जब राजनीति अक्सर सुविधा और समझौते के आगे झुक जाती थी, उस दौर में कल्याण सिंह ऐसे नेता के रूप में उभरे, जिन्होंने अपने सिद्धांतों और विश्वासों से कभी समझौता नहीं किया। अलीगढ़ के एक छोटे से गाँव के साधारण शिक्षक से लेकर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने तक की उनकी यात्रा आस्था, साहस और विवादों से भरी रही।
वह राम मंदिर आंदोलन के सबसे प्रमुख चेहरों में से एक बने — एक ऐसे नेता, जिसने सत्ता, पद और अपने राजनीतिक भविष्य तक को बलिदान कर दिया क्योंकि वह इस आंदोलन को अपनी संस्कृति और समाज की आत्मा से जुड़ा मानते थे। भले ही अपनी ही पार्टी ने उन्हें छोड़ दिया और आलोचकों ने उनकी निंदा की, लेकिन कल्याण सिंह अपनी आस्था और विश्वास पर अडिग रहे।उनकी आवाज़ हमेशा यही कहती रही — “कुछ लड़ाइयाँ जीत के लिए नहीं, बल्कि विश्वास और धर्म के लिए लड़ी जाती हैं।”
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
कल्याण सिंह का जन्म 5 जनवरी 1932 को अतरौली गाँव (अलीगढ़ ज़िला, तत्कालीन संयुक्त प्रांत, ब्रिटिश भारत) में हुआ था। वह एक साधारण लोदी (ओबीसी) किसान परिवार से थे। उनके पिता तेजपाल सिंह लोदी किसान थे और माता सीता देवी गृहिणी थीं। गाँव के माहौल में पले-बढ़े कल्याण सिंह ने बचपन से ही किसानों के संघर्ष, गरीबी और समाज में व्याप्त असमानता को करीब से देखा।
युवा अवस्था में ही वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) से जुड़े। संघ की अनुशासन, सेवा और राष्ट्रभक्ति की भावना ने उनके जीवन की दिशा तय की। राजनीति में आने से पहले वे शिक्षक थे और साथ ही कुश्ती में भी निपुण थे, जिससे उनका व्यक्तित्व सादा, मजबूत और जनसंपर्क वाला बना।
उन्होंने आठवीं कक्षा तक औपचारिक शिक्षा पाई, लेकिन संघ से मिली सीख और सांस्कृतिक मूल्यों ने उनके विचारों और राजनीति की बुनियाद रखी। उनका जीवनदर्शन तीन बातों पर टिका था — राष्ट्रवाद, आत्मनिर्भरता और हिंदू पहचान।
परिवार और निजी जीवन
1952 में कल्याण सिंह ने रामवती देवी से विवाह किया। उनके दो बच्चे हुए — बेटा राजवीर सिंह (जो आगे चलकर भाजपा सांसद बने) और एक बेटी। उनके पोते संदीप सिंह भी राजनीति में सक्रिय हैं। मुख्यमंत्री रहते हुए भी कल्याण सिंह अपने गाँव अतरौली से गहरा जुड़ाव बनाए रखते थे और अक्सर वहाँ जाते थे। रामवती देवी का निधन 2021 में हुआ, और कुछ महीनों बाद कल्याण सिंह भी इस दुनिया से विदा हो गए।
राजनीतिक शुरुआत और उभार (1960–1980 के दशक)
कल्याण सिंह की राजनीतिक यात्रा की शुरुआत 1960 के दशक में भारतीय जनसंघ (BJS) से हुई, जो बाद में भाजपा (BJP) बनी।
1967 में, वे पहली बार अतरौली विधानसभा क्षेत्र से विधायक चुने गए और कांग्रेस प्रत्याशी को हराया। यह उनकी लंबी राजनीतिक यात्रा की शुरुआत थी — उन्होंने 1967 से 2002 तक लगातार दस विधानसभा चुनाव लड़े, जिनमें से नौ बार विजय हासिल की।
