वॉशिंगटन की महफ़िल में पाकिस्तान का नाच
दुनिया की ख़ुफ़िया एजेंसियों के अंधेरे गलियारों में सच शायद ही कभी उजाले में आता है। वह छिपा रहता है – गुप्त संदेशों में, बैकडोर कूटनीति में और अनगिनत पैसों से भरे ब्रीफ़केसों में।
कभी-कभी कोई अंदरूनी व्यक्ति परदा हटाता है — किसी एक स्कैंडल को नहीं, बल्कि पूरे उस तंत्र को उजागर करने के लिए जो रहस्य, फ़ायदे और छल पर टिका है।
इस बार वह आवाज़ है जॉन किरियाकू की — पूर्व CIA अधिकारी, व्हिसलब्लोअर, और कुछ गिने-चुने अमेरिकियों में से एक जिन्होंने सच बोलने के लिए अपना करियर और आज़ादी दांव पर लगा दी।
24 अक्टूबर 2025 को ANI News को दिए उनके साक्षात्कार ने दक्षिण एशिया की राजनीति में हलचल मचा दी है और अमेरिका–पाकिस्तान रिश्तों पर पुराने सवाल फिर से जगा दिए हैं।
“Pakistan’s Nuclear Secrets, CIA Lies, ISI’s Double Game” शीर्षक से लगभग एक घंटे का यह इंटरव्यू अब तक तीन लाख से अधिक लोगों ने देखा है। यह सिर्फ़ खुलासों की नहीं, बल्कि आत्ममंथन की कहानी है — एक ऐसे व्यक्ति की जो 15 साल तक अमेरिका की सबसे गुप्त संस्था का हिस्सा रहा।
CIA के भीतर का शख्स और उसका सच
किरियाकू को समझने के लिए पहले उनके जीवन को समझना ज़रूरी है।
उन्होंने 1990 में CIA जॉइन की — शुरुआत विश्लेषक के रूप में और फिर ऑपरेशन्स अफ़सर के तौर पर। 2000 के दशक में वे पाकिस्तान में नियुक्त हुए, जहाँ उन्होंने 9/11 हमलों के बाद अल-कायदा के आतंकियों की तलाश में कई मिशन चलाए। यहीं, उन्होंने जैसा कि अब वे कहते हैं — अमेरिका और पाकिस्तान, दोनों की ख़ुफ़िया एजेंसियों के भीतर की नैतिक गिरावट और दोहरापन देखा।
2007 में उन्होंने CIA के “Enhanced Interrogation Program” यानी यातना-आधारित पूछताछ को उजागर किया। इस खुलासे ने उन्हें अदालत और जेल तक पहुँचा दिया — वे उन कुछ अमेरिकी अधिकारियों में शामिल हैं जिन्हें सरकार की ग़लती उजागर करने के लिए सज़ा मिली।
इस अनुभव ने उनके जीवन की दिशा बदल दी। अब वे किसी जासूस की तरह नहीं, बल्कि अमेरिकी विदेश नीति के विरोधाभासों को खुलकर सामने रखते हुए एक नैतिक इतिहासकार की तरह बोलते हैं ।
धन, सत्ता और छल का जाल
इंटरव्यू की शुरुआत ही एक चौंकाने वाले बयान से होती है। किरियाकू कहते हैं — “हमने मुशर्रफ़ को खरीदा था।” उनके मुताबिक़, 9/11 के बाद वॉशिंगटन ने लाखों डॉलर नकद पाकिस्तान के सैन्य शासक जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ और ISI को दिए ताकि पाकिस्तान “War on Terror” में अमेरिका का साथ दे। यह रिश्ता दोस्ती का नहीं, बल्कि सौदे का था।
अफ़ग़ानिस्तान तक पहुँचने का एकमात्र रास्ता पाकिस्तान से होकर जाता था और अमेरिका को अपनी सेना और आपूर्ति के लिए उसका सहयोग चाहिए था।
मुशर्रफ़ ने बदले में तालिबान से (कम-से-कम औपचारिक रूप से) नाता तोड़ा और अमेरिकी खुफ़िया एजेंसियों के साथ हाथ मिला लिया।
इसके बदले अमेरिका ने पाकिस्तान को 2001 से 2011 के बीच 20 अरब डॉलर से अधिक की सहायता दी — जिसका बड़ा हिस्सा सेना को मिला।
किरियाकू बताते हैं कि उन्होंने खुद अमेरिकी अधिकारियों को ISI को नकद ब्रीफ़केस सौंपते देखा। पर बदले में मिली ‘सहयोग’ सीमित थी — ISI कुछ आतंकियों को पकड़ने में मदद करती, तो कुछ को चुपचाप बचा लेती। “ISI एक हाथ से हमारी मदद करती थी, और दूसरे हाथ से आतंकियों को सूचना देती थी।”
2002 का फ़ैसलाबाद छापा: जीत या धोखा?
