आतंक आम लोगों को निशाना बनाता है, जबकि VVIP को मिलती है Z+ सुरक्षा

सड़क से लेकर आतंकवादी हमले तक आम आदमी और VVIP की जान की कीमत अलग क्यों?

धुआँ छँटने और सायरनों की आवाज़ धीमी होने से पहले ही दिल्ली बदल चुकी थी। वजह सिर्फ धमाका नहीं था—बल्कि यह कि आम लोग—मज़दूर, छात्र, माता-पिता—उन गलतियों की कीमत अपनी जान देकर चुका गए, जिन्हें उन्होंने कभी पैदा ही नहीं किया।

10 नवंबर 2025 की शाम राजधानी दिल्ली के इतिहास में एक और काला दिन बन गई। शाम लगभग 6:50 बजे लाल क़िला मेट्रो स्टेशन के गेट नंबर 1 के पास एक हुंडई i20 में लगाए गए विस्फोटक अचानक फट पड़े। कुछ ही सेकंडों में चहल-पहल से भरी सामान्य शाम आग, चीख-पुकार और जली हुई धातु व मांस की गंध में बदल गई।

इस धमाके—जिसे अब 10/11 धमाका कहा जा रहा है—ने 12 से 15 लोगों की जान ले ली। अधिकतर वही आम नागरिक थे—एक चायवाला, एक रिक्शा चालक, कानपुर से घूमने आया परिवार और गुब्बारे बेचने वाला बच्चा। दो दर्जन से अधिक लोग घायल हुए।

एक बार फिर वही कहानी—खुफिया चूक, देर से सतर्कता, और ऐसी व्यवस्था जहाँ हर बार कीमत आम नागरिक ही चुकाता है।

आतंक का निशाना हमेशा आम लोग, शक्तिशाली नहीं

लाल क़िला—आजादी का प्रतीक—ने तिरंगा भी देखा है और धमाकों का धुआँ भी। लेकिन यह हमला सिर्फ एक आतंकी घटना नहीं; यह याद दिलाता है कि हमारे समाज में कमज़ोरी और खतरा बराबर नहीं बँटा है।

हर बार जब ऐसी त्रासदी होती है, मरता वही है जो सड़क पर है—चाय बेचने वाला, बस से आने-जाने वाला, छोटी दुकान चलाने वाला। VVIP व्यक्ति—बुलेटरोधी काँच और सायरन वाले काफिलों में—’गहरी चिंता’ के बयान जारी करते हैं, जबकि उनकी गाड़ियाँ खाली कराई गई लेन से गुजरती रहती हैं।

उनकी सुरक्षा एक रात में और कड़ी हो जाती है, लेकिन करोड़ों लोग—मेट्रो, बाज़ार और बस स्टॉप पर—अब भी किस्मत के भरोसे जीते हैं। भारत में सुरक्षा भी वर्गों में बँटी है—जितना आप सत्ता से दूर, उतनी आपकी सुरक्षा कम।

भारत में सुरक्षा और विशेषाधिकार का असमान बोझ

जब किसी बड़े स्मारक के पास विस्फोट होता है, पूरा शहर जकड़ दिया जाता है। सड़कें बंद, नाके बढ़ जाते हैं, कड़े चेकिंग…

अमीरों के लिए यह असुविधा है। ग़रीबों के लिए यह रोज़ की कमाई का खत्म होना।

10/11 ब्लास्ट के बाद लाल क़िले के पास के सैकड़ों छोटे दुकानदारों को अनिश्चित समय तक दुकानें बंद करनी पड़ीं। उनकी रोज़ी गई, लेकिन कहीं कोई चर्चा नहीं। टोल टैक्स वही आम आदमी देता है— जिसके पैसों से वीवीआईपी सुरक्षा बनती है, लेकिन वीवीआईपी कारें बिना रुके निकल जाती हैं।

एक बार फिर सच साफ हो गया— जब शहर पर हमला होता है, गरीब पहले मरता है और जब शहर ठीक होता है, गरीब सबसे आख़िर में संभलता है।

कुछ के लिए सुरक्षा, लाखों के लिए डर

राष्ट्रीय जांच एजेंसी की जाँच में कश्मीर और हरियाणा से जुड़े संदिग्ध पकड़े गए हैं। जाँच में खुलासा हुआ कि यह विस्फोटक उपकरण आधारित कार बम था—संभवतः आत्मघाती हमला—जिसे एक उग्रवादी समूह ने अंजाम दिया।

लेकिन अमोनियम नाइट्रेट और वाहन पंजीकरण की तकनीकी जानकारियों के पीछे एक और गहरी सच्चाई छिपी है— हमारी व्यवस्था हर बार हादसे के बाद जागती है, पहले नहीं।

भारत में सुरक्षा का वादा शर्तों पर आधारित लगता है— लाल बत्ती वालों के लिए मजबूत, आम यात्रियों के लिए कमज़ोर। 10/11 धमाके ने सिर्फ एक आतंकी नेटवर्क नहीं, बल्कि एक ऐसा समाज उजागर किया जहाँ जीवन की कीमत एक जैसी नहीं है। कब तक वही लोग—जो वोट देते हैं, कर भरते हैं, टोल चुकाते हैं और देश चलाते हैं—सबसे ज्यादा “कुर्बान” मान लिए जाएँगे?