1977–1980 के बीच, आपातकाल के बाद बनी जनता पार्टी सरकार में उन्हें स्वास्थ्य राज्यमंत्री बनाया गया। बाद में जब जनसंघ फिर अलग हुआ, उन्होंने भाजपा के संगठन को मजबूत करने में अहम भूमिका निभाई। 1980 के दशक में, वे क्रमशः भाजपा के प्रदेश महासचिव (1980), प्रदेश अध्यक्ष (1984, 1987) और विधानमंडल दल के नेता (1989) बने।
इन वर्षों में उन्होंने ओबीसी वर्ग को भाजपा से जोड़ने का बड़ा काम किया — जिससे पार्टी को उत्तर भारत में नई ताकत मिली।
पहला कार्यकाल मुख्यमंत्री के रूप में (1991–1992)
1991 में, भाजपा को उत्तर प्रदेश में ऐतिहासिक जीत मिली और कल्याण सिंह 24 जून 1991 को मुख्यमंत्री बने। उनके शासनकाल में राम जन्मभूमि आंदोलन अपने चरम पर था। उनकी सरकार ने अयोध्या में जमीन अधिग्रहण और मंदिर निर्माण की तैयारियों में प्रशासनिक ढील दी, जिससे आंदोलन को गति मिली।
6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद ढहा दी गई — यह भारतीय राजनीति का एक निर्णायक क्षण था, हालांकि कल्याण सिंह ने सुप्रीम कोर्ट को मस्जिद की सुरक्षा का आश्वासन दिया था, लेकिन भीड़ को रोकने में प्रशासन असफल रहा। उन्होंने “नैतिक ज़िम्मेदारी” लेते हुए उसी दिन मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया, जिसके बाद राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हुआ।
बाद में लिब्रहान आयोग (2009) ने उन्हें प्रशासनिक चूक के लिए जिम्मेदार ठहराया, लेकिन उन्होंने हमेशा कहा कि यह घटना ‘जनभावनाओं का स्वतःस्फूर्त विस्फोट’ थी। उन्हें अवमानना के मामले में एक दिन की सज़ा और जुर्माना हुआ, जबकि 2020 में उन्हें साजिश के आरोपों से बरी कर दिया गया।
सत्ता और विपक्ष के बीच (1993–1999)
1993 में वे फिर से विधायक बने और विपक्ष के नेता की भूमिका निभाई। 21 सितंबर 1997 को उन्होंने दोबारा मुख्यमंत्री पद संभाला — इस बार भाजपा-बसपा गठबंधन के नेता के रूप में। उन्होंने बाबरी मस्जिद विध्वंस के स्वयंसेवकों पर दर्ज केस वापस लिए और राम मंदिर निर्माण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दोहराई।
अक्टूबर 1997 में बसपा ने समर्थन वापस ले लिया, लेकिन कल्याण सिंह ने विद्रोही विधायकों के साथ लोकतांत्रिक कांग्रेस बनाकर सरकार बचा ली। फरवरी 1998 में उन्हें राज्यपाल रमेश भंडारी ने बर्खास्त कर दिया, लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बहाल किया।
नवंबर 1999 में पार्टी में गुटबाज़ी बढ़ने पर उन्हें पद छोड़ना पड़ा। बाद में उन्होंने भाजपा से इस्तीफा देकर अपने बेटे राजवीर सिंह के साथ राष्ट्रीय क्रांति पार्टी बनाई।
वापसी और राष्ट्रीय भूमिका (2000–2010 के दशक)
कल्याण सिंह का राजनीतिक जीवन उतार-चढ़ाव से भरा रहा। 2004 में वे फिर भाजपा में लौटे और बुलंदशहर से सांसद बने। 2009 में उन्होंने पार्टी छोड़ दी और एटा सीट से निर्दलीय जीत हासिल की। 2010 में उन्होंने जन क्रांति पार्टी बनाई, जिसे 2013 में भाजपा में मिला दिया गया।
2014 में वे पूरी तरह भाजपा में लौटे और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व का समर्थन किया। उन्होंने सांसद पद छोड़कर राज्यपाल पद स्वीकार किया।