किरियाकू अपने अनुभव से एक घटना याद करते हैं — मार्च 2002, फ़ैसलाबाद में। यहाँ CIA ने अल-कायदा के बड़े आतंकी अबू जुबैदा को पकड़ा था।
वॉशिंगटन ने इसे ‘बड़ी सफलता’ बताया, लेकिन किरियाकू कहते हैं — ‘उसी ऑपरेशन में ISI ने बाक़ी आतंकियों को पहले ही खबर दे दी थी।’ यानि मदद भी दी और गद्दारी भी की। इस ‘डबल गेम’ ने आने वाले दशकों में अमेरिका–पाकिस्तान संबंधों की असली प्रकृति तय की।
परमाणु सौदेबाज़ी: पाकिस्तान और सऊदी अरब का गुप्त रिश्ता
इंटरव्यू का सबसे विस्फोटक हिस्सा है पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम और A.Q. खान का ज़िक्र। किरियाकू दावा करते हैं कि जब खान का नेटवर्क उजागर हुआ — जिसने उत्तर कोरिया, ईरान और लीबिया को परमाणु तकनीक बेची — तब अमेरिका ने जानबूझकर कार्रवाई धीमी की, क्योंकि सऊदी अरब इसमें शामिल था।
उनके शब्दों में —“सऊदी हमें कह रहे थे कि A.Q. खान को मत छेड़ो, वो हमारे साथ काम कर रहा है।”
इसका मतलब यह था कि CIA और पेंटागन को सब पता था, लेकिन उन्होंने अपने तेल-समृद्ध सहयोगी की सुविधा के लिए।जांच रोक दी।
किरियाकू आगे कहते हैं कि उस समय अमेरिका ‘पाकिस्तान के परमाणु हथियारों पर नियंत्रण’ रखता था — या कम से कम, उनके संचालन और सुरक्षा पर निगरानी।
पाकिस्तान ने हमेशा इन दावों को नकारा है, लेकिन किरियाकू के अनुसार, “अमेरिका ने पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम पर कब्ज़ा नहीं किया, बल्कि उसे सहायता और पैसों से नियंत्रित किया।”
अमेरिका और तानाशाही प्रेम
किरियाकू का सबसे तीखा बयान यह है — ‘अमेरिका को तानाशाह पसंद थे, क्योंकि वे पूर्वानुमेय थे।’ लोकतांत्रिक नेताओं से सौदा करना मुश्किल होता है, जबकि सैन्य शासकों से आसानी से। उन्हें दबाया जा सकता है, धमकाया जा सकता है या हटाया जा सकता है।
यह प्रवृत्ति सिर्फ़ पाकिस्तान तक सीमित नहीं है। चिली के पिनोशे, कॉन्गो के मोबुतू, मिस्र के सीसी, या सऊदी शाही परिवार —अमेरिका ने हमेशा ऐसे शासकों को संरक्षण दिया जो उसके हित पूरे करते रहे।
किरियाकू कहते हैं —’स्थिरता के नाम पर अमेरिका ने अस्थिरता बोई है।’ पाकिस्तान की आज की उथल-पुथल, कट्टरपंथ और भ्रष्टाचार उसी नीति की उपज है।
ISI का “दोहरा खेल”
ISI की भूमिका पर किरियाकू बेहद स्पष्ट हैं। उनके मुताबिक़ यह एजेंसी ‘राज्य के भीतर एक राज्य’ है — जो आतंकियों से संबंध बनाए रखती है, जबकि अमेरिका को सीमित जानकारी देती है ताकि मदद और पैसा दोनों मिलते रहें।
