“दुश्मन की गोली का जवाब गोली से!”
“मैं आज़ाद हूँ, आज़ाद रहूँगा!” — यह वाक्य चंद्रशेखर आजाद के जीवन का मंत्र था। एक ऐसा क्रांतिकारी जिसने अंग्रेजी हुकूमत के सामने कभी सिर नहीं झुकाया और मृत्यु को भी अपनी शर्तों पर स्वीकार किया। उनकी जीवन यात्रा सिर्फ बंदूकों और बमों की नहीं, बल्कि आत्मसम्मान और देशभक्ति की मिसाल है। यह लेख उनके संघर्ष, विचारधारा और प्रासंगिकता को सरल भाषा में उकेरता है।
बचपन: गाँव का वह बागी बालक
चंद्रशेखर तिवारी (बाद में आजाद) का जन्म 23 जुलाई 1906 को मध्य प्रदेश के भाबरा गाँव में हुआ। उनकी माँ जगरानी देवी ने उन्हें संस्कृत और धार्मिक ग्रंथों की शिक्षा दी, लेकिन 1919 के जलियाँवाला बाग हत्याकांड ने उनके मन में ब्रिटिश विरोध का बीज बो दिया। महज 15 साल की उम्र में वे गांधी जी के असहयोग आंदोलन (1921) में कूद पड़े। जब पुलिस ने उन्हें पकड़ा, तो कोर्ट में उन्होंने अपना नाम “आजाद”, पिता का नाम “स्वतंत्रता” और पता “जेल” बताया। यहीं से “चंद्रशेखर आजाद” का जन्म हुआ।
HRA में शामिल होना: क्रांति की पाठशाला
1923 में वे हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) के संस्थापक राम प्रसाद बिस्मिल से मिले। इस संगठन का लक्ष्य था—अंग्रेजों को सशस्त्र संघर्ष से उखाड़ फेंकना। आजाद ने इसमें “सेनापति” की भूमिका निभाई और युवाओं को गुरिल्ला युद्ध, बम निर्माण और गुप्त संचार का प्रशिक्षण दिया। उनकी रणनीति साफ थी: “अंग्रेजों को उनकी भाषा में जवाब दो।”
काकोरी कांड: ब्रिटिश ताकत को चुनौती
9 अगस्त 1925 को HRA के सदस्यों ने लखनऊ के काकोरी में ट्रेन से अंग्रेजी खजाना लूटा। यह घटना भारतीय क्रांतिकारियों की पहली बड़ी सशस्त्र कार्रवाई थी। आजाद इस ऑपरेशन के मास्टरमाइंड थे, लेकिन पुलिस उन्हें पकड़ नहीं पाई। हालाँकि, बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान और रोशन सिंह को फाँसी हो गई। इस घटना ने आजाद को और अडिग बना दिया।
HSRA का गठन: समाजवाद का सपना
1928 में आजाद ने HRA को हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) में बदल दिया। अब लक्ष्य सिर्फ आज़ादी नहीं, बल्कि “शोषणमुक्त समाज” का निर्माण था। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु जैसे युवा इससे जुड़े। आजाद ने झाँसी के जंगलों में गुप्त ट्रेनिंग कैंप बनाए, जहाँ युवा बम बनाना सीखते थे। उनका मानना था: “आज़ादी तभी सार्थक है जब गरीब का पेट भर सके।”
लाला लाजपत राय की मौत का बदला: सांडर्स हत्याकांड
1928 में साइमन कमीशन के विरोध में निकाले गए जुलूस में पुलिस ने लाला लाजपत राय पर लाठियाँ बरसाईं, जिससे उनकी मौत हो गई। आजाद ने कहा— “एक लाला की मौत का बदला सौ अंग्रेजों से लिया जाएगा!”
17 दिसंबर 1928 को भगत सिंह और राजगुरु ने लाहौर में पुलिस अधिकारी जेम्स स्कॉट को मारने की योजना बनाई, लेकिन गलती से जॉन सांडर्स मारा गया। आजाद ने इस ऑपरेशन में गेटअवे ड्राइवर की भूमिका निभाई!
अल्फ्रेड पार्क: अंतिम सांस तक आज़ाद
27 फरवरी 1931 को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में अंग्रेजों ने आजाद को घेर लिया। उनके पास केवल एक पिस्तौल और कुछ गोलियाँ थीं। मुठभेड़ में उन्होंने तीन पुलिसवालों को ढेर कर दिया। जब गोलियाँ खत्म हुईं, तो उन्होंने खुद को गोली मार ली ताकि अंग्रेज उन्हें जिंदा न पकड़ सकें। हैरानी की बात—उनकी मौत के बाद स्थानीय लोगों ने पुलिस को शव तक नहीं छूने दिया और चुपके से उनका अंतिम संस्कार कर दिया।
विचारधारा: सिर्फ आज़ादी नहीं, समानता भी
आजाद सिर्फ बंदूकें चलाने वाले नहीं थे। उनका मानना था कि स्वतंत्र भारत में जाति, धर्म और लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए। वे किसानों और मजदूरों के अधिकारों के लिए लड़े। उन्होंने HSRA के घोषणापत्र में लिखा: “हमारी लड़ाई अमीरों के शोषण के खिलाफ भी है।”
विरासत: आज भी जिंदा है आजाद का सपना
जनता के हीरो: आजाद को “पंडित जी” कहकर पुकारा जाता था। उन्होंने कभी भीख नहीं माँगी, न ही दान लिया। फंड जुटाने के लिए वे खुद डकैतियाँ करते थे।
सांस्कृतिक प्रभाव: फिल्म “द लीजेंड ऑफ भगत सिंह” (2002) और गीत “सरफरोशी की तमन्ना” में उनका चरित्र दिखाया गया।
शैक्षणिक प्रेरणा: उत्तर प्रदेश में चंद्रशेखर आजाद कृषि विश्वविद्यालय और दिल्ली का आजाद पार्क उन्हें समर्पित है।
आजादी का असली मतलब
चंद्रशेखर आजाद ने सिखाया कि आज़ादी सिर्फ राष्ट्र के लिए नहीं, बल्कि व्यक्ति की गरिमा के लिए जरूरी है। आज जब भ्रष्टाचार, गरीबी और असमानता हमारी आज़ादी को चुनौती देते हैं, तो आजाद का संदेश और प्रासंगिक हो जाता है: “तुम्हारी लड़ाई सत्ता से नहीं, अन्याय से है।”
आजाद की कहानी हमें याद दिलाती है कि स्वतंत्रता “दिया हुआ” नहीं, बल्कि “छीनी जाती” है। उनका जीवन आधुनिक युवाओं के लिए एक सवाल छोड़ जाता है: “क्या हम उनके सपनों का भारत बना पाए हैं?”