबदेही से बचना

Human Rights Watch (HRW) और Amnesty International दोनों ने भारत की भूमिका पर कड़ी आलोचना की है। HRW ने 1996 में अपनी रिपोर्ट में लिखा कि “राज्य की असहायता के बीच कश्मीर में हिंदू अल्पसंख्यकों का सफाया हुआ।” रिपोर्ट में कहा गया कि हत्याओं के दोषियों पर न मुकदमे चले, न किसी को सज़ा मिली, और न ही विस्थापितों को न्याय या सुरक्षा दी गई।

Amnesty International ने 2022 में कहा —

“लगातार सरकारें कश्मीरी पंडितों को न्याय देने में विफल रही हैं। उन्होंने केवल आश्वासन दिए, लेकिन ठोस कदम नहीं उठाए।”

दोनों संगठनों ने स्वतंत्र जांच आयोग और पुराने मामलों की पुनः जांच की माँग की।

5. अखिलेश यादव — राजनीति और पाखंड पर सवाल

अखिलेश यादव, समाजवादी पार्टी प्रमुख और यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री, ने कहा कि भाजपा सरकार पंडितों के दर्द को ‘राजनीतिक प्रचार’ की तरह इस्तेमाल करती है।

2022 में उन्होंने कहा — “भाजपा पंडितों के दुख पर भाषण देती है, लेकिन तीस साल बाद भी उनका पुनर्वास अधूरा है।”

उन्होंने कहा कि 2019 में अनुच्छेद 370 हटाने के बाद भी कोई ठोस पुनर्वास योजना सामने नहीं आई। “न्याय भाषणों से नहीं मिलेगा, बल्कि असली कदमों से — अपराधियों की सज़ा और राज्य की जिम्मेदारी स्वीकारने से।”

6. कश्मीरी पंडित संगठन और प्रवासी समूह — जख्म से उठती आवाज़ें

सबसे दृढ़ आवाज़ें खुद कश्मीरी पंडितों की हैं — जैसे Panun Kashmir, Roots in Kashmir, और Global Kashmiri Pandit Diaspora।

कार्यकर्ता सुशील पंडित और अशोक पंडित ने कहा —

“हमें युद्ध ने नहीं, उपेक्षा ने मारा। पहले पड़ोसियों ने छोड़ा, फिर अपने देश ने।”

ये संगठन घाटी में पंडितों के लिए अलग सुरक्षित क्षेत्र की माँग करते हैं। उनका कहना है कि जब तक हिंसा को कानूनी रूप से जनसंहार नहीं माना जाएगा, तब तक न्याय नहीं मिलेगा।

अब भी अनुत्तरित सवाल

कोई भी राजनीतिक दल हो — सच्चाई यह है कि भारत ने अपने नागरिकों को बचाने में असफलता दिखाई। यह घटना दिखाती है कि जब राजनीति इंसानियत से ऊपर चली जाती है, तो इतिहास शर्मिंदा हो जाता है।

तीस साल से ज़्यादा हो गए — सरकारें बदलीं, नारे बदले, फिल्में बनीं — लेकिन न्याय अब भी दूर है। हत्यारे खुले घूम रहे हैं, पीड़ित बूढ़े हो गए हैं, और घाटी अब भी उन मंदिर घंटियों की प्रतीक्षा कर रही है जो कभी वहाँ गूंजती थीं।

जब तक भारत अपने अतीत का सच स्वीकार नहीं करता और न्याय नहीं देता — यह सवाल हमेशा रहेगा:

“कौन बोलेगा पंडितों के लिए — और किसने उनकी आवाज़ दबा दी?”

क्रोध की पुकार: उन सबके लिए जिन्होंने देखा — और कुछ नहीं किया

पैंतीस साल बीत गए — लेकिन एक भी सरकार में इतनी हिम्मत नहीं हुई कि सच्चाई पूरी बोले। कांग्रेस ने इसे शुरू होते देखा। नेशनल कॉन्फ्रेंस चुप रही। भाजपा ने हमारे दर्द को नारे में बदल दिया।

हर सरकार ने हमें धोखा दिया — गलती से नहीं, बल्कि जानबूझकर। वे तब असफल रहे जब गलियों में नारे गूंजे —

“Raliv, Galiv, ya Chaliv” (धर्म बदलो, मर जाओ या भागो)। वे तब भी चुप रहे जब मंदिर जलाए गए और लाशें सड़कों पर पड़ी थीं।
जब हमने न्याय माँगा, उन्होंने हमें सिर्फ टेंट और राशन कार्ड दिए।

तीन दशक तक उन्होंने सत्य आयोग नहीं, बल्कि मूर्तियाँ बनाईं। उन्होंने हमारे घर नहीं, बल्कि टीवी पर दीये जलाए। उन्होंने “कश्मीरियत” की बात की, लेकिन उसी को मार दिया जो उसका प्रतीक था।

आज मैं यह बात राजनीति से नहीं, बल्कि जख्म से कहता हूँ —हर सरकार ने, जिस दिन हम अपने घरों से निकले थे, उस दिन से लेकर आज तक हमें धोखा दिया है।

मैं एक हिंदू हूँ, एक पंडित हूँ, उस भूमि का वंशज जहाँ शिव ने हिमालय की बर्फ़ पर तांडव किया था। मुझे अपने धर्म पर नहीं — अपने राष्ट्र की चुप्पी पर शर्म है।

शर्म है कि हमारे जनसंहार को सिर्फ़ एक चुनावी मुद्दा बना दिया गया। शर्म है कि हमारे मरे हुए लोगों की कहानी सिर्फ़ एक “बहस” बनकर रह गई।

अगर यह किसी और समुदाय के साथ हुआ होता — क्या तब भी इतना सन्नाटा होता? क्या न्याय अब तक अधूरा रहता?
क्या हत्यारे अब भी आज़ाद घूम रहे होते?

आप कहते हैं — कश्मीर धरती का स्वर्ग है। हमारे लिए, वह अंतरात्मा का कब्रिस्तान बन चुका है। हम दया नहीं चाहते। हम चाहते हैं पहचान, हम चाहते हैं न्याय — अभी, इसी पीढ़ी में, न कि अगले तीस सालों में। जब तक वह दिन नहीं आता, भारत को हमारे इस सवाल के साथ जीना होगा —

“कौन-सा लोकतंत्र अपने ही मरे हुए लोगों को भूल सकता है?”

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