आघात से आगे बढ़ने के लिए सिस्टम का बदलना ज़रूरी है

“दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा”—सरकार के ये शब्द ज़रूरी हैं, लेकिन पर्याप्त नहीं। न्याय सिर्फ आतंकियों को पकड़ने तक सीमित नहीं; न्याय यह भी है कि अगला हमला होने से पहले नागरिक सुरक्षित रहें।

इसके लिए ज़रूरी है—

  • भीड़भाड़ वाले इलाक़ों में बेहतर निगरानी

  • एजेंसियों के बीच मजबूत समन्वय

  • और एक ऐसी सोच, जो आम नागरिक की जान को VVIP व्यक्तियों की सुरक्षा जितनी ही कीमत दे

राष्ट्रीय सुरक्षा का अर्थ संसद या सत्ता के गलियारों तक सीमित नहीं हो सकता। यह चाँदनी चौक की गलियों में शुरू होना चाहिए, मेट्रो स्टेशनों पर, और उन्हीं टोल सड़कों पर जहाँ आम आदमी अब भी अपनी सुरक्षा की कीमत “नकद, समय और कभी-कभी खून” से चुकाता है।

लाल क़िला घायल है लेकिन झुका नहीं—बिल्कुल उन लोगों की तरह जो उसके आसपास रहते और काम करते हैं। लेकिन 10/11 धमाके में अपने प्रियजनों को खोने वाले परिवारों की मज़बूती कोई विकल्प नहीं—यह व्यवस्था की उदासीनता से उपजी मजबूरी है।

आतंकी सुरक्षा की दरारों का फायदा उठाते हैं, लेकिन वे हमारी अंतरात्मा की दरारें भी उजागर कर देते हैं। एक ऐसी व्यवस्था जहाँ खास लोग टोल गेट्स से बेधड़क गुजरें और आम आदमी डर में खड़ा रहे, उसे यह सवाल खुद से पूछना चाहिए— “आख़िर इस गणराज्य का मालिक कौन है?”

जब तक आम आदमी की सुरक्षा उतनी ही पवित्र नहीं हो जाती जितनी सत्ता वालों की सुविधा, हर धमाका—जैसे 10/11 दिल्ली धमाका—सिर्फ आतंकी हमला नहीं, बल्कि एक आईना रहेगा जो दिखाता है कि यह देश अभी भी लोगों से ज्यादा विशेषाधिकार को बचाता है।

क्योंकि जब शहर जलता है, गरीब सबसे पहले मरता है और जब शहर ठीक होता है, वही सबसे अंत में संभलता है।

नौगाम पुलिस स्टेशन विस्फोट: वह धमाका जिसने चल रही जाँच को हिला दिया

15 नवंबर 2025 की सुबह श्रीनगर (जम्मू-कश्मीर) के बाहरी इलाके में स्थित नौगाम पुलिस स्टेशन एक जोरदार धमाके से मलबे में बदल गया। यह विस्फोट—जिसे अधिकारियों ने दुर्घटनात्मक बताया है—तब हुआ जब करीब 360 किलोग्राम अमोनियम नाइट्रेट और अन्य जब्त किए गए विस्फोटक पदार्थ फोरेंसिक जाँच के दौरान अचानक फट गए।

यह वही सामग्री थी जो कुछ दिन पहले राष्ट्रीय जांच एजेंसी द्वारा जब्त की गई थी, 10 नवंबर 2025 के दिल्ली लाल क़िला कार बम धमाके की जाँच के तहत— वही हमला जिसमें कम से कम 12 लोगों की जान गई और दो दर्जन से अधिक लोग घायल हुए।

घटनाओं की कड़ी: दिल्ली से नौगाम तक

लाल किले के पास हुए धमाके के बाद, दिल्ली, हरियाणा और जम्मू–कश्मीर में जांच एजेंसियों ने लगभग 2,900 किलोग्राम विस्फोटक सामग्री बरामद की। इसमें अमोनियम नाइट्रेट, हाइड्रोजन पेरॉक्साइड, एसेटोफेनोन और टीएटीपी (ट्रायएसिटोन ट्राइपेरॉक्साइड) के अंश शामिल थे। टीएटीपी एक अत्यंत अस्थिर रसायन है, जिसे कुख्यात रूप से “मदर ऑफ़ सैटन” कहा जाता है।

लगभग 360 किलोग्राम अमोनियम नाइट्रेट को फोरेंसिक जांच और सुरक्षित भंडारण के लिए नौगाम थाने भेजा गया था। यह स्थानांतरण एनआईए की बहु-राज्य जांच प्रक्रिया का नियमित हिस्सा था, जो दिल्ली धमाके को अंजाम देने वाले मॉड्यूल की जांच कर रही है।

प्रारंभिक रिपोर्टों के अनुसार, धमाका उस समय हुआ जब फॉरेंसिक साइंस लेबोरेटरी (एफएसएल) की टीम और स्थानीय पुलिस कर्मचारी जब्त किए गए रसायनों का परीक्षण और नमूना-संग्रह कर रहे थे। जांचकर्ताओं का मानना है कि विस्फोट तब हुआ जब कोई अत्यंत अस्थिर द्रव रसायन — संभवतः हाइड्रोजन पेरॉक्साइड, एसेटोफेनोन या टीएटीपी के अवशेष — अनजाने में अमोनियम नाइट्रेट के सम्पर्क में आ गया, जिससे अत्यधिक संवेदनशील विस्फोटक मिश्रण बन गया।

