महाकुंभ 2025: पहली बार ऐसा, 20 फीसदी नागा साधु दलित और आदिवासी, बदलाव के बड़े संकेत

उत्तर प्रदेश के प्रयागराज महाकुंभ मेला 2025 के दौरान देश-दुनिया के श्रद्धालुओं ने संगम तट पहुंच कर पवित्र त्रिवेणी में डुबकी लगाई। इनके साथ ही नागा साधुओं की दीक्षा की परंपरा का भी पालन किया गया। दरअसल, नागा साधु महाकुंभ के प्रतीक हैं।

जटाएं, राख से सने शरीर एवं त्रिशूल, तलवार एवं लकड़ी की छड़ियां थामे, ये महज हथियार के तौर पर नहीं, बल्कि उनकी प्रचंड भक्ति और तपस्वी शक्ति के प्रतीक के तौ पर दिखते हैं। सदियों से ये योद्धा तपस्वी, जो खुद को आदि शंकराचार्य से अपना वंश जोड़ते हैं, एक विशिष्ट भाईचारा से एकजुट दिखते हैं। पहले के समय में ये बड़े पैमाने पर विशेषाधिकार प्राप्त जातियों से आते थे। लेकिन, इस महाकुंभ ने सामाजिक तौर पर बने जातियों के क्रम में बदलाव के संकेत दिए हैं।

प्रयागराज महाकुंभ मेला के दौरान नागा साधुओं की दीक्षा में समाज में बनी जातियों के क्रम की कठोर सीमाओं में बदलाव का संकेत दिया है। इतिहास में पहली बार नव दीक्षित नागा साधुओं में से 20 फीसदी से अधिक दलित और आदिवासी समुदायों से आए हैं।

महाकुंभ 2025 में कुल 8715 साधकों ने नागा साधुओं और साध्वियों का मार्ग अपनाने के लिए दुनिया को त्याग दिया। इसमें से दलित और आदिवासी समाज के नागा साधु-साध्वियों की संख्या 1850 रही। इसी के समानांतर दिखे बदलाव में लगभग 250 महिलाओं ने नागा साध्वियों के कठोर जीवन में कदम रखा।

इन इलाकों के बने नागा साधु

आदिवसी और दलित समुदाय के साधु-साध्वी मध्य प्रदेश से लेकर नॉर्थ ईस्ट तक से आए हैं। ये छत्तीसगढ़ के घने जंगलों, बंगाल में नदी किनारे के गांवों, अरुणाचल और त्रिपुरा की धुंध भरी पहाड़ियों और मध्य प्रदेश के मैदानी इलाके से आए।

अपने घरों, परिवारों और पुरानी पहचानों को पीछे छोड़ते हुए उन्होंने अपने सिर मुंडवाए। पारंपरिक रूप से दिवंगत लोगों के लिए अपना पिंडदान किया। उस क्षण में उन्होंने अपनी पुरानी दुनिया से अपने संबंध तोड़ लिए।

नागा साधुओं के रूप में दीक्षा लेने वालों ने एक ऐसे अस्तित्व में प्रवेश किया, जहां जाति और वंश अब उन्हें परिभाषित नहीं करते हैं। केवल उनकी आध्यात्मिक खोज ही उन्हें परिभाषित करती है। अखाड़े एवं मठवासी, जो लंबे समय से हिंदू तप के गढ़ रहे हैं, चुपचाप इस परिवर्तन की दिशा में काम कर रहे हैं।

क्या कहते हैं अखाड़ा परिषद?

अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत रवींद्र पुरी ने कहा कि सभी अखाड़े आदिवासी और हाशिए के समुदायों के धर्मांतरण को रोकने के लिए अभियान चला रहे हैं। कई लोगों ने संन्यास लेने और अपने जीवन को सनातन धर्म को समर्पित करने का विकल्प चुना है।

जगद्गुरु महेंद्रानंद गिरी और महामंडलेश्वर कैलाशानंद गिरी, दोनों दलित संन्यासी हैं। उन्हें सर्वोच्च धार्मिक पद पर आसीन किया गया है। उनके प्रभाव ने हाशिए पर पड़े समुदायों को पारंपरिक रूप से अलग-थलग पड़े इन स्थानों में स्वीकृति पाने के लिए प्रेरित किया है।

जूना अखाड़े के प्रवक्ता श्रीमहंत नारायण गिरी ने कहा कि धर्मांतरण को रोकने के लिए जाति, धर्म और वर्ग के बीच की खाई को पाटना जरूरी है। हम इसी दिशा में काम कर रहे हैं। यही वजह है कि इतने सारे दलित और आदिवासी संन्यास ले रहे हैं।

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