राज्यपाल कार्यकाल (2014–2019)
4 सितंबर 2014 को उन्हें राजस्थान का राज्यपाल नियुक्त किया गया। उन्होंने यह पद 8 सितंबर 2019 तक संभाला। इसके अलावा जनवरी से अगस्त 2015 तक वे हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल (अतिरिक्त प्रभार) भी रहे।
राज्यपाल के रूप में उनका कार्यकाल शांत और संवैधानिक रहा, लेकिन उन्होंने सार्वजनिक मंचों पर राम मंदिर निर्माण और हिंदुत्व विचारधारा के समर्थन को कभी नहीं छोड़ा।
विचारधारा, प्रतिबद्धता और विवाद
कल्याण सिंह का पूरा राजनीतिक जीवन दो बातों पर टिका था —
- राम जन्मभूमि आंदोलन के प्रति समर्पण
- ओबीसी वर्ग को सशक्त बनाना।
उनके समर्थकों ने उन्हें ‘आस्था के लिए सत्ता त्यागने वाला नेता’ कहा, जबकि आलोचकों ने उन्हें सांप्रदायिक राजनीति का प्रतीक बताया।
लेकिन यह भी सच है कि उन्होंने भाजपा को एक सामाजिक रूप से व्यापक दल बनाया, जिसमें पिछड़े वर्गों की बड़ी भूमिका बनी — यह आज भी भाजपा की सबसे बड़ी ताकत है।
अंतिम वर्ष, निधन और अमर विरासत
21 अगस्त 2021 को लखनऊ में कल्याण सिंह का निधन हो गया। वे 89 वर्ष के थे और सेप्सिस व मल्टी-ऑर्गन फेल्योर से पीड़ित थे। उनका अंतिम संस्कार एटा में पूरे राजकीय सम्मान के साथ किया गया। कार्यक्रम में योगी आदित्यनाथ, जेपी नड्डा और कई वरिष्ठ भाजपा नेता उपस्थित थे। 2022 में उन्हें मरणोपरांत पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया।
उनके समर्थकों के लिए वे निष्ठा और सिद्धांतों के प्रतीक थे — एक साधारण शिक्षक जिसने अपने विश्वास के लिए सत्ता तक ठुकरा दी।
विरोधियों के लिए, वे धार्मिक राजनीति के विवादास्पद चेहरा थे। फिर भी, सभी मानते हैं कि उन्होंने उत्तर प्रदेश की राजनीति को नई दिशा दी — जहाँ हिंदुत्व और सामाजिक न्याय की राजनीति साथ-साथ चली।
राम मंदिर आंदोलन और बाबरी मस्जिद प्रकरण में भूमिका
कल्याण सिंह का नाम अयोध्या विवाद और राम मंदिर आंदोलन के इतिहास में केंद्रीय स्थान रखता है। 1991 में मुख्यमंत्री बनने के बाद, उन्होंने प्रशासनिक और राजनीतिक दोनों स्तरों पर आंदोलन को बल दिया। उनकी सरकार ने कारसेवकों को सहयोग, भूमि अधिग्रहण और नीतिगत समर्थन दिया, जिससे आंदोलन को नई ऊर्जा मिली।
6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिराई गई — जब राज्य में उनकी ही सरकार थी। हालांकि उन्होंने सुप्रीम कोर्ट को मस्जिद की सुरक्षा का वादा किया था, लेकिन घटनास्थल पर पुलिस हस्तक्षेप नहीं कर सकी। कल्याण सिंह ने उसी दिन मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया, यह कहते हुए कि वे “हिंदू आस्था के खिलाफ बल प्रयोग नहीं कर सकते।”
उन्होंने बाद में कहा —
“मुझे कोई पछतावा नहीं है। न अफसोस, न दुख, न शोक।”
यह बयान उनके अडिग विश्वास का प्रतीक बन गया।
लिब्रहान आयोग (2009) ने उन्हें प्रशासनिक चूक का जिम्मेदार बताया, लेकिन 2020 में सीबीआई अदालत ने उन्हें साजिश के आरोपों से मुक्त कर दिया।
राम मंदिर के निर्माण तक उन्होंने इस मुद्दे को ज़िंदा रखा और 2019 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर कहा —
