इंदिरा गांधी के समय की एक महत्वपूर्ण घटना पर चर्चा करना आज के समय में बहुत दिलचस्प हो सकता है, खासकर जब इसकी तुलना वर्तमान मोदी सरकार के कार्यों से की जाए। इस घटना का ज़िक्र 1962 से 1972 तक राज्यसभा के सांसद रहे बहरुल इस्लाम से जुड़ा है, जिसे गुवाहाटी हाईकोर्ट का जज बना दिया गया था। खास बात यह है कि बहरुल इस्लाम ने राज्यसभा से इस्तीफा दिया और उन्हें न्यायिक पद पर नियुक्त किया गया।
हालांकि, यह घटना केवल यहीं नहीं रुकी। जब 2 मार्च 1980 को उन्होंने गुवाहाटी हाईकोर्ट से रिटायरमेंट लिया, तब 4 दिसंबर 1980 को उन्हें दोबारा से सुप्रीम कोर्ट का जज बना दिया गया।
इस नियुक्ति की नैतिकता पर सवाल उठाए जा सकते हैं, क्योंकि इसके कुछ ही समय बाद बहरुल इस्लाम ने बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा के खिलाफ़ भ्रष्टाचार मामले में एक निर्णय सुनाया जो जगन्नाथ मिश्रा के पक्ष में था। यह निर्णय न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर एक गंभीर प्रश्न खड़ा करता है।
इसे और भी संदिग्ध बनाता है यह तथ्य कि सुप्रीम कोर्ट का जज बनने के बाद बहरुल इस्लाम ने न केवल अपने पद से इस्तीफा नहीं दिया, बल्कि कांग्रेस के टिकट पर दोबारा से राज्यसभा सांसद बने।
यह मामला न्यायपालिका और राजनीति के बीच की धुंधली रेखा को उजागर करता है, जहां एक व्यक्ति एक ही समय में राजनीति और न्यायपालिका में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था। यह घटना इस बात को साबित करती है कि उस समय राजनीतिक सत्ता का न्यायिक प्रक्रिया पर कितना प्रभाव था।
अब अगर इस घटना की तुलना वर्तमान समय से की जाए, तो इसे नैतिकता और न्यायपालिका की स्वतंत्रता के संदर्भ में देखा जा सकता है। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) डी.वाई. चंद्रचूड़ के निवास पर आरती करने को लेकर काफी विवाद हुआ था।
हालांकि यह एक धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजन था, लेकिन इसे लेकर कुछ लोगों ने नैतिकता और न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर सवाल उठाए। इस पर भारी राजनीतिक बहस छिड़ गई, जहां प्रधानमंत्री के इस कृत्य को लेकर आलोचना की गई।
लेकिन अगर इतिहास में झांका जाए, तो इंदिरा गांधी के शासनकाल में हुई बहरुल इस्लाम की नियुक्ति जैसे मामलों की तुलना में मोदी की यह घटना नैतिकता की दृष्टि से कहीं कम महत्वपूर्ण प्रतीत होती है। बहरुल इस्लाम के मामले में राजनीतिक हितों का सीधा हस्तक्षेप देखा जा सकता है, जबकि मोदी की घटना को एक सांस्कृतिक कृत्य के रूप में देखा जा सकता है, जो राजनीति से जुड़ा नहीं था।
इस प्रकार, इतिहास में ऐसी घटनाएं यह दर्शाती हैं कि राजनीतिक सत्ता का न्यायपालिका पर किस प्रकार का प्रभाव रहा है। जब भी कोई व्यक्ति न्यायपालिका और राजनीति के बीच की इस धुंधली रेखा को पार करता है, तब नैतिकता और निष्पक्षता के सवाल खड़े होते हैं।