जनहानि और विनाश

धमाके का असर विनाशकारी था।

मृतक: 9 लोग, जिनमें पुलिस अधिकारी, फोरेंसिक विशेषज्ञ और एक तकनीशियन शामिल थे।
घायल: 27 से 32 लोग, जिनमें कई गंभीर रूप से झुलसे या छर्रे से घायल हुए।

धमाके ने नौगाम पुलिस स्टेशन को पूरी तरह तबाह कर दिया। आस-पास खड़ी गाड़ियाँ आग की लपटों में घिर गईं, आसपास के घरों–इमारतों की खिड़कियां टूट गईं और जमीन में कई फीट गहरा गड्ढा बन गया। लोगों ने बताया कि उन्होंने धमाका चार किलोमीटर दूर तक सुना।

घटनास्थल के वीडियो में मुड़े-तुड़े लोहे के ढाँचे, जली हुई पुलिस गाड़ियाँ और पास की इमारतों का ढह गया हिस्सा साफ दिखाई देता है।

आधिकारिक प्रतिक्रिया और जवाबदेही

जम्मू–कश्मीर के पुलिस महानिदेशक नलिन प्रभात ने पुष्टि की कि धमाका पूरी तरह दुर्घटनावश हुआ था। किसी बाहरी हमले या साजिश की संभावना से इनकार किया गया। उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि यह विस्फोट दिल्ली लाल किला धमाके से जुड़ी जब्त सामग्री की जांच के दौरान हुआ, जिसकी निगरानी एनआईए कर रही है।

केंद्र सरकार ने इस पर उच्च-स्तरीय जांच के आदेश दिए हैं कि इतनी बड़ी मात्रा में अत्यंत संवेदनशील विस्फोटक सामग्री को एक सक्रिय पुलिस स्टेशन में बिना विशेष सुरक्षा-संरचना के क्यों रखा गया और वहीं परीक्षण क्यों किया जा रहा था। विशेषज्ञों ने इस निर्णय की आलोचना की है। उनका कहना है कि अमोनियम नाइट्रेट सामान्यतः स्थिर होता है, लेकिन यदि यह ऑक्सीडाइज़र, ताप, घर्षण या रासायनिक अशुद्धियों के संपर्क में आए तो यह बेहद खतरनाक हो सकता है।

एक पूर्व एनआईए अधिकारी ने कहा — “यह त्रासदी बताती है कि जब्त किए गए विस्फोटकों को संभालने में हमारी प्रणाली में गंभीर खामियाँ हैं। अमोनियम नाइट्रेट केवल ‘सबूत’ नहीं है — गलत तरीके से संभाला जाए तो यह अपने-आप में एक बम बन सकता है। फोरेंसिक परीक्षण हमेशा अलग-थलग सुरक्षित क्षेत्रों में होना चाहिए, न कि सक्रिय पुलिस परिसर में।”

लाल किले के आतंकी मॉड्यूल से संबंध

नौगाम धमाका आठ दिनों में दूसरा बड़ा विस्फोट है, जो दिल्ली के लाल किले के कार-ब्लास्ट मॉड्यूल से जुड़ा हुआ है। दिल्ली धमाके को कथित रूप से डॉ. उमर-उन्-नबी नामक पुलवामा के एक डॉक्टर ने अंजाम दिया था, जो तकनीकी ज्ञान रखने वाले शिक्षित कट्टरपंथियों के नेटवर्क से जुड़ा बताया जा रहा है। इससे “व्हाइट-कॉलर टेररिज़्म” की चिंताजनक प्रवृत्ति सामने आई थी — जहाँ अत्यधिक शिक्षित लोग भी कट्टरपंथी संगठनों से जुड़ते जा रहे हैं।

नौगाम विस्फोट ने जांच को और जटिल बना दिया। कई महत्वपूर्ण सबूत — जैसे रासायनिक नमूनों के पैकेट, भंडारण रिकॉर्ड और पैकेजिंग सामग्री — आग में नष्ट हो गए, जिससे फोरेंसिक निष्कर्षों में देरी हो सकती है।

सुरक्षा और प्रणाली की गंभीर खामियाँ

भले ही अधिकारी यह कह रहे हों कि नौगाम धमाका एक दुर्घटना थी, लेकिन इसने कई महत्वपूर्ण सवाल उठाए हैं — इतनी अस्थिर सामग्री को बिना विशेष सुरक्षा-बुनियादी ढांचे वाले पुलिस स्टेशन में कैसे रखा गया? रात के समय सबूतों का परीक्षण क्यों किया जा रहा था और किस निगरानी में?