“यह मेरे जीवन की सबसे बड़ी संतुष्टि है। यह मेरे संकल्प की पूर्ति है।”
विरासत और सीख
कल्याण सिंह की राजनीति विश्वास, आस्था और साहस का प्रतीक थी। वह ऐसे नेता थे जिन्होंने सत्ता से ज़्यादा सिद्धांतों को महत्व दिया। उनका जीवन भारत की राजनीति के उस दौर को दर्शाता है जहाँ हिंदुत्व विचारधारा और सामाजिक न्याय की राजनीति ने एक साथ नई पहचान बनाई।
चाहे उन्हें हिंदू पुनर्जागरण का प्रतीक कहा जाए या विवादों का केंद्र, इतिहास में उनका नाम हमेशा दर्ज रहेगा — एक ऐसे नेता के रूप में,
जिसने कहा था:
“मैंने कोई गलती नहीं की — बस अपने धर्म और राष्ट्र के प्रति अपना कर्तव्य निभाया।”
1990 का अयोध्या गोलीकांड: राम जन्मभूमि आंदोलन का निर्णायक मोड़
1990 का अयोध्या गोलीकांड आधुनिक भारतीय राजनीति के सबसे विवादास्पद और भावनात्मक प्रसंगों में से एक था। यह घटना तब हुई जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के आदेश पर पुलिस ने राम जन्मभूमि आंदोलन में भाग लेने आए हिंदू कारसेवकों पर गोली चलाई। आंदोलन का उद्देश्य अयोध्या में भगवान श्रीराम के मंदिर का निर्माण था, जहाँ 16वीं सदी की बाबरी मस्जिद खड़ी थी।
इस गोलीकांड में कई लोगों की जान गई और देशभर में सांप्रदायिक तनाव गहराया — जिसने भारतीय राजनीति की दिशा को हमेशा के लिए बदल दिया।
पृष्ठभूमि: बढ़ते धार्मिक और राजनीतिक तनाव
1990 तक राम जन्मभूमि आंदोलन, जिसे विश्व हिंदू परिषद (VHP), राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) और भारतीय जनता पार्टी (BJP) चला रहे थे, पूरे देश में तेजी से फैल चुका था। इस आंदोलन का लक्ष्य था उस स्थल को ‘श्रीराम जन्मभूमि’ के रूप में पुनः स्थापित करना, जहाँ हिंदू मान्यता के अनुसार भगवान राम का जन्म हुआ था — और जहाँ मुगलकाल में बाबर द्वारा बनी मस्जिद (बाबरी मस्जिद) खड़ी थी।
सितंबर 1990 में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने राम रथ यात्रा शुरू की, जिससे हजारों हिंदू कार्यकर्ता अयोध्या की ओर ‘कारसेवा’ के लिए बढ़े। यह यात्रा पूरे देश में धार्मिक जोश और राजनीतिक हलचल दोनों लेकर आई।
उस समय मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। स्वयं हिंदू होते हुए भी उन्होंने बाबरी मस्जिद को किसी भी नुकसान से बचाने के लिए सख्त रुख अपनाया। उन्होंने कहा था — “अयोध्या में परिंदा भी पर नहीं मार सकेगा।” उनकी सरकार ने कर्फ्यू लगाया, भारी पुलिस बल तैनात किया और सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों के अनुसार विवादित ढाँचे की सुरक्षा सुनिश्चित की।
प्रमुख घटनाक्रम
30 अक्टूबर 1990: पहली गोलीबारी
कर्फ्यू और यातायात प्रतिबंधों के बावजूद, हजारों कारसेवक अयोध्या पहुँचे। कई लोग पैदल, कुछ सरयू नदी पार करके या खेतों के रास्ते पुलिस चौकियों को पार कर पहुँचे। दोपहर तक वीएचपी नेता अशोक सिंघल और महंत नृत्य गोपाल दास के नेतृत्व में एक बड़ा समूह बाबरी मस्जिद की ओर बढ़ा। कई स्थानों पर पुलिस से झड़पें हुईं।