अमेरिका सब जानता था, लेकिन चुप रहा — क्योंकि सच बोलने से अफ़ग़ानिस्तान में उसका मिशन खतरे में पड़ सकता था। इस तरह दोनों देश झूठ की नींव पर साथ चलते रहे।
सच और छल के बीच
किरियाकू की कहानी सिर्फ़ पाकिस्तान की नहीं, बल्कि दोनों देशों की है। अमेरिका ने पाकिस्तान को मोहरे की तरह इस्तेमाल किया,
और पाकिस्तान ने अमेरिका को एटीएम की तरह। दोनों ने अपने नागरिकों से सच्चाई छिपाई —और सबसे ज़्यादा कीमत चुकाई आम लोगों ने।
भारत, युद्ध और शांति का भ्रम
दक्षिण एशिया की राजनीतिक और सामरिक पेचीदगियों पर बात करते हुए, किरियाकू भारत–पाकिस्तान संबंधों को लेकर एक बाहरी व्यक्ति के नजरिए से असाधारण स्पष्टता पेश करते हैं।
वह साफ शब्दों में कहते हैं —
“पाकिस्तान भारत के साथ पारंपरिक युद्ध नहीं जीत सकता।”
उनका तर्क है कि यही सैन्य असंतुलन पाकिस्तान को असमान युद्धनीति अपनाने के लिए मजबूर करता है — जैसे आतंकवाद, प्रचार युद्ध और परमाणु धमकियों का सहारा लेना। परमाणु हथियारों ने बड़े पैमाने पर युद्ध को तो रोका है, लेकिन शांति नहीं लाई। उन्होंने दोनों देशों के बीच एक नाज़ुक ठहराव (stalemate) को स्थायी बना दिया है, जहाँ दोनों एक-दूसरे को परोक्ष रूप से नुकसान पहुँचाते रहते हैं।
इस दृष्टि से देखा जाए तो दक्षिण एशिया में ‘परमाणु संतुलन’ स्थिरता नहीं, बल्कि जड़ता (paralysis) का प्रतीक है। और जैसा कि किरियाकू चेतावनी देते हैं, अमेरिका जैसी बाहरी शक्तियों की मौजूदगी इस समीकरण को शांत करने के बजाय और उलझा देती है।
जॉन किरियाकू: गद्दार या सच्चा देशभक्त?
किरियाकू का जीवन दो चेहरों वाला है —अंदरूनी व्यक्ति और निर्वासित, देशभक्त और असंतुष्ट। उन्होंने जब CIA की यातना नीति का सच उजागर किया, तो उन्हें “राष्ट्रद्रोही” कहा गया और जेल भेजा गया, लेकिन उनके लिए यह ‘सच बोलने की सज़ा’ थी।
आज भी वे निगरानी में हैं, पर बोलते हैं निर्भीक होकर — “मैं अब ख़तरा नहीं, चेतावनी हूँ,” वे कहते हैं।
संपादकीय दृष्टिकोण: अमेरिका की परछाई, पाकिस्तान का खेल
सुर्ख़ियों के नीचे छिपी सच्चाई में, किरियाकू के खुलासे एक बड़े पैटर्न को उजागर करते हैं — ऐसा पैटर्न जो सिर्फ पाकिस्तान या सीआईए तक सीमित नहीं है और यह दिखाता है कि किस तरह लोकतांत्रिक देश भी अपने ‘रणनीतिक हितों’ के लिए नैतिकता को दरकिनार कर देते हैं।
वॉशिंगटन द्वारा परवेज़ मुशर्रफ़ की तानाशाही को स्वीकार करना, आईएसआई की दोहरी नीति पर आँखें मूँद लेना और परमाणु प्रसार पर चयनात्मक आक्रोश दिखाना — ये सब अपवाद नहीं हैं, बल्कि आधुनिक विदेशी नीति की बुनियाद हैं। किरियाकू के शब्दों में, अमेरिका ने ‘नैतिक ठेकेदारी’ की कला में महारत हासिल कर ली है — अपने युद्ध ऐसे देशों को सौंप देना जिनकी वफादारी खरीदी जा सके, ताकि असली जवाबदेही कभी अमेरिका तक न पहुँचे।