विशेषज्ञों का कहना है कि भारत की खुफिया क्षमता भले ही मजबूत हो, लेकिन खतरनाक रसायनों और विस्फोटकों को संभालने की व्यवस्था अभी भी कमजोर है। अक्सर फोरेंसिक जांच अस्थायी सुविधाओं और सीमित संसाधनों के सहारे की जाती है, जिससे ऐसे गंभीर हादसों की संभावना बढ़ जाती है।

निष्कर्ष: त्रासदी से मिलने वाले सबक

नौगाम विस्फोट एक कड़वा सच याद दिलाता है —कि न्याय की खोज में भी लापरवाही कई बार जान ले लेती है। सिर्फ एक हफ्ते में देश ने दो बड़े धमाके देखे — एक आतंकवाद का परिणाम, और दूसरा प्रक्रियात्मक चूक का, लेकिन दोनों एक ही जांच-श्रृंखला से जुड़े थे।

लाल किले धमाके की जांच आगे बढ़ रही है, लेकिन इस दूसरी त्रासदी ने साफ कर दिया है कि भारत को तुरंत विशेष विस्फोटक-प्रबंधन केंद्र, सख्त फोरेंसिक सुरक्षा प्रोटोकॉल और खतरनाक रसायनों को संभालने वाली टीमों के लिए बेहतर प्रशिक्षण की ज़रूरत है।

एक ऐसे देश के लिए, जो कई मोर्चों पर आतंकवाद से लड़ रहा है, नौगाम पुलिस स्टेशन का धमाका केवल एक दुर्घटना नहीं है —
यह चेतावनी है कि आतंक के खिलाफ लड़ाई उतनी ही अनुशासित और सटीक होनी चाहिए, जितना खतरनाक यह खतरा स्वयं है।

अल-फलाह की परछाई: अकादमिक संस्थान से कथित कट्टरपंथी नेटवर्क तक

2014 में अल-फलाह चैरिटेबल ट्रस्ट के अधीन स्थापित इस विश्वविद्यालय को आधुनिक शिक्षा—विशेषकर इंजीनियरिंग, चिकित्सा विज्ञान और शिक्षक प्रशिक्षण—का प्रमुख केंद्र बनाने की कल्पना की गई थी। दिल्ली से मात्र 30 किलोमीटर दूर स्थित यह संस्थान तेजी से फैला और प्रभावशाली बना, जिसमें बड़ा परिसर, एक चिकित्सा महाविद्यालय और उससे जुड़ा अस्पताल शामिल है।

लेकिन समय के साथ, जो एक शिक्षण संस्थान होना चाहिए था, वह अब गंभीर राष्ट्रीय चिंता का विषय बन गया है। राष्ट्रीय जांच एजेंसी की जारी जाँच ने अल-फलाह के चिकित्सा महाविद्यालय से जुड़े तीन व्यक्तियों को लाल क़िला कार विस्फोट मामले से जोड़ा है—जिनमें डॉ. मुज़म्मिल (पूर्व निवासी डॉक्टर) और दो अन्य पूर्व प्रशिक्षु शामिल हैं। खुफिया सूचनाएँ यह भी दर्शाती हैं कि कथित मास्टरमाइंड और आत्मघाती हमलावर डॉ. उमर उन नबी (पुलवामा निवासी) अक्सर अल-फलाह परिसर और आसपास के क्षेत्रों में आते-जाते थे, तथा चिकित्सा सुविधाओं और छात्रावासों का उपयोग भर्ती और उग्रवादी प्रचार के लिए करते थे।

जाँचकर्ताओं का मानना है कि उमर, स्वयं को विद्वान और चिकित्सक के रूप में प्रस्तुत करते हुए, कश्मीरी प्रशिक्षुओं और विद्यार्थियों के साथ “अध्ययन सत्र” आयोजित करता था, जहाँ वह कथित रूप से धार्मिक प्रतिरोध के नाम पर उग्रवादी हिंसा को उचित ठहराता था। जब्त डिजिटल सामग्री और छात्रों के बयान यह संकेत देते हैं कि उसने अकादमिक स्थानों—कैफेटेरिया, चिकित्सा चर्चाओं और छात्र समूहों—का उपयोग प्रभावशाली छात्रों को भटकाने के लिए किया, विशेषकर उन्हें जो राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों से मनोवैज्ञानिक रूप से अलग-थलग थे।

रियायती भूमि से विवाद तक: संरक्षण की राजनीति

अल-फलाह विश्वविद्यालय से जुड़े विवादों की जड़ें इसकी स्थापना तक जाती हैं। 2014 में कांग्रेस सरकार (भूपेंद्र सिंह हुड्डा के नेतृत्व में) के दौरान लगभग 70 एकड़ पंचायत भूमि अल-फलाह चैरिटेबल ट्रस्ट को रियायती दरों पर आवंटित की गई थी, जो अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों के लिए बनाई गई नीति के तहत आती थी। कानूनी रूप से स्वीकृत होने के बावजूद, यह आवंटन उस समय भी संदिग्ध माना गया—विशेषकर भूमि के ऊँचे बाज़ार मूल्य और दिल्ली-एनसीआर की निकटता को देखते हुए।

बाद में विपक्षी दलों और दक्षिणपंथी समूहों ने सरकार पर “तुष्टिकरण राजनीति” का आरोप लगाया, यह कहते हुए कि ऐसे रियायती सौदे अक्सर योग्यता के बजाय राजनीतिक लाभ के लिए किए जाते हैं। हालाँकि किसी भी न्यायालय ने इस भूमि आवंटन को अवैध नहीं ठहराया है, लेकिन जिस उदार सरकारी समर्थन का यह ट्रस्ट लाभार्थी रहा है, और अब उस पर जिन कथित कट्टरपंथी संबंधों की जाँच चल रही है—उनके बीच का विरोधाभास अनदेखा नहीं किया जा सकता।

यह विवाद व्यापक शासन-समस्या की ओर संकेत करता है: समावेशी शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए बनाई गई नीतियाँ, यदि निगरानी कमजोर हो, तो अपारदर्शी नेटवर्कों के लिए अनुकूल माहौल तैयार कर देती हैं। प्रवर्तन निदेशालय द्वारा अल-फलाह ट्रस्ट से जुड़े वित्तीय लेन-देन, दान और संदिग्ध कंपनियों की जाँच इसी बात का पता लगाने के लिए की जा रही है कि क्या धनराशि का उपयोग शिक्षा के दायरे से बाहर—संभवतः आतंकी गतिविधियों—में तो नहीं हुआ।

नियमन तो है, पर निगरानी नहीं: भारत की अकादमिक कमज़ोरी

पिछले दो दशकों में भारत में निजी विश्वविद्यालयों की संख्या तेजी से बढ़ी है—जिनमें से अनेक धार्मिक या चैरिटेबल ट्रस्टों के अधीन चलते हैं। ये कर छूट, भूमि आवंटन और राज्य निजी विश्वविद्यालय अधिनियमों के तहत सहज विनियामक रास्तों का लाभ उठाते हैं। लेकिन संचालन शुरू होते ही, अधिकांश संस्थान व्यावहारिक रूप से बिना निगरानी के रह जाते हैं।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद जैसी संस्थाएँ मुख्यतः शैक्षणिक अनुपालन पर ध्यान देती हैं—न कि वित्तीय या वैचारिक निगरानी पर। परिणामस्वरूप एक ऐसा विनियामक शून्य बनता है जहाँ संस्थान “शैक्षणिक” पहचान का उपयोग कागज़ पर करते हैं, लेकिन व्यवहार में यह पहचान वैचारिक रूप से पक्षपाती या वित्तीय रूप से अपारदर्शी हो सकती है।

अल-फलाह के मामले में यह निगरानी अंतर स्पष्ट है। वर्ष 2025 में विश्वविद्यालय ने अपनी वेबसाइट पर “एनएएसी ए ग्रेड प्रत्यायन” दिखाया था, जबकि उसने कभी औपचारिक रूप से एनएएसी मूल्यांकन कराया ही नहीं। मीडिया रिपोर्ट के बाद ही नोटिस जारी किया गया—यह दर्शाता है कि बिना किसी दंड के संस्थान कितनी आसानी से गलत जानकारी प्रस्तुत कर सकते हैं।

यदि वर्तमान आरोपों का एक अंश भी सही साबित होता है, तो अल-फलाह का मामला एक शैक्षणिक प्रशासनिक गलती नहीं—बल्कि एक राष्ट्रीय सुरक्षा चिंता बन जाता है। जब नियामक संस्थाएँ यह जाँच ही नहीं करतीं कि निजी विश्वविद्यालयों को कौन धन देता है, कौन चलाता है और कौन पढ़ाता है, तो वैचारिक घुसपैठ अनदेखी रह जाती है—जब तक कि कोई त्रासदी सामने न आए।

सरकार की संतुलन चुनौती: सतर्कता और स्वतंत्रता के बीच

वर्तमान केंद्रीय सरकार ने लाल क़िला धमाके और उसके बाद की जाँच के मद्देनज़र कड़ा रुख अपनाया है। अल-फलाह परिसर, ओखला कार्यालय और ट्रस्ट के पदाधिकारियों—जिनमें संस्थापक जावेद सिद्दीकी भी शामिल हैं—पर छापेमारी की गई। दान, विदेशी लेन-देन और वित्तीय अभिलेखों की जाँच जारी है।

हालाँकि विशेषज्ञों का मानना है कि ये उपाय प्रतिक्रियात्मक हैं, न कि निवारक। वर्षों से सुरक्षा एजेंसियाँ उत्तर भारत के कुछ निजी महाविद्यालयों में कट्टरपंथी गतिविधियों के संकेत देती रही थीं—विशेषकर वे कॉलेज जहाँ संघर्ष-प्रभावित क्षेत्रों (कश्मीर सहित) से छात्र पढ़ाई या प्रशिक्षण के लिए आते थे। फिर भी संस्थागत निगरानी कमजोर रही, क्योंकि शिक्षा नीति और आतंक-निरोध के बीच तालमेल को कभी व्यवस्थित तौर पर विकसित नहीं किया गया।

अब सरकार की चुनौती यह है कि वह शैक्षणिक स्वतंत्रता और राष्ट्रीय सुरक्षा के बीच संतुलन बनाए।
अधिक-नियमन वैध अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों को नुकसान पहुँचाता है,
कम-नियमन उग्रवादी नेटवर्कों को छिपने और पनपने का अवसर देता है।

समाधान एक ऐसी समन्वित व्यवस्था में है, जहाँ शिक्षा मंत्रालय, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, मूल्यांकन परिषद और गृह मंत्रालय के बीच खुफिया और प्रशासनिक जानकारी का साझा तंत्र हो—ताकि वैचारिक निगरानी राजनीति का रूप न ले, बल्कि केवल वस्तुनिष्ठ सुरक्षा मानकों पर आधारित रहे।

मानवीय कीमत: जब चूक मौत बन जाती है

राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप और मीडिया की सनसनी से परे, लाल क़िला धमाके—और उससे जुड़ी प्रणालीगत चूक—की सबसे त्रासद वास्तविकता है मानव हानि। पीड़ित सैनिक या राजनेता नहीं थे—बल्कि आम नागरिक: सड़क विक्रेता, पर्यटक, मेट्रो यात्री, और बच्चे।

शिक्षित पेशेवरों—डॉक्टरों, इंजीनियरों और विद्वानों—की कथित भर्ती और कट्टरपंथीकरण एक नई चिंताजनक प्रवृत्ति दिखाता है। उग्रवाद अब दूर-दराज़ के प्रशिक्षण शिविरों तक सीमित नहीं; वह अब शहरी शिक्षण संस्थानों में पनप रहा है—सम्मान और उपेक्षा की आड़ में। प्रत्येक चूक, हर अनदेखी चेतावनी—किसी न किसी की जान लेती है। और ये जानें उन्हीं की होती हैं जो व्यवस्था पर भरोसा करते हैं कि वह उन्हें बचाएगी।

जवाबदेही की पुकार, न कि बदले की राजनीति

अल-फलाह विश्वविद्यालय जाँच के दायरे में है—यह उचित है। लेकिन संस्थागत विफलता और संस्थागत अपराध में अंतर है। हज़ारों निर्दोष विद्यार्थी और शिक्षक उसी विश्वविद्यालय के नाम के साथ अपनी शिक्षा और करियर आगे बढ़ा रहे हैं। किसी व्यापक निंदा का अर्थ होगा—उन समुदायों को दंडित करना जिन्हें राज्य जोड़ना चाहता है।

जवाबदेही तथ्य-आधारित, सटीक और सुधार-उन्मुख होनी चाहिए। भारत को एक शिक्षा-सुरक्षा निरीक्षण ढाँचे की आवश्यकता है—एक बहु-मंत्रालयीय निकाय, जो निजी विश्वविद्यालयों के धन स्रोतों, भूमि आवंटन, विदेशी सहयोग और वैचारिक प्रभावों पर निगरानी रख सके। नियमित ऑडिट, पारदर्शी प्रकटीकरण और छात्र-सुरक्षा तंत्र—वर्तमान “छापा और फटकार” वाली व्यवस्था की जगह लेनी चाहिए।

अल-फलाह प्रकरण केवल एक विश्वविद्यालय की बात नहीं—यह भारत की निरीक्षण प्रणाली की नाजुकता का आईना है। यह दिखाता है कि शिक्षा और समावेश को बढ़ावा देने का उद्देश्य, ढीली निगरानी के चलते, कैसे दुरुपयोग का माध्यम बन सकता है।

शैक्षणिक संस्थान ज्ञान के मंदिर हैं—लेकिन जब शासन आँखें मूँद ले, तो वही संस्थान उग्रवाद के आश्रय भी बन सकते हैं।
अकादमिक स्वतंत्रता का अर्थ जवाबदेही से स्वतंत्रता नहीं हो सकता।
राज्य को याद रखना चाहिए—लापरवाही ख़तरा पैदा करती है, और हर अनियंत्रित संस्थान एक दिन जोखिम बन सकता है—चाहे उसकी नीयत हो या न हो।

एसएचयूएटीएस, अल-फलाह और हज हाउस—वह पैटर्न जिसे भारत अब अनदेखा नहीं कर सकता

10 नवंबर के लाल क़िला धमाके के बाद, भारत एक असहज लेकिन अनिवार्य प्रश्न का सामना कर रहा है: कितने संकट टल सकते थे, यदि हमारे संस्थान न्यूनतम निगरानी भी कर लेते?

जैसे ही जांचकर्ताओं ने पाया कि कथित आत्मघाती हमलावर के अल-फलाह विश्वविद्यालय के आसपास संपर्क थे, एक परिचित पैटर्न फिर उभरा—ऐसा पैटर्न जिसमें राजनीतिक रियायतें, अपारदर्शी भूमि सौदे, और कमजोर नियामक निगरानी शामिल होती है। समय के साथ ये नेटवर्क उग्रवाद, जबरन धर्मांतरण या भ्रष्टाचार के आरोपों में तब्दील हो जाते हैं।

और अब यह पैटर्न प्रयागराज स्थित एसएचयूएटीएस विश्वविद्यालय और पिछली सरकारों के समय बने राज्य-वित्तपोषित हज हाउस तक फैल चुका है।

एसएचयूएटीएस: आस्था नहीं, लापरवाही का मामला

कभी प्रतिष्ठित कृषि संस्थान के रूप में जाना जाने वाला एसएचयूएटीएएस विश्वविद्यालय हाल के वर्षों में एक के बाद एक विवादों का केंद्र बन गया है।

एक ईसाई अल्पसंख्यक मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय होने के बावजूद, इसके खिलाफ जो आरोप लगे हैं, वे गंभीर हैं—

  • उत्तर प्रदेश के धर्मांतरण-निरोधक कानून के तहत कई प्राथमिकी, जिनमें प्रबंधन पर दलितों को धन और अन्य लाभ देकर ईसाई धर्म अपनाने के लिए प्रेरित करने का आरोप है,

  • भूमि कब्ज़ा विवाद,

  • विश्वविद्यालय के कुलपति से जुड़े बहु-करोड़ बैंक धोखाधड़ी मामले,

  • और विशेष कार्यबल द्वारा उजागर की गई गंभीर भर्ती अनियमितताएँ।

संस्थान स्वयं को प्रताड़ित बताया करता है, लेकिन न्यायपालिका ने इससे सहमति नहीं जताई—सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर 2025 में हस्तक्षेप से इनकार करते हुए जाँच जारी रखने की अनुमति दी। मुद्दा यह नहीं कि संस्थान किस धर्म से जुड़ा है— मुद्दा यह है कि दशकों तक मिले असीम विशेषाधिकार और विनियामक ढिलाई ने किस तरह संदिग्ध गतिविधियों को फलने-फूलने दिया।

अल-फलाह और लाल क़िला धमाका: एक चेतावनी जिसे अनसुना किया गया, जब तक वह फट न पड़ी

2014 में तत्कालीक कांग्रेस नेतृत्व वाली हरियाणा सरकार द्वारा अल-फलाह विश्वविद्यालय को रियायती दरों पर भूमि आवंटन अवैध नहीं था।
फिर भी, यह वही ढीली निगरानी वाली मनोवृत्ति दर्शाता है जो भारत की शिक्षा-विनियामक प्रणाली को लंबे समय से परेशान कर रही है—
विशाल भूमि-खंड, विशेष अनुमतियाँ, न्यूनतम निरीक्षण, और फिर वर्षों बाद आश्चर्य जब इसके चिकित्सा महाविद्यालय के आसपास कट्टरपंथी नेटवर्क के आरोप सामने आते हैं।

प्रवर्तन निदेशालय की छापेमारियाँ, राष्ट्रीय जांच एजेंसी की जारी जाँच, और विश्वविद्यालय के त्वरित खंडन—सब एक ही सत्य बताते हैं:
निगरानी नुकसान के बाद आई, पहले नहीं।

हज हाउस: सार्वजनिक धन और चयनित धार्मिक ढाँचे

जब अखिलेश यादव ने गाज़ियाबाद और लखनऊ में राज्य-निधिकृत हज हाउसों के निर्माण पर लगभग ₹200 करोड़ खर्च किए, तो इसे अल्पसंख्यक कल्याण बताया गया। जब हेमंत सोरेन ने रांची में एक अन्य हज हाउस के लिए भूमि मंज़ूर की, तो औचित्य वही था।

लेकिन अगर राज्य को धार्मिक ढाँचा बनाना ही है, वह भी करदाताओं के पैसे से, तो:

  • यह केवल कुछ समुदायों के लिए ही क्यों?

  • हिन्दू, सिख, बौद्ध या आदिवासी यात्रियों के लिए समान सुविधाएँ क्यों नहीं?

यह धर्म का प्रश्न नहीं— यह समानता, प्राथमिकताओं और शासन-निष्पक्षता का प्रश्न है। सार्वजनिक धन का उपयोग लक्षित तुष्टिकरण के औज़ार के रूप में नहीं होना चाहिए। 2017 के बाद जनता की प्रतिक्रिया और उसके बाद आया “सुधार”—आश्चर्यजनक नहीं था।

एक राष्ट्रीय पैटर्न उभर रहा है—और वह सुखद नहीं है

सामाजिक मीडिया और राजनीतिक चर्चाओं में एक दोहराता क्रम सामने रखा जा रहा है—

  • अल-फलाह विश्वविद्यालय (मुस्लिम अल्पसंख्यक) → कांग्रेस काल में रियायती भूमि

  • एसएचयूएटीएस विश्वविद्यालय (ईसाई अल्पसंख्यक) → दशकों से विशेषाधिकार, अब कानूनी विवादों में

  • हज हाउस (यूपी, झारखंड) → समाजवादी पार्टी व झामुमो सरकारों के समय करदाता-वित्तपोषित धार्मिक परिसर

आलोचक इसे तुष्टिकरण की राजनीति कहते हैं। समर्थक इसे अल्पसंख्यक कल्याण, लेकिन इन राजनीतिक लेबलों से परे मुख्य वास्तविकता यह है: लगातार सरकारों ने भूमि, धन या विनियामक ढील तो दी— लेकिन उचित परिश्रम (due diligence) नहीं किया।

और जब निगरानी नहीं होती, तो कोई भी संस्थान— हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई या कोई भी— दुरुपयोग के लिए संवेदनशील हो जाता है।

वास्तविक पीड़ित संस्थान नहीं—आम नागरिक है

राजनीतिक बहसों और आरोप-प्रत्यारोप के बीच जो सबसे अधिक छूट जाता है, वह है मानवीय कीमत

लाल क़िला विस्फोट ने सड़क विक्रेताओं, ड्राइवरों, मज़दूरों— ऐसे लोगों की जान ली जो:

  • कभी रियायती भूमि नहीं पाए,

  • कभी किसी विश्वविद्यालय की विशेष सुविधाओं में नहीं गए,

  • और किसी हज हाउस के अंदर भी कभी नहीं पहुँचे।

वे उस प्रणालीगत लापरवाही की कीमत चुका रहे हैं, जिसने उग्रवादी समूहों को संस्थागत कमज़ोरियों और राजनीतिक उदारता का लाभ उठाने दिया।

करदाता भी दो बार कीमत चुकाता है—

  1. पहली बार जब सरकारें भूमि या धन तुष्टिकरण के नाम पर देती हैं,

  2. दूसरी बार जब वही संस्थान विवादों में घिरते हैं—जिनसे जुड़ी जाँच, अदालतें और सार्वजनिक असंतोष का बोझ फिर जनता पर आता है।