अराजकता के बीच, एक साधु ने कथित रूप से एक पुलिस वाहन अपने नियंत्रण में ले लिया और अंतिम बैरिकेड तोड़ दिया। करीब 5,000 कारसेवक विवादित स्थल तक पहुँच गए। कुछ रिपोर्टों के अनुसार, कोठारी बंधु — राम और शरद कोठारी — ने मस्जिद के गुंबद पर भगवा झंडा फहराया, जिससे माहौल और भड़क गया।
इसके बाद पुलिस ने भीड़ को तितर-बितर करने के लिए गोली चला दी। 30 अक्टूबर 1990 को चली इस पहली गोली ने पूरे देश में आंदोलन को राष्ट्रीय विवाद में बदल दिया।
2 नवंबर 1990: दूसरा संघर्ष
दो दिन बाद हजारों और कारसेवक अयोध्या लौटे, कर्फ्यू की अवहेलना करते हुए। जब भीड़ नियंत्रण से बाहर हुई, पुलिस ने फिर गोली चलाई। यह दूसरी मुठभेड़ पहली जितनी ही भयावह थी, हालांकि इसके विवरण कम दर्ज हैं। दोनों दिनों की हिंसा ने ‘अयोध्या गोलीकांड’ को भारतीय इतिहास की सामूहिक स्मृति में गहराई से अंकित कर दिया।
मृतकों की संख्या और विवाद
मृतकों की सटीक संख्या आज भी विवादित है।
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उत्तर प्रदेश सरकार के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार 17 लोग मारे गए।
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The New York Times ने लगभग 20 मौतों का ज़िक्र किया।
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The Chicago Tribune ने 5 मौतें बताईं।
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वहीं VHP और BJP ने दावा किया कि 50 से अधिक कारसेवक मारे गए और इस घटना को “हत्या कांड” बताया।
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चश्मदीदों जैसे ओम भारती ने कहा कि पुलिस ने भीड़ के पीछे हटने के बाद भी फायरिंग जारी रखी।
मुलायम सिंह यादव की भूमिका और बयान
मुख्यमंत्री के रूप में मुलायम सिंह यादव ने इस घटना की पूरी जिम्मेदारी ली। उन्होंने कहा कि यह “दुखद लेकिन आवश्यक निर्णय” था — क्योंकि उन्हें सुप्रीम कोर्ट के आदेश और संवैधानिक जिम्मेदारी निभानी थी।
उनका कथन था —
“अगर 28 या 30 लोग भी मारे गए, तो यह बाबरी मस्जिद और संविधान बचाने के लिए था।”
उनके इस निर्णय ने मुस्लिम और सेक्युलर वर्गों में उन्हें “मस्जिद रक्षक” की छवि दी, लेकिन हिंदू संगठनों में भारी नाराज़गी फैल गई। हिंदू संगठनों ने उन्हें “मुल्ला मुलायम” कहकर आलोचना की और उन पर मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप लगाया। यह घटना उनके राजनीतिक जीवन का स्थायी दाग और पहचान दोनों बन गई —जिससे उनका “एम-वाई (मुस्लिम-यादव)” वोट बैंक मजबूत हुआ लेकिन हिंदू मतदाता उनसे दूर हो गए।
औचित्य, आलोचना और राजनीतिक असर
औचित्य के पक्ष में
मुलायम सिंह यादव और उनके समर्थकों का कहना था कि अगर 1990 में गोली न चलती, तो बाबरी मस्जिद उसी समय तोड़ दी जाती — जिससे देश में और भी भयानक सांप्रदायिक हिंसा फैल जाती। उनके अनुसार उन्होंने जनता की भावनाओं नहीं, बल्कि संविधान की मर्यादा को प्राथमिकता दी।
आलोचना
