भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कई वीरों ने अपने प्राणों की आहुति दी, लेकिन भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु का बलिदान सबसे अविस्मरणीय घटनाओं में से एक है। 23 मार्च 1931 को अंग्रेजों ने इन तीनों क्रांतिकारियों को फांसी दे दी थी। यह दिन भारत के इतिहास में ‘शहीद दिवस’ के रूप में जाना जाता है। अदालती आदेश के अनुसार इन्हें 24 मार्च 1931 की सुबह फांसी दी जानी थी, लेकिन ब्रिटिश हुकूमत ने डर के कारण 23 मार्च की शाम 7 बजे ही इन्हें फांसी पर लटका दिया।
आखिरी खत और क्रांति की प्रतिज्ञा
भगत सिंह ने जेल में रहते हुए कई पत्र लिखे, जिनमें से उनका अंतिम पत्र उनके साथियों के नाम था। इसमें उन्होंने लिखा, “मुझे जीने की इच्छा है, लेकिन मैं कैदी बनकर या पाबंद होकर नहीं रह सकता। मेरे हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ने से देश की माताएं अपने बच्चों को भगत सिंह बनाने का सपना देखेंगी और क्रांति की लहर इतनी तेज होगी कि उसे रोका नहीं जा सकेगा।”
लाला लाजपत राय की मौत का बदला
1928 में जब साइमन कमीशन का विरोध कर रहे प्रदर्शनकारियों पर अंग्रेज अफसर जेम्स ए स्कॉट ने लाठीचार्ज करवाया, तब लाला लाजपत राय बुरी तरह घायल हो गए और 17 नवंबर 1928 को उनका निधन हो गया। इस घटना से भगत सिंह और उनके साथियों में रोष भर गया।
क्रांतिकारी दल ने फैसला किया कि वे स्कॉट को मारकर इस अन्याय का बदला लेंगे। योजना के अनुसार 17 दिसंबर 1928 को भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु और चंद्रशेखर आजाद ने लाहौर में पुलिस मुख्यालय के बाहर हमला किया, लेकिन गलती से एएसपी सॉन्डर्स को निशाना बना दिया और उसे मौत के घाट उतार दिया।
बम धमाके से ब्रिटिश सरकार को हिलाया
8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दिल्ली असेंबली में ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ और ‘ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल’ के विरोध में बम फेंका। उनका उद्देश्य किसी को नुकसान पहुंचाना नहीं था, बल्कि ब्रिटिश हुकूमत को यह दिखाना था कि भारतीय क्रांतिकारी जाग चुके हैं। उन्होंने नारे लगाए – ‘इंकलाब जिंदाबाद’ और ‘साम्राज्यवाद का नाश हो।’ इसके बाद उन्होंने स्वयं को गिरफ्तार करवा दिया।
मृत्युदंड और अंतिम विदाई
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को ‘लाहौर षड्यंत्र केस’ में दोषी ठहराया गया और 7 अक्टूबर 1930 को मृत्युदंड की सजा सुनाई गई। कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष मदन मोहन मालवीय ने दया याचिका दायर की, जिसे 14 फरवरी 1931 को खारिज कर दिया गया।
23 मार्च 1931 को शाम 7:33 बजे, तीनों वीरों को फांसी दे दी गई। कहा जाता है कि जब उनसे अंतिम इच्छा पूछी गई, तो भगत सिंह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और उन्होंने कहा, “रुकिए, पहले एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल तो ले।” इसके बाद उन्होंने किताब बंद की और हंसते हुए कहा, “अब चलो।” फांसी के तख्ते की ओर बढ़ते हुए उन्होंने ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ गाना गाया और हंसते-हंसते फांसी चूम ली।
भारत के लिए प्रेरणा के प्रतीक
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु का बलिदान सिर्फ इतिहास का एक अध्याय नहीं, बल्कि देशभक्ति और क्रांति की प्रेरणा का स्रोत है। इनकी कुर्बानी ने स्वतंत्रता संग्राम को और अधिक गति दी और आज भी हर भारतीय के दिल में ये अमर हैं। शहीद दिवस हमें याद दिलाता है कि स्वतंत्रता की कीमत कितनी बड़ी होती है और इसे बनाए रखने के लिए हमें हमेशा सचेत रहना चाहिए।