भारत को बहाने नहीं—जवाबदेही चाहिए

यह बहस न मुसलमानों, न ईसाइयों, न हिंदुओं की है। यह कांग्रेस या भाजपा की भी नहीं। यह शासन की बहस है—जो संस्थानों को धार्मिक टैग की परवाह किए बिना जवाबदेह बनाने में विफल रहा है।

राज्य को यह सुनिश्चित करना होगा—

  • पारदर्शी ऑडिट,

  • अल्पसंख्यक और गैर-अल्पसंख्यक संस्थानों का समान विनियमन,

  • भूमि और धन-उपयोग की रीयल-टाइम निगरानी,

  • और केवल घटना के बाद नहीं, बल्कि पहले से सक्रिय सुरक्षा निरीक्षण

जब तक प्रक्रिया-आधारित कठोरता नीति नहीं बनती— केवल दुर्घटना के बाद की प्रतिक्रिया नहीं— भारत एक विवाद से दूसरे विवाद तक ठोकर खाता रहेगा और हमेशा की तरह, इसकी कीमत न राजनेता चुकाएँगे, न विशेषाधिकार प्राप्त संस्थान— कीमत चुकाएगा वही आम नागरिक, जो इस देश में जीने और काम करने का अपराध करता है।

निष्कर्ष: एक ऐसा राष्ट्र जहाँ आम आदमी कीमत चुकाता है, और सत्ता अपने वोट-बैंक की रक्षा करती है

अंत में उजागर होता है सिर्फ कुछ विश्वविद्यालयों की विफलता नहीं, न ही कुछ अधिकारियों की लापरवाही— बल्कि उस राजनीतिक संस्कृति का नैतिक पतन, जो राष्ट्रीय सुरक्षा और मानव जीवन से ज्यादा वोट-बैंक को प्राथमिकता देती है।

हर बार जब कोई आतंक-संबंधी मॉड्यूल किसी राजनीतिक संरक्षण पाए संस्थान की छाया में पनपता है, हर बार जब सरकारें “तुष्टिकरण” या “अल्पसंख्यक पहुँच” के नाम पर आँखें मूँद लेती हैं— उसका मूल्य मंत्री नहीं, VVIP व्यक्ति नहीं और न ही उनके संरक्षित संस्थान चुकाते हैं—

उसकी कीमत चुकाता है आम भारतीय, जिसकी गलती सिर्फ इतना है कि वह इस देश में रहता और काम करता है। लाल क़िला धमाका, नौगाम पुलिस स्टेशन विस्फोट और इससे पहले की अनगिनत त्रासदियों में एक बात समान है— हमेशा वही मरता है जो सड़क पर होता है: रिक्शा चालक, चायवाला, दिहाड़ी मज़दूर, यात्री— वह भारतीय जिसका नाम कोई नहीं जानता।

वही व्यक्ति टोल-लाइनों में खड़ा रहता है, प्रत्येक किलोमीटर की कीमत अपनी जेब से चुकाता है, जबकि VVIP काफ़िले
बिना रुके, बिना भुगतान किए, बिना बोझ महसूस किए आगे निकल जाते हैं।

और फिर भी, वही सरकारें—वर्तमान और पूर्व— भूमि, धन, छूट या मौन प्रदान करती रहीं उन संस्थानों को जो बाद में कट्टरपंथ या वित्तीय भ्रष्टाचार के घेरे में आते हैं।

वे इसे “कल्याण”, “अल्पसंख्यक अधिकार”, या “अकादमिक स्वतंत्रता” कहते हैं— लेकिन सच्चाई इससे अधिक सरल और अधिक कुरूप है: वोटों के लिए किया गया तुष्टिकरण, जिसकी कीमत जनता की सुरक्षा से चुकाई जाती है। कितने निर्दोष लोग और मरेंगे जब तक हम मान न लें कि वोट-बैंक राजनीति भी जान लेती है? कितने शैक्षणिक संस्थानों की जाँच और करनी होगी जब तक हम स्वीकार न कर लें कि निगरानी की कमी दुर्घटना नहीं—डिज़ाइन है?

कब तक आम भारतीय खून बहाएगा, जबकि VVIP वर्ग कानून से ऊपर तैरता रहेगा? एक ऐसा राष्ट्र जो अपने कमजोरों को छोड़ दे, और शक्तिशाली लोगों को बचाए— वह लोकतंत्र नहीं, एक त्रासदी है जो बार-बार दोहराई जाती है। यदि भारत को इस चक्र को तोड़ना है— तो राजनीतिक उदारता समाप्त हो, जवाबदेही आरम्भ हो और कोई भी संस्थान— अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक, सरकारी या निजी— कभी भी उस विशेषाधिकार का दुरुपयोग न कर पाए जो “कल्याण” के नाम पर दिया गया है।

क्योंकि जब तक ऐसा नहीं होगा— उग्रवाद को छाया मिलती रहेगी, सरकारें यह दिखाती रहेंगी कि उन्हें पता नहीं था और आम भारतीय—जो टोल देता है, कतार में खड़ा रहता है, जीने के लिए जद्दोजहद करता है— इसी तरह सबसे बड़ी कीमत चुकाता रहेगा।

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