भाजपा और वीएचपी ने इस घटना को “राज्य प्रायोजित हिंसा” बताया। विपक्षी नेताओं ने कहा कि पुलिस ने अनावश्यक और अत्यधिक बल का प्रयोग किया। कोठारी बंधु की मौतें हिंदुत्व आंदोलन के लिए प्रतीक बन गईं — जिन्हें “अयोध्या के शहीद” के रूप में सम्मानित किया गया।
जनता के गुस्से ने भाजपा को 1991 के विधानसभा चुनाव में भारी जीत दिलाई और कल्याण सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने —
यह घटना राज्य की राजनीति में टर्निंग पॉइंट बन गई।
परिणाम और दीर्घकालिक प्रभाव
1990 की गोलीबारी ने भारत की राजनीति और समाज दोनों को गहराई से प्रभावित किया।
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इससे हिंदू राष्ट्रवादी भावना और तेज हुई, जिसने 1992 के बाबरी मस्जिद विध्वंस की पृष्ठभूमि तैयार की।
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इसने मुलायम सिंह यादव की हिंदू वोटों में पकड़ कमजोर कर दी, लेकिन उन्हें अल्पसंख्यक संरक्षक की छवि दी।
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भाजपा ने इसे हिंदू अधिकारों की रक्षा के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया, जिससे पार्टी की राष्ट्रीय राजनीति में उभार हुआ।
तीन दशक बाद, जब सुप्रीम कोर्ट ने 2019 में विवादित भूमि राम मंदिर ट्रस्ट को सौंपी, तो 1990 में मारे गए कारसेवकों के परिवारों को 2024 के मंदिर उद्घाटन में आमंत्रित किया गया — यह लंबे और दर्दनाक संघर्ष का प्रतीकात्मक अंत था।
निष्कर्ष
1990 का अयोध्या गोलीकांड स्वतंत्र भारत के इतिहास का एक निर्णायक मोड़ था — जहाँ आस्था, राजनीति और शासन एक-दूसरे से टकरा गए।
समर्थकों के लिए यह कारसेवकों के बलिदान और राम मंदिर आंदोलन की दृढ़ता का प्रतीक है; जबकि आलोचकों के लिए यह धार्मिक विवादों में राज्य शक्ति के खतरनाक प्रयोग का उदाहरण है।
किसी भी दृष्टि से देखें, यह घटना भारतीय राजनीति को इस प्रकार बदल गई कि उसके प्रभाव आज भी महसूस किए जाते हैं।
कल्याण सिंह की विरासत और आस्था
कल्याण सिंह का जीवन दृढ़ विश्वास और त्याग का प्रतीक था। जब राजनीति अक्सर सुविधा के लिए झुक जाती है, तब उन्होंने अपने सिद्धांतों और आस्था को सर्वोपरि रखा। राम जन्मभूमि आंदोलन में उनकी भूमिका और करोड़ों हिंदुओं की भावनाओं को स्वर देने का साहस उन्हें इतिहास में अमर करता है।
भले ही कभी-कभी उन्हें अपनी ही पार्टी से उपेक्षा झेलनी पड़ी, उन्होंने कभी कटुता को अपने उद्देश्य पर हावी नहीं होने दिया। वह सत्ता से दूर रहकर भी अपने विश्वास में अडिग रहे — उन्हें भरोसा था कि उनका संघर्ष एक बड़े सांस्कृतिक उद्देश्य के लिए था।
अपने समर्थकों के लिए वे सिर्फ एक राजनेता नहीं, बल्कि आस्था के प्रहरी थे — एक ऐसा व्यक्ति जिसने अपने जीवन और मृत्यु दोनों को अपने आदर्शों के प्रति समर्पित किया।
भारतीय राजनीति के इतिहास में कल्याण सिंह हमेशा याद किए जाएंगे — एक ऐसे आस्थावान योद्धा के रूप में जो तब भी अडिग रहा जब झुकना आसान था। उनकी विरासत आज भी श्रद्धा, साहस और समर्पण की प्रेरणा देती है।