दूसरी ओर, पाकिस्तान एक साथ लाभार्थी और ब्लैकमेलर दोनों के रूप में सामने आता है — एक ऐसा देश जो अपनी असुरक्षा को बेचता है और सहयोग को सौदेबाजी का जरिया बना देता है। उसकी सैन्य सत्ता अस्थिरता पर पलती है, और दुनिया उनके ‘नियंत्रण के दिखावे’ की कीमत चुकाती है।
इन दोनों के बीच फँसा है भारत — वह पड़ोसी देश जिसे एक परमाणु-सज्जित, छल और निर्भरता पर टिका पाकिस्तान झेलना पड़ता है;
एक ऐसा पाकिस्तान जो अमेरिकी डॉलर से मजबूत हुआ और अंतरराष्ट्रीय सहनशीलता की ढाल से सुरक्षित है।
हवा में गूंजती आवाज़
संपादकीय लेखों का असली मकसद होता है — सत्ता से सवाल करना और जॉन किरियाकू की कहानी यही करती है। उनके कुछ दावे, जैसे कि पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम पर पेंटागन की निगरानी, अब भी जांच की ज़रूरत रखते हैं। लेकिन अगर उनके आधे बयान भी सही माने जाएं, तो उनके मायने बहुत गंभीर हैं।
वह हमें एक असहज सच्चाई के सामने खड़ा कर देते हैं — कि “आतंक के खिलाफ युद्ध” कोई नैतिक अभियान नहीं था, बल्कि एक ऐसा सौदा था जहाँ देशों ने वफादारी को पैसों में, चुप्पी को ज़रूरत में, और डर को ताकत में बदल लिया।
उस खेल में अमेरिका और पाकिस्तान दोनों शामिल थे — दोनों एक-दूसरे के झूठ और भ्रम पर टिके रहे और दोनों ने अपने-अपने हितों के लिए सच्चाई को दबाए रखा।
अंतिम बात: सच्चाई और उसकी कीमत
जॉन किरियाकू के खुलासे सिर्फ घटनाएँ नहीं हैं, बल्कि उस बड़ी सच्चाई के हिस्से हैं जो दिखाती है कि सत्ता के बंद दरवाज़ों के पीछे सब कुछ वैसा नहीं होता जैसा दिखता है।
वे बताते हैं कि “सुरक्षा” के नाम पर कैसे सौदे होते हैं, कैसे आसान रास्ते चुनने के लिए नैतिकता की कीमत चुकाई जाती है और यह कि लोकतंत्र भी कभी-कभी वही करते हैं जो साम्राज्य करते थे — जब डर को सही ठहराने का बहाना बना लिया जाता है।
किरियाकू एक ऐसे व्यक्ति हैं जो एक साथ अंदरूनी सूत्र भी हैं और विद्रोही भी। उन्होंने सत्ता की असलियत को करीब से देखा है और उतना ही कहा है जितना सच्चाई को झकझोरने के लिए ज़रूरी था।
हर बात पर यक़ीन करना ज़रूरी नहीं, लेकिन जो तस्वीर वे दिखाते हैं उसे नज़रअंदाज़ भी नहीं किया जा सकता — जब लोकतंत्र, शांति के नाम पर, तानाशाहों से सौदे करने लगते हैं, तो वे सुरक्षा नहीं, बल्कि भ्रम खरीदते हैं।और जैसा इतिहास बताता आया है — भ्रम सबसे महंगी कीमत